3 घंटे और 2 इंटरवल वाले नाटकों का दौर

3 घंटे और 2 इंटरवल वाले नाटकों का दौर

अनिल तिवारी

मेरे कुछ मित्रों ने एपीसोड 8 के बाद पूछा कि बीआईसी  किस तरह के नाटक किया करती थी? तो मैं सभी मित्रों को बता देना चाहता हूँ कि बीआईसी, कोई नाट्य संस्था नहीं थी। यह बिड़ला ग्रुप के सभी मजदूरों और अधिकारियों के मनोरंजन के लिये स्थापित एक बड़ा क्लब था। इस क्लब में नाटक, गीत, नृत्य इत्यादी के साथ ही साथ विभिन्न प्रकार के खेलों का भी आयोजन किया जाता था जो कई बार राष्ट्रीय स्तर तक का होता था। उस समय बीआईसी ने कई राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी भी देश को दिये थे।

मेरे रंग अनुभव के 50 वर्ष –9

बीआईसी ने उस समय राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समारोह भी कई बार आयोजित किये थे। जिसमें ओमशिवपुरी जी (दिल्ली), डा प्रतिभा अग्रवाल (अनामिका,कलकत्ता) के साथ ही साथ देश की उस समय की नामी-गिरामी हस्तियों और संस्थाओं ने अपनी भागीदारी दर्ज की थी। यह सारे सांस्कृतिक आयोजन जेसी मिल्स स्कूल के टैगोर भवन में आयोजित किये जाते थे। ये स्टेडियम जैसा बना एक काफी बड़ा हॉल था और अभी भी है। इसमें करीब ढाई हजार तक दर्शक बैठ सकते हैं। चारों ओर सीढ़ीनुमा दर्शकों के बैठने के लिये व्यवस्था थी, जो तीन तरफ से घिरी होती थी और बीच का स्थल खाली रहता था जहाँ वीआईपीज के बैठने के लिये सोफों का प्रबन्ध किया जाता था। इसका निर्माण कुछ कुछ यूनानी थियेटर के आकार का है, बस अन्तर इतना है कि यूनानी थियेटर ओपन हुआ करते थे और यह एक बड़ा हॉल है।

खैर, बीआईसी में ज्यादातर पूर्ण अंकीय नाटकों का ही मंचन किया जाता था, जिनकी अवधि दो से तीन घण्टा हुआ करती थी। जो नाटक दो घण्टे का होता था उसमें एक इनटरवल होता था और जिस नाटक की अवधि तीन घण्टा होती थी उसमें दो इन्टरवल होते थे।और प्रत्येक इन्टरवल के बाद दर्शकों की संख्या उतनी ही रहती थी जितनी नाटक के प्रारम्भ में। इन्टरवल के लिये आयोजकों द्वारा टी स्टाल लगाये जाते थे जहाँ चाय आदि के साथ ही खाने की वस्तुओं का प्रबन्ध होता था। बीआईसी के नाटकों के इन्टरवल में सभी वस्तुओं के दाम में 50%छूट दी जाती थी। इसलिये यहाँ दर्शकों की संख्या अधिक होती थी। दूसरे यहाँ आम दर्शकों से भी पैसे नहीं लिये जाते थे, मतलब नाटक का टिकिट भी नहीं लगता था।

बिड़ला नगर होने के कारण यहां बिड़ला ग्रुप की ही कॉलोनी थी और यह ग्वालियर में ही एक अलग अस्तित्व लिये शहर हुआ करता था। यहाँ का कल्चर राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश की मिली-जुली संस्कृति का मिक्सचर हुआ करता थीा। इन फैक्टरियों में काम करने वाले पश्चिम उत्तर प्रदेश और राजस्थान से ही हुआ करते थे। सारे तीज त्योहार भी उसी हिसाब से मनाये जाते थे जो सामूहिक और बड़े पैमाने पर आयोजित किये जाते थे।

एक तरफ प्रेम और स्नेह का वातावरण था तो दूसरी तरफ स्ट्राईक, जुलूस और मारपीट-दंगे। हत्या और लूटपाट आम बात थी। मील के अधिकारियों की राजनीति या फिर सियासी पार्टियों द्वारा मजदूरों को भड़काने से तनाव बना रहता था। इसी मिली-जुली संस्कृति में मैं धीरे धीरे पल और बढ़ रहा था।


अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।