जब मैं थी तब साधन नहीं, अब साधन है मैं नाहिं…

जब मैं थी तब साधन नहीं, अब साधन है मैं नाहिं…

ब्रह्मानन्द ठाकुर

रविवार का दिन था।गांव के स्कूल के सामने वाली सड़क पर बरसात का पानी जमा था।लिहाजा सड़क के बदले स्कूल कैम्पस होते हुए कोने -कानी अपने गंतव्य तक जाना पड़ा।लौटा तो झोल अन्हारी हो गया था‌। देखा ,स्कूल कैम्पस में विशाल बरगद के नीचे फटा चीथड़ा पहने एक बुजुर्ग महिला बेचैन-सी होकर कुछ तलाश रही है। उत्कंठा बस मैं उसके पास चला गया। देखा,वह बरगद के नीचे उगे जंगल में कुछ तलाश रही है। चूंकि उसकी पीठ मेरी तरफ थी इसलिए वह मुझे नहीं देख सकी। मैने थोड़ा निकट जा कर पूछा ,आपको कभी मैंने देखा नहीं।आप इस अंधेरे में यहां क्या तलाश रही हैं , और इस जंगल में?पहले तो उसने मेरे सवाल पर कोई ध्यान ही नहीं दिया और अपने काम में लगी रहीं। मेरे बहुत कुरेदने पर उसने अपना नाम शिक्षा बताते हुए कहा कि मै लगभग 80-82 साल पहले यहां आई थी। तब यहां आज जैसा कुछ भी नहीं था।खपरैल छत वाले भित्ती के दो कमरे में मुझे जगह मिली।मैंने यहां आश्रय लिया।गांव के सभी लोग मेरा खूब सम्मान करते थे।मेरे सुख दुख का हरदम ख्याल रखा जाता था। दस बजते ही गांव के बच्चे डोरी वाला हाफ पैंट और पुरानी कमीज पहने ,वस्ता पीठ पर और झोला कांख की बगल में दबाए ,उछलते -कूदते यहां पहुंच जाते थे। खजूर के झाड़ू से कमरा बुहारते,फिर अपना बोरा बिछा ,उसपर किताब वाला वस्ता रख बाहर प्रार्थना के लिए लाईन में खड़े हो जाते।कहा ,क्या सुंदर प्रार्थना थी,’अगम ,अखिलेश से स्वामी सदा तू याद आता है ।पता हर एक अणु भगवन मुझे तेरा बताता है।’
फिर सूत्र यज्ञ होता।बच्चे तकली पर सूत कातते। यह थी बापू की बुनियादी शिक्षा की परिकल्पना जिसे साकार किया जाने लगा था।बच्चे कुछ करते हुए सीख रहे थे और मैं उल्लसित होकर सारी गतिविधियां देख रही थी। फिर बच्चे कक्षा में जाकर पढ़ाई में जुट जाते।शिज्ञक उन्हें अपने बच्चों जैसा प्यार -दुलार करते। फिर गांव वालों में उत्साह पैदा हुआ।धनी -गरीब सबों ने विद्यालय निर्माण में भरपुर सहयोग किया।जमीन भी दान में मिली।दूर दूर से यहां शिक्षक आए।शिक्षक भी कैसा ,सादा जीवन और उच्च विचार वाले। विद्यालय में पठन -पाठन के साथ सूत कताई ,कपडा बुनाई का काम चलने लगा।खेती का भी काम बच्चे यथाशक्ति करने लगे। हर शनिवार को वृहत सफाई और सांस्कृतिक कार्यक्रम होता। टिफिन के वक्त बच्चे इसी बरगद के बडहोर को पकड़ कर झूला झूलते ,कुछ कबड्डी खेलते।यह सब देख मैं खूब प्रसन्न होती रही।हां ,एक दो कक्षा में डेस्क -बएंच का जुगार हो गया था।बांकी बच्चे घर से लाए बोले पर ही बैठते। बच्चों के दू का दू,दू दुनी चार,दू तिया छ: के समवेत स्वर से वातावरण गुंजायमान हो जाता था।बच्चे जब’ ‘तू रजनी के चांद बनोगे या दिन के मार्तण्ड प्रखर /एक बात है मुझे पूछनी फूल बनोगे या पत्थर/तेल फुलेल ,क्रीम कंघी से नकली रूप सजाओगे/या असली सौन्दर्य लहू का आनन पर चमकाओगे?यह कविता पढ़ते तो उसे सुन मेरा दिल बाग बाग हो उठता था। उसने कहना जारी रखा ,अभाव के उन दिनों भी शिक्षा का स्तर बहुत ऊंचा था।नैतिकता थी।एक दूसरे की मदद का भाव था ।लोग इतना खुदगर्ज नहीं बने थे। आखिर शिक्षा का उद्देश्य भी तो यही है न ? उन्होंने सवालिया लहजे में पूछा। वह यहीं नहीं रुकी।उसने आगे कहा,जब साधन नहीं था तब मैं एक मिशन थी।आज साधन ने हमें प्रोफेसन बना दिया है।मिशन में समर्पण था ,त्याग था, समाज के लिए कुछ करने का जज्बा था।आज प्रोफेसन में वह सब काफी पीछे छूट गया हैं।मैं यहां ,इस बरगद के नीचे अपना वहीं स्वर्णिम अतीत तलाश रहीं हूं।
मुझे इनकी बातों में दम दिखाई दिया। मैं खुद को अपने अतीत में ले जाकर सोचने लगा , बेचारी ठीक ही तो कज्ञह रही है। जब मैं स्कूल जाने लगा तब आज जैसी न सुविधा थ न साधन। स्कूल प्रायः झोपडिय़ों में चलते थे या कच्चे मकान में। बैठने के लिए कोई साधन नहीं‌।आजादी मिले10-12साल ही हुए थे‌।लोगों में शिक्षा को लेकर बड़ा उत्साह था।ग्रामीण आपस में चंदा मांग कर स्कूल के ल ए घर बना रहे थे। सरकार ने सिर्फ शिक्षक की व्यवस्था की हुई थी। आज की तरह शिक्षा विभाग में अधिकारियों की फौज नहीं थी।साल में एक -दो निरीक्षण हो जाए ,यही काफी था। शिक्षक भी अपने कर्तव्य के प्रति सजग और जागरुक थे।अभिभावक, शिक्षक और छात्रों के बीच काफी मधुर सम्बन्ध था।तब समाज में शिक्षा के प्रति बड़ा लगाव था। शिक्षा भी काफी गुणवत्ता पूर्ण। आज विद्यालयों का छतदार पक्का मकान ,बिजली , पंखा,,शौचालय , कमप्युटर , सारे साधन उपलब्ध हैं। निरीक्षण के लिए अधिकारियों की फौज भी है लेकिन सच में शिक्षा ही गायब है। आखिर क्यों? इस क्यों का जवाब खोजना जरूरी है।