ज़मीन से उठकर आसमान तक का सफ़र तय करने के कठिनतम संघर्ष की सच्ची कहानी पर आधारित फ़िल्म ‘12th Fail’ आख़िर कल रात देख ही ली। रिलीज़ होने के ठीक एक महीने बाद। दुर्दैव से जालोर में लगी नहीं, विधान सभा चुनावों के प्रबंधन में अति व्यस्त होने से जोधपुर जा न सका। आख़िरकार चुनाव संपन्न हुए और उसी दिन सिनेमा संचालक ने भी फ़िल्म की लोकप्रियता को देखते हुए जालोर में लगा ही दी।
कहानी का मूल है- चंबल का एक बेहद पिछड़ा गाँव, जहां दसवीं-बारहवीं में नक़ल करके पास होना उस वक़्त एक norm हुआ करता था, और हमारे मनोज शर्मा सर उस साल इसलिए फेल हो गये क्योंकि एक सख़्त और ईमानदार डिप्टी एसपी ने दबाव और प्रभाव से मुक्त होकर उस स्कूल में नक़ल नहीं होने दी। उस दिन फ़िल्म के नायक मनोज के दिलो दिमाग़ पर जो प्रतिबद्धता का नशा चढ़ा, वो बदस्तूर आज भी क़ायम है।
पिता की ग़ैर-व्यावहारिक ज़िदें, गाँव में छोटे-मोटे काम करके ही संतुष्ट हो जाना और अपनी क़ाबिलियत को दफ़न कर देना, प्रतिस्पर्धा के दौर में बेइंतिहा ऊहापोह और अनिश्चितता, दोस्त का शुरुआत में मुश्किल वक़्त में मदद करना, पर बाद में कुछ सफलता मिल जाने पर ईर्ष्या से चिढ़ जाना, किसी के प्रेम में ज़मीन-आसमान एक कर देने का जज़्बा, एक असंभव से लक्ष्य को पाने के लिए ख़ुद के सुख, आराम और सुकून की तिलांजलि देने का माद्दा।
ये तमाम चीज़ें कहीं बाहर से थोपी हुई नहीं, बल्कि हम जैसे ऐसे लाखों-करोड़ों ‘हिन्दी मीडियम टाइप’ लड़कों की दास्तान है, जो गाँवों-छोटे शहरों की ख़ाली बोर दुपहरों से, झोला उठाकर कुछ बड़ा कर दिखाने की चाह लिए, बड़े शहर का रुख़ करते हैं।
फ़िल्म सिखाती है कि ज़िंदगी में कुछ भी बड़े से बड़ी घटना हो जाये, बस ‘रीस्टार्ट’ करो। हर किसी को अपने आस-पास कोई ‘बड़ा भाई’ टाइप शख़्स मिलता है, बस सही पहचान की ज़रूरत है।
मेरे लिये यह फ़िल्म हद से ज़्यादा रिलेटेबल है। इतनी ज़्यादा कि अधिकांश क्षणों में मनोज सर की जगह ख़ुद को महसूस करता रहा और अपनी आँखें नम पाता रहा। विकास दिव्यकीर्ति सर के प्रिय विद्यार्थियों की सूची में शुमार होने से यह जुड़ाव और भी ज़्यादा महसूस होता गया। मुझे भी एक बार मेरे लिखे हिन्दी साहित्य के एक उत्तर के लिये इसी तरह सैंकड़ों विद्यार्थियों के बीच खड़ा करके खुलकर प्रशंसा की गई थी। उस दिन ये एहसास और विश्वास हुआ था कि मुझमें कुछ तो ख़ास है।
सर अक्सर कक्षा में कहा करते थे कि भारत में कोई ऐसा तरीक़ा, जहां आप अपनी मेहनत से मेरिट के बल पर अपना ‘क्लास’ बदल सकते हैं, तो वह है UPSC की परीक्षा। यही कारण है कि सफलता की बेहद कम संभावना के बावजूद इस परीक्षा का सदाबहार जलवा अभी भी क़ायम है।
विक्रांत मैसी ने मनोज सर के व्यक्तित्व की सादगी और सरलता को क्या खूब जिया है। लगता है कि वह ही इस कैरेक्टर के निर्वहन के लिए सर्वश्रेष्ठ हो सकते थे। श्रद्धा मैम के पात्र ने भी कमाल किया है। रीस्टार्ट टी स्टॉल वाले भैया का किरदार अंशुमान पुष्कर ने क्या खूब निभाया है। विकास दिव्यकीर्ति सर ने अपने ही किरदार को स्वयं निभाया है, जो सिनेमा इतिहास की एक बेहद दिलचस्प घटना है।
बहरहाल, अच्छी बात ये है हाल के दिनों में बॉलीवुड और OTT ने UPSC और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों के जीवन के संघर्षों पर नज़र डाली है, वरना दशकों तक यह सेक्टर किसी निर्माता-निर्देशक की नज़र से नदारद ही रहा।
पुनः पूरी टीम और कास्ट को बधाई और उन युवाओं को भी, जो इस संघर्ष और अदम्य जिजीविषा को ख़ुद से रिलेट कर पाये। हर संघर्ष के साथी को सलाम!