‘लक्ष्मी’ के आगे बेबस शिक्षा की देवी सरस्वती

‘लक्ष्मी’ के आगे बेबस शिक्षा की देवी सरस्वती

ब्रह्मानंद ठाकुर

विद्या की देवी कही जाने वाली सरस्वती की पूजा धूम-धाम की की जा रही है । शहर से लेकर गांव तक पंडाल सजे और और रंग विरंगी मूर्तियों से पटे पड़े हैं । गांव-गली, शहर-देहात  हर जगह पंडालों के निर्माण और एक-दूसरे से बेहतर आयोजन करने की प्रतिस्पर्धा शिखर छूने को बेताव । मानों प्रदर्शन में कमी रह गयी तो सरस्वती रूठ जाएगी । दूसरी  ओर अधिकांश शिक्षण संस्थाओं में  इस अवसर पर सन्नाटा । हर जगह चंदा उगाही का सिलसिला ।इसी बीच अखबारों में चंदे को लेकर छात्रों के गुटों में मारपीट और हिंसक वारदातों की खबरें भी । मुजफ्फरपुर शहर के एक प्रतिष्ठित कालेज में  पूजा के चंदे को लेकर अनेकों वार मार-पीट हो चुकी है। पुलिस भी ऐसी घटनाओं पर रोक नहीं लगा पाती। लगता है । गांव भी कहा बचा इन कुप्रवृतियों से । यहां भी सडकों पर बांस बल्ले लगा रास्ता रोक राहगीरों से चंदा वसूला जाने लगा है। मैं अपने इलाके की एक मुख्य सड़क से गुजर रहा था । देखा कुछ युवक बांस बल्ले लगा कर रास्ता रोक आने-जाने वालों से सरस्वती पूजा का चंदा वसूल रहे हैं । वहां के लोग मुझे पहचानते थे सो अगर बिना चंदा दिए मैं जाना चाहता तो जा सकता था लेकिन मैं भी रुका । मैं इनके बारे में कुछ समझना चाहता था ।दो युवक मेरे निकट आए। मैंने पूछा, तुम लोग यह क्या कर रहे हो ? उसमें से एक ने कहा – सरस्वती पूजा के लिए हम लोग चंदा वसूल रहे हैं । उसमें एक अमर नाम का लडका दरभंगा से बीएड कर रहा है। मैंने  कहा सरस्वती का हिज्जे बताओ । एक ने शुरू किया एस ए… मैने रोकते हुए कहा  ‘नहीं होगा।

इस पर उस बीएड के छात्र ने कहा आधा ‘ स’ आधा ‘र ‘और आगे कुछ कहता तब तक मैं उसे दस रूपये थमाते हुए आगे बढ गया । यह सोंचते हुए कि क्या सरस्वती की पूजा से ही शिक्षा पाई जा सकती है कि धर्म, आस्था और विश्वास  भी आडम्बर की भेंट क्यों चढ़ गया । यह बाजारवाद आदमी को आखिर किस दिशा में लिए जा रहा है ?  यही सब सोंचते हुए मैं पचास साल पहले के अपने छात्र जीवन में लौटता हूं। मेरा गांव बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन उतना छोटा भी नहीं। हमारे गांव मे एक बेसिक स्कूल और एक हाई स्कूल (अब प्लस दो) है तब भी यही दो शिक्षण संस्थाएं थीं । सरस्वती की पूजा केवल इन्हीं दोनों स्कूलों में होती थी।कहीं भी चौक चौराहे या सार्वजनिक स्थलों पर पूजा का आयोजन नहीं होता था । तीन से चार रूपये में सरस्वती की मूर्ति और पांच छ: रूपये में दो दिन के लिए लाऊड स्पीकर मिल जाता था । सजावट के लिए लडकियां अपने घरों से साडियां लाया करतीं थीं। प्रसाद के लिए गांव से केला मिल जाता था । हम छात्र गण अपने-अपने घरों से दूध चावल  लाते मिश्रीकंद खरीदा जाता । बैर पेड से तोड लाते थे। बुनिया भी खरीदी जाती थी और नारंगी-सेव भी। इस तरह पूजा सम्पन होती थी। बड़ा उत्साह रहता था। हम बच्चों में अभिभावक भी उपस्थित होते थे। दूसरे दिन शाम में जब प्रतिमा विसर्जित की जाती तो मेरी आंखों में आंसू आ जाते थे और आज देख रहा हूं कि इस आयोजन पर बाजारवाद का पूरा प्रभाव हो गया है।

पूजा के नाम पर जबरन चंदा उगाही और रंगदारी का धंधा शहर से लेकर गांव  तक बेखौफ चलने  लगा । कभी कबीर ने कहा था ‘ पाहन  पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूं पहाड, ताते ये  चक्की भली ,पीस खाए संसार । और हजारो साल पहले बुद्ध ने भी कहा था अप्पो दीपो भव । सब बेकार हो गया आज के इस बाजार बाद में । सरस्वती पूजा के नाम पर आज क्या कर रही है युवा पीढी, यह देख सुन कर शर्म भी शर्मसार हो रहा है। आदमी को अपराधी बना कर जानवर से भी बदतर बना देने वाले  पूंजीवाद ने सभी क्षेत्रों में बाजार वाद का शिकंजा कस दिया है। नतीजा भी सामने है । इतिहास गवाह है कि पुरुष प्रधान समाज ने मातृसत्तात्मक समाज को ध्वस्त करने के क्रम में नारी अस्मिता को रौंदने के  बदले उसकी प्रतीकात्मक पूजा का आविष्कार हजारो साल पहले ही कर लिया था ।तब से आज तक नारी की  अस्मिता और उसकी मान-मर्यादाओं को रौंदने का सिलसिला लगातार जारी है। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज हत्या,  बलात्कार आदि घटनाओं को इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए ।  बाजारवाद ने अब दुर्गा,काली, चंडी,भवानी आदि प्रतीकों को अपने उत्पादों की बिक्री के लिए प्रचार का माध्यम भी बना दिया है। वास्तव में ग्यान या विद्या तो सीखने से आती है न कि किसी देवी या देवता की पूजा से । अगर पूजा करने से ही ग्यान विग्यान ,साहित्य ,दर्शन की शिक्षा मिल पाती त़ो 33 कोटि देवताओं को पूजने वाले इस देश मे शिक्षा की यह दशा नहीं होती । आस्था और अंधविश्वास पर आधारित यह पूजा -अनुष्ठान मुनाफा बटोरने का आधार बन गया है। इससे शिक्षा हासिल करने और समाज को विकास के मार्ग पर आगे बढाने मदद नहीं मिल सकती ।


brahmanandब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले । पेशे से शिक्षक फिलहाल मई 2012 में सेवानिवृत्व हो चुके हैं, लेकिन पढ़ने-लिखने की ललक आज भी जागृत है । गांव में बदलाव पर गहरी पैठ रखते हैं और युवा पीढ़ी को गांव की विरासत से अवगत कराते रहते हैं