ग्रामशाला पार्ट 3 & 4
अध्ययन बताते हैं कि शिक्षा के अभाव में लोग कम आमदनी वाले मजदूरी जैसे कामों में लग जाते हैं और गरीबी के कुचक्र में फंसे रहते हैं। इसी तरह, निर्धन लोग अपने स्वास्थ्य की देखभाल नहीं कर पाते हैं और बीमारी की स्थिति में ठीक से काम भी नहीं कर पाते हैं। लिहाजा, विकास की कई रपटों में मुख्य तौर पर निरक्षरता और रोग मुक्त उपायों की पहचान करने पर जोर दिया गया है जिससे निर्धन व्यक्ति तरह-तरह के अभावों से संघर्ष कर सके। दूसरी तरफ, एक पक्ष यह मानता है कि जब तक सामाजिक और आर्थिक शोषण होता रहेगा तब तक आमदनी या उपभोग मात्र के प्रावधानों से निर्धनों की दशा पर व्यापक प्रभाव नहीं पड़ेगा और इसलिए सरकार को निर्धनता की बहु-आयामी प्रकृति को पहचानना चाहिए और मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए धनराशि बढ़ाना चाहिए।
इसी से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गरीबी-रेखा के ऊपर कई पारिवारिक समूह हैं जो भविष्य में निर्धनता के शिकंजे में आ सकते हैं। विद्वानों ने इसे संवेदनशीलता की श्रेणी में रखा है। इस श्रेणी में ऐसे परिवार आते हैं जिनकी आमदनी सीमित हैं और जो रोजी-रोटी कमाने वाले मुखिया के बीमार पड़ने या उसकी मौत होने, सूखा, बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक या मानवीय आपदा आने, कृषि या श्रमिक मंदी की मार झेलने के बाद आर्थिक आदि स्तरों पर जूझ सकते हैं। इन्हीं स्थितियों से निपटने के लिए सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं के तहत और अधिक सुरक्षा देने की मांग की जा रही है। भारत के कुछ विशेष समुदायों में निर्धनता का प्रभाव अधिक है। योजना आयोग के कुछ वर्ष पुराने आकड़े देखें तो पता चला कि ग्रामीण क्षेत्रों में 42 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जनजातियां और 35 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जातियां निर्धन हैं। इनके शैक्षणिक और दक्षता के स्तर भी सीमित है। लिहाजा, अन्य जातियों की तुलना में इनमें निर्धनता का प्रभाव अधिक होता है।जब भारतीय विकास की कहानी में अलग-अलग चरण पढ़ते हैं तो पता चलता है कि देश में पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं की अवधि में बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश हुआ और यह कल्पना की गई थी कि आर्थिक वृद्धि का इंजन होगा तो विकास आगे की ओर ही जाएगा। लेकिन, सत्तर के दशक के प्रांरभ में यह अनुभव किया गया कि लोगों के जीवन-स्तर की स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन नहीं हुआ और तब से वितरण के लिए न्याय को महत्त्व दिया गया। किंतु, भूमि और पूंजी कुछ व्यक्तियों के हाथों केंद्रित होने से इस दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा रहा है।
विकास की चर्चा के दौरान एक विचार स्थानीय स्तर पर गांव को आर्थिक विकास का केंद्र मानता है। इसी संदर्भ में अस्सी के दशक के अंत में स्थानीय संस्थाओं को अधिकार संपन्न बनाने के लिए संविधान संशोधन किए गए। ग्राम-स्तर पर यह आशा की गई कि विकास के विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया उन लोगों को उत्तरदायी बनाएगी जो निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल होंगे। सामान्यत: यह माना गया कि विकास एक लंबी अवधि तक चलने वाली प्रक्रिया है और इसलिए प्रशासन को जनता के और अधिक निकट लाया जाए। दूसरी ओर, विकास के दृष्टिकोण में एक धारा यह मानती रही है कि गांव की व्यवस्था में यदि जाति और वर्ग की भूमिका पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह अपने स्वार्थ के लिए संपूर्ण विकास को रोकता रहेगा। ऐसी स्थिति में यदि निर्धन का शोषण होता रहा तो समाज में निर्धनता बढ़ती जाएगी।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे shirish2410@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
