‘बाजारवाद’ के मायाजाल में दम तोड़ती ‘आस्था’

‘बाजारवाद’ के मायाजाल में दम तोड़ती ‘आस्था’

ब्रह्मानंद ठाकुर

दुर्गा पूजा यानी शक्ति की आराधना और उपसना का पर्व । 9 दिन तक हर तरफ भक्ति का सैलाब उमड़ता-घुमड़ता है । बचपन से ही दुर्गा पूजा के प्रति लोगों की आस्था देखता रहा हूं । ये अलग बात है कि 4 दशक पहले और आज के दुर्गा पूजा मनाने के तौर-तरीकों में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है । पौराणिक महत्व वाला आस्था और विश्वास का यह पर्व कब आडंबर की भेंट चढ़ गया पता नहीं चला । आज आस्था भी बाजारवाद के हवाले हो चली है । बाजार जहां गलाकाट प्रतिस्पर्धा की होड मची है और इस प्रतिस्पर्धा में गलत-सही,  उचित -अनुचित का ध्यान ही न रह गया। हमारा धार्मिक आयोजन और अनुष्ठान भी इसी बाजार की कैद में घुटने को मजबूर है ।एक तरफ दुर्गापूजा का उमंग, उत्साह, मंत्रोच्चार है तो दूसरी तरफ महंगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा, अत्याचार, अपराध, भ्रष्टाचार, हत्या, बलात्कार और कन्या भ्रूण जैसी कुरीतियां मुंह बाये खड़ी है, जिसपर एक तरह से सामाजिक स्वीकृति की मुहर सी लग गई है ।

मातृशक्ति को सम्मान देने की बात करने वाले हमारे समाज में नारी शक्ति का अपमान और उसकी प्रताड़ना को भी इसी नजरिए से देखने की जरूरत है। ‘ यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता ‘ का जाप करने वाले इस समाज में इस वाक्य की निर्रथकता पग पग पर महसूस की जाती रही है। वैसे भी आज के इस वैज्ञानिक युग में पूजा-पाठ के जरिए किसी भी सामाजिक समस्या के समाधान की बात सोंचना अतार्किक और अवैज्ञानिक है। धर्म कभी मानव मात्र के कल्याण से जुड़ा हुआ था और  आज भी है, लेकिन क्या हम आज वैसा कुछ कर रहे है ? दुर्गापूजा के इस अवसर पर हमें इस सवाल का जबाव अपने अन्तर्मन में खोजना होगा। ‘पर पीडा षम नहिं अधमाई,  इस वाक्य को आखिर हम क्यों भूल गये।

 दुर्गापूजा को इन्हीं संदर्भों में आज समझने की जरूरत है। आज हम आस्था के नाम पर जितने भी देवी-देवता की पूजा कर रहे हैं, वे सभी अपने समय के विशिषट स्त्री-पुरुष थे। इन्होंने समाज के लिए बड़ी कुर्बानियां दीं। आज उनसे सीखने की एकमात्र चीज व्यापक जनहित में उनकी यही कुर्बानी है जो वर्तमान विषमता मूलक और पतनशील समाज के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। अन्यथा उन देवी-देवताओं की पूजा करने और उनके नाम का कीर्तन करने से वैसा कुछ नहीं होने वाला जिसकी आज देश को जरूरत है। शोषण, अन्याय, अत्याचार,  नारी उत्पीडन, अशिक्षा,  भ्रष्टाचार, लगातार कम होने के वजाय बढता ही जा रहा है और हम इन जनसमस्याओं से मुह मोड लिए हैं।

पहले खाद,  दबा,  बीज, बेंचने, नियंत्रित मूल्य की दुकानों या अन्य व्यवसाय के लिए ही सरकार से लाइसेंस लेने का प्रावधान था, अब पूजा के लिए भी लाइसेंस लेना जरूरी कर दिया गया है। इसकी वजह चाहे जो हो, हम यहां उसकी गहराई में जाना नहीं चाहते। आज अक्सर पूजा को कुछ ऐसी ही लाइसेंसी-गैर लाइसेंसी समितियां अंजाम दे रही हैं। पूजा से महीना-दो महीना पहले से ही ये लाइसेंसी, गैर लाइसेंसी समितियां जबरन चंदा उगाही में लग जाती हैं। चंदा वसूलने का उनका जो तरीका होता है उसे किसी मायने में उचित नहीं कहा जा सकता । गली-मुहल्ले या फिर चौराहे पर लाठी-डंडे लेकर कुछ लोग तैनात हो जाते हैं, ऐसा लगता है जैसे समाज की रक्षा के लिए तैनात हों, अगर आपने पैसे नहीं दिये तो मरने-मारने और जलील करने पर उतारू हो जाते हैं ।

वैसे किसी भी समिति के गठन का उद्देश्य सामाजिक होता है,  लेकिन इस पूजा समितयों का उद्देश्य सामाजिक से ज्यादा व्यवसायिक हो गया है।  आज बाजारीकरण ने व्यक्तिगत पूजा को व्यवसाय बना दिया है, जिसमें भ्रष्टाचार और अपराध में आकंठ डूबे सत्ताधारी शोषक वर्ग का अपना हित निहित है। अब तो हालात ऐसे होने लगे हैं कि पूजा के बाजारीकरण का सिलसिला अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में देशी-विदेशी कम्पनियां भी इस क्षेत्र में पूंजी निवेश करने लग जाएंगी। सामान्य व्यवसाय हो या शिक्षा और स्वास्थ्य का व्यवसाय या पूजा का व्यवसाय इसमें पूंजी का जो निवेश होगा उससे आम जनता की समस्याओं का समाधान तो कतई नहीं होने वाला है बल्कि इससे अपराध और भ्रष्टाचार को ही अधिक बल मिलेगा। आज शिक्षा और स्वास्थ्य को बाजार के हवाले कर देने से जो स्थिति पैदा हुई है, उससे आम लोग भलीभांति अवगत हैं। पूजा के बाजारीकरण से भी यही स्थिति होने वाली है। जाहिर है कि शोषक वर्ग जबतक स्वास्थ्य,  शिक्षा, चिकित्सा और जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में लूट-खसोट का राज चलाते रहेंगे तबतक बुनियादी जनसमस्याओं के निराकरण के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा सकते । आज जरूरत इस बात की है कि व्यापक जन आस्था से जुडे ऐसे धार्मिक आयोजनों को बाजारीकरण और आडम्बर से मुक्त कराने की दिशा मे ठोस पहल की जाए।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।