जिंदगी की ‘बांग’ मुर्गों की मोहताज नहीं

जिंदगी की ‘बांग’ मुर्गों की मोहताज नहीं

फोटो-साभार अरुण कुमार

दयाशंकर मिश्र

हम सब इसी गलतफहमी में उम्र गुजार देते हैं कि मेरे बिना तुम्हारे सुख का सूरज कैसे उगेगा! चाहे पति-पत्नी हों, माता-पिता और पुत्र/पुत्री के रिश्ते हों. सब जगह अपने होने का भाव हमने इतना आगे कर लिया है कि रिश्ते पीछे छूटने लगे. #जीवनसंवाद मेरे बिना!

जीवन संवाद- 963

खुद को आगे रखने की चाह ने संसार को जितना कष्ट पहुंचाया है, उतना दूसरी किसी चीज ने पहुंचाया होगा, यह कहना बड़ा मुश्किल है. एक छोटी-सी कहानी से अपनी बात कहता हूं. एक गांव में एक बुजुर्ग महिला रहती थीं. उनके पास एक मुर्गा था. एक दिन वह गांव से नाराज होकर अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गईं. हुआ यह था कि गांववालों से उनसे कह दिया था कि सबेरा तभी होता है जब मेरा मुर्गा बांग देता है. गांववालों के लिए इसे बर्दाश्त करना बड़ा मुश्किल हो गया. कुछ लोग हंस पड़े. किसी ने उनकी बात न मानी. महिला ने चुनौती देते हुए कहा, ‘मैं गांव छोड़कर जा रही हूं. मेरे जाते ही तुम सब बहुत पछताओगे. वह गांव छोड़कर चली गईं. जिस गांव में पहुंचीं वहां मुर्गे ने बांग दी. सूरज निकला. सूरज निकलते देख महिला ने कहा, ‘अब मैं चली आई हूं तो रोते होंगे मेरे पीछे. देखो, सूरज यहां निकला है. परमात्मा उनको क्षमा मत करना उन्होंने जानबूझकर मुझे दुखी किया.’

हमारी प्रार्थना भी कैसी है, उसमें भी दूसरे की शिकायत है. उसके बाद हम कहते हैं कि हमारी बात सुनी नहीं जाती. हम मांगते ही ऐसी चीज हैं, जिसका पूरा होना संभव नहीं. मजेदार बात यह हुई कि जिस गांव को वह छोड़ आईं थीं, सूरज वहां भी निकला था. हम सब इसी गलतफहमी में उम्र गुजार देते हैं कि मेरे बिना तुम्हारे सुख का सूरज कैसे उगेगा! चाहे पति-पत्नी हों, माता-पिता और पुत्र/पुत्री के रिश्ते हों. सब जगह अपने होने का भाव हमने इतना आगे कर लिया है कि रिश्ते पीछे छूटने लगे.इस कहानी पर हम हंस सकते हैं. हम अक्सर ही दूसरे के आचरण पर ऐसा ही करते हैं. जीवन में अपने को पीछे रखकर देखने का अभ्यास. हमें न केवल अनेक संकटोंं से बचा सकता है, बल्कि जीवन को नई दिशा भी दे सकता है. ई-मेल [email protected]