पुष्यमित्र
पटना के एक संस्थान में सरिता(परिवर्तित नाम) बैठी हैं. उसकी आंखें डबडबायी हुई हैं. वह उस खबर का सामना करने के लिए खुद को तैयार नहीं पा रही है, जो थोड़ी देर पहले उसने सुनी है. उसकी एक परिचित युवती की मौत हो गयी है. कुछ ही महीने पहले वह बेंगलुरू से जान बचा कर भाग कर आयी थी. वहां वह सरोगेसी माफिया के चक्कर में पड़ गयी थी. उन लोगों ने उस नाबालिग लड़की को जबरन दो बच्चों को जन्म देने के लिये विवश किया, जब तीसरे बच्चे का गर्भधारण करने के लिए उसे अस्पताल ले जाया गया तो वह वहां से भाग निकली और अपने गांव आ गयी. यह खबर सुनकर सरिता काफी खुश थी, फिर एक लड़की इस चंगुल से बच निकली. मगर संभवतः उसकी यह आजादी स्थानीय एजेंटों को रास नहीं आयी.
सरिता की बातें सुनकर दिमाग को झटका लगता है. सरोगेसी के जरिये बच्चे पैदा करने के लिए गरीब महिलाओं को हायर किया जाता है, ऐसी खबरें तो खूब सुन चुका हूं. यह भी जानकारी है कि यह सब अब तक लीगल तरीके से होता रहा है. कम खर्च में सरोगेसी को अंजाम देने की वजह से भारत सरोगेसी का हब बन चुका है, यह भी सर्वज्ञात तथ्य है. मगर किशोरियों को ट्रैफिक करके सरोगेसी के लिए ले जाया जाता है, यह एक हैरतअंगेज तथ्य है. एक तो यह लड़कियां नबालिग होती हैं, दूसरी बात इनकी मरजी के खिलाफ इनसे यह सब कराया जाता है.
छह माह फैमिली सरवेंट बन कर रही
अचानक सरिता बताने लगती हैं कि वह खुद भी इस झमेले का शिकार हो चुकी हैं. कहते-कहते वह आंसुओं में डूब जाती हैं. उसकी कहानी हाल की नहीं है. यह तकरीबन दस-ग्यारह साल पहले की बात है. उन दिनों वह 15-16 साल की किशोरी हुआ करती थी. पास वाले गांव के ही एक कंपाउंडर के झांसे में आ गयी और वह उसे और आसपास की तीन-चार लड़कियों को लेकर दिल्ली चला गया. पहले तो सरिता को एक परिवार में फैमिली सरवेंट की तरह रखा गया. मगर छह माह के भीतर ही उसे वहां से हटा लिया गया और एक बिल्डिंग में गुप्त तरीके से रख दिया गया.
उसे पता नहीं चला उसके साथ कब और कैसे क्या हुआ
सरिता कहती हैं, उसे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि उसके साथ क्या हो रहा है. पहले उसके कुछ मेडिकल टेस्ट हुए, कुछ पेपर्स साइन कराये गये और फिर एक दिन अस्पताल ले जाया गया. वहां क्या हुआ उसे याद नहीं. वह बताती है कि उस रोज के बाद से उसे अच्छा-अच्छा खाने दिया जाने लगा. जैसे कपड़े चाहती थी वह खरीद कर दिया जाता. मगर उसे कहीं बाहर नहीं जाने दिया जाता. वह हैरान थी कि वह तो यहां नौकरी करने आयी थी, यहां बिना नौकरी के ही उसकी आवभगत हो रही है. मगर तीन महीने बीतते-बीतते उसे समझ आने लगा कि सबकुछ सामान्य नहीं है. उसे हल्का-हल्का बुखार रहने लगा था, शरीर पर अपना बस मालूम नहीं होता था.
परदे वाली गाड़ी में ले जाते थे अस्पताल
एक रोज बाथरूम में किसी दूसरी लड़की ने उसे बताया कि उसके साथ क्या हो रहा है. उसी लड़की ने उसे बताया कि यहां से भाग जाओ. और भागने के लिए जरूरी है कि सबसे पहले इन लोगों का भरोसा जीतो. इस भयावह खबर को सुनकर वह झटका खा गयी, मगर धीरे-धीरे उसने खुद को किसी तरह संभाला और साथ वाली लड़की से मिले टिप्स के हिसाब से काम करना शुरू किया. वह वहां की केयर टेकर महिलाओं से कहने लगी कि घर में बैठे-बैठे मन उबता है वह बाहर घूमना चाहती है. फिर लोग उसे घुमाने भी ले जाने लगे. इस बीच अस्पताल जाना-आना भी लगा रहता था. वह कहती है कि इतनी प्राइवेसी होती थी कि अस्पताल वाली गाड़ी में भी परदे लगे रहते थे.
घर आकर भी नहीं मिला चैन, धमकाते थे एजेंट
एक दिन गेट की चाभी उसके हाथ लग गयी और वह उस कैद से फरार हो गयी. ट्रेन पकड़ कर गुमला अपने घर आ गयी. हालांकि यहां आकर भी वह परेशान थी. वह इस अनचाहे गर्भ से मुक्ति पाना चाहती थी, मगर घर में किसी को बताना भी नहीं चाहती थी. कुछ लोगों की मदद से उसे इसमें सफलता मिली. मगर उसके बाद वह महसूस करने लगी कि उसका जीवन नर्क हो गया है, अब उसे मुक्ति चाहिये. वह बार-बार खुदकुशी की कोशिश करने लगी. सरिता बताती है कि इस बीच उसे दिल्ली ले जाने वाले एजेंट उसके पिता को धमकाने लगे थे. वे उसे बंदूक दिखाकर कहते थे कि तेरी बेटी काम छोड़ कर बीच में भाग आयी है, इसका हर्जाना दो. उसके पिता डर से कहीं शिकायत भी नहीं कर पाते. उन एजेंटों को पार्टी वालों(माओवादी) का भी सपोर्ट था. वह अपने पैसे से उन लोगों को लेवी देता था, इसलिए कोई उसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं करता.
कई दफा की खुदकुशी की कोशिश
गुमला में उसके लिए रहना दूभर हो गया. वह कई दफा खुदकुशी करने की कोशिश कर चुकी थी. कभी कुएं में कूद जाती तो कभी केरोसीन डाल कर खुद को जलाने की कोशिश करती. इसी बीच पटना में एक संस्था की मदद से उसे सहारा मिला और वह यहां आ गयी. सरिता कहती है कि उसके इलाके में किसी को नहीं मालूम कि वह पटना में है. लोग समझते हैं कि वह कहीं और काम करने चली गयी है. सरिता यहां एक छोटी सी नौकरी करके दिन काट रही है.
सरिता के पहचान की दो और लड़कियों की हो चुकी है मौत
सरिता बताती है कि यह सब कारोबार पिछले कम से कम 14-15 साल से चल रहा है. वह जब दिल्ली में थी तो उसे वहां कई और लड़कियां मिली थीं, जो इस साजिश का शिकार हुई थीं. ज्यादातर लड़कियां गुमला औऱ सिमडेगा जिले की होती हैं. उसने बानो की दो अन्य लड़कियों क्रमश मोनिका और मुक्ति का नाम बताया जो सरोगेसी का शिकार हुईं और बाद में उसकी हत्या कर दी गयीं. डर से इस मामले की शिकायत भी नहीं की गयी. वह कहती है कि एजेंट कई बार गिऱफ्तार होते हैं, मगर आसानी से छूट जाते हैं, इसलिए लोग शिकायत नहीं करते. इसके अलावा पार्टी वालों(माओवादियों) का खतरा रहता है. अगर कोई पुलिस में जाये तो ये लोग उसका जीना हराम कर देते हैं.
जीवन बेकार हो जाता है शिकार लड़कियों का
पटना में गुप्त रूप से रह रही सरिता कई लड़कियों की चुपचाप मदद करती है. अगर कोई लड़की भागना चाहती है तो वह उसे पैसे देकर मदद करती है. वह हमेशा इस कोशिश में रहती है कि दूसरी लड़कियों का जीवन बरबाद न हो. बंगलौर वाली लड़की जिसकी मौत हो गयी के बारे में भी सरिता का मानना है कि उसे मार दिया गया होगा. एजेंट लोग बहुत ताकतवर हैं, कुछ भी कर सकते हैं. वह कहती है कि सरोगेसी का काम करने के एवज में लड़कियों को 50 हजार से एक लाख रुपये मिल जाते हैं, मगर जीवन बेकार हो जाता है. इसलिए कोई यह धंधा नहीं करना चाहता. मगर इन दिनों लड़कियों को बहला-फुसला कर बड़े पैमाने पर यह कारोबार चलाया जा रहा है.
कानूनी शिकंजे से बाहर- अब तक दो मामले ही हो पाये हैं दर्ज
यह बड़ी अजीब स्थिति है कि सरोगेसी के लिए नबालिग लड़कियों को अगवा करने का मामला इतना बड़ा हो चुका है, मगर इससे संबंधित अब तक दो ही केस दर्ज हुए हैं, वह भी गुमला के चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के पास. पहले मामले में एक 31 साल की युवती ने शिकायत की थी कि उसे महज 13 साल की उम्र में अगवा कर ले जाया गया था और जब तक वह लौट कर आयी वह वहां छह बच्चों को जन्म दे चुकी थी. उसी तरह पालकोट की एक लड़की जो 29 साल की उम्र में भाग कर आयी थी और चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के पास पहुंची, अब तक दस बच्चों को जन्म दे चुकी थी. इन दो मामलों के आधार पर कार्रवाई भी हुई और एजेंट गिरफ्तार भी हुए, मगर चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के एक पूर्व सदस्य कहते हैं कि बाद में ये लड़कियां खुद ही मुकर गयीं और जिससे मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सका.
हालांकि पिछले साल सरोगेसी से संबंधित दो और मामले चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के सामने आये मगर उनमें सरोगेसी का मामला दर्ज नहीं हो पाया. क्योंकि इन लड़कियों को सरोगेसी के इरादे से ले तो जाया गया था मगर ट्रैफिकर अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाये. इस मामले में बसिया लोंगा की मैना देवी उर्फ मालती पर मुकदमा दर्ज कराया गया है. दोनों युवतियां सगी बहनें हैं. इन्हें जब दिल्ली ले जाया गया था, तब वे नाबालिग थीं.
चाइल्ड वेलफेयर कमिटी के पूर्व सदस्य त्रिभुवन शर्मा बताते हैं कि इन मामलों में कार्रवाई इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि लड़कियां अपने बयान से मुकर जाती हैं. ऐसा देखा गया है कि पैसे देकर या डरा धमका कर उन्हें बयान बदलने पर मजबूर कर दिया जाता है. सरिता के बयान से भी जाहिर है कि माओवादियों के दबाव, एजेंटों के ताकतवर होने और पुलिस द्वारा सचमुच कार्रवाई न किये जाने की वजह से लड़कियां शिकायत करने में हिचकती हैं.
क्या कहता है सरोगेसी का नया कानून
1. किसी महिला को एक ही बार सरोगेसी की इजाजत होगी. अविवाहित महिला को यह इजाजत भी नहीं होगी. सरोगेसी के लिए पुरुष की उम्र पुरुष 26 से 55 के बीच हो और महिला 23 से 50 साल के बीच की हो. शादी के पांच साल बाद ही इसकी इजाजत होगी और यह काम रजिस्टर्ड क्लीनिकों में ही होगा.
2. अविवाहित पुरुष या महिला, सिंगल, लिव इन में रह रहा जोड़ा और समलैंगिक जोड़े अब सरोगेसी के लिए आवेदन नहीं कर सकते. विदेशी नागरिकों को भारत में सरोगेसी कराने की अनुमति नहीं होगी. इसके साथ ही अब सिर्फ रिश्तेदार महिला ही सरोगेसी के जरिए मां बन सकती है.
3. कोई दंपत्ति सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे को नहीं अपनाता, तो उन्हें 10 साल तक की जेल या 10 लाख तक का जुर्माना हो सकता है.
4. अगर क्लीनिक सरोगेट मां की उपेक्षा करता है या फिर पैदा हुए बच्चे को छोड़ने में हिस्सा लेता है तो क्लीनिक चलाने वालों पर 10 वर्ष की सज़ा और 10 लाख तक का ज़ुर्माना लग सकता है.
एक्सपर्ट कमेंट- कड़े कानून बनने की वजह से अभी और बढ़ेगी माफियागिरी
सरोगेसी और इसको लेकर प्रस्तावित कानून पर अध्ययन करने वाले युवा शोधार्थी सत्यदीप सिंह कहते हैं कि आने वाले दिनों में सरोगेसी की वजह से इस तरह की ह्यूमन ट्रैफिकिंग और बढ़ने की संभावना है. क्योंकि सरकार का नया कानून काफी सख्त है. अगर यह कानून लागू हो जाता है तो कोई पैसे देकर मातृत्व नहीं खरीद सकता और सरोगेसी सिर्फ खून के रिश्ते में ही मान्य होगी. जबकि भारत में सरोगेसी एक संगठित व्यापार का रूप ले चुका है. हर साल विदेशों से आए दंपतियों के 2000 बच्चे यहां होते हैं. करीब 3000 क्लीनिक इस काम में लगे हुए हैं. कम पैसे में सेवा उपलब्ध होने की वजह से दुनिया भर के लोग इस काम के लिए भारत आ रहे हैं. इस काम से जुड़े लोग कभी नहीं चाहेंगे कि यह काम खत्म हो, ऐसे में वे इसी तरह झारखंड और देश के दूसरे गरीब इलाकों को उठा कर ले जायेंगे और अवैध तरीके से उनसे सरोगेसी करायेंगे. सत्यदीप कहते हैं कि अगर इसे रोकना है तो सरोगेसी को बैन करने के बदले इसका एक बेहतर सिस्टम तैयार करना चाहिये. कई महिलाएं खुशी-खुशी यह काम करने को तैयार रहती हैं. एक बेहतर कानून बने तो यह काम वैध तरीके से चल सकेगा. माफियागिरी खत्म होगी.
एक्सपर्ट कमेंट- सबसे जरूरी है विटनेस को सुरक्षा देना
सरोगेसी मानव व्यापार का ही एक नया रूप है. जो कि पिछले 15-20 सालों से भारत में पनप रहा है. इस अपराध के शिकार ज्यादातर आदिवासी इलाकों की किशोरियां हो रही हैं. सरोगेसी बिल 2016 का पास होना एक अच्छा कदम है. मगर यह कानून पूर्ण नहीं है. इसे रोकने के लिए मिसिंग गर्ल चिल्ड्रेन के केस को सरोगेसी के एंगल से भी देखने की जरूरत है. साथ ही साथ प्रोसीक्यूशन को फास्ट ट्रैक करना होगा. साथ में विटनेस और विक्टिम प्रोटेक्शन भी उपलब्ध कराना होगा.
सुरेश कुमार
राज्य कार्यक्रम निदेशक, प्रयास जुवेनाइल एड सेंटर
(प्रभात खबर में प्रकाशित)
बदलेगा गांव बदलेगा देश
बहन पर भाई के भरोसे की जीत और सामा चकेवा
पुष्यमित्र
एक चुगलखोर व्यक्ति राजा कृष्ण से कहता है कि तुम्हारी पुत्री साम्बवती चरित्रहीन है। उसने वृंदावन से गुजरते वक्त एक ऋषि के साथ संभोग किया है। कृष्ण अपनी पुत्री के बारे में यह खबर सुनकर गुस्से में आग-बबूला हो जाते हैं। वे यह पता करने की भी कोशिश नहीं करते कि इस बात में कितनी सच्चाई है। वे तत्काल अपनी पुत्री और उस ऋषि को शाप देते हैं कि दोनों मैना में बदल जाये। पुत्री मैना बन जाती है तो उसके पति चक्रवाक को भी वियोग सहा नहीं जाता है। वह भी मैना का रूप धर लेता है। उसे अपनी पत्नी पर पूरा भरोसा है। वह नहीं मानता कि उसकी पत्नी उसे धोखा दे सकती है।
अब तीन प्राणी चिड़िया में बदल गये हैं। यह देख कर उस युवती का भाई साम्ब परेशान हो जाता है। वह तय करता है कि इन लोगों को पक्षी योनि से मुक्ति दिलायेगा। वह अपने पिता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि ये तीनों लोग निर्दोष हैं। वह इन तीनों को फिर से मनुष्य बनाने के लिए तपस्या करता है। पिता को मनाता है, तब पिता तीनों को शाप मुक्त करते हैं। अहा, क्या कथा है? यह सामाचकेवा लोकपर्व की कथा है।
भारतीय लोकमानस में बसी इस कथा के बारे में सोचिये और वर्तमान परिदृश्य पर गौर कीजिये। आज अगर किसी भाई को पता चल जाये कि उसकी बहन का किसी पर पुरुष से यौन संबंध है, किसी पति को यह भनक लग जाये… तो ये भाई और पति कितनी देर अपने गुस्से पर काबू रख पायेंगे। वे उक्त महिला को कितना बेनिफिट ऑफ डाउट देंगे। मगर लोक मानस में बसी इस कथा के भाई और पति न सिर्फ उक्त स्त्री पर भरोसा रखते हैं, बल्कि उसे दोष मुक्त साबित करने के लिए हर तरह का कष्ट उठाते हैं।
… और बहनें अपने भाई के इस त्याग का बदला चुकाने के लिए हर साल सामाचकेवा का पर्व मनाती हैं। वे मिट्टी की चिड़िया बनाती हैं, गीत गाते हुए उन्हें रोज खेतों में (वृंदावन में) चराने ले जाती हैं। आखिरी रोज कार्तिक पूर्णिमा के दिन इनका विसर्जन करती हैं, बहनें चुगलखोर चुगला की दाढ़ी में आग लगा देती हैं और भाइयों से कहती हैं कि मिट्टी की बनी चिड़ियों को तोड़ दें ताकि सामा, उसके पति चक्रवाक (चकेवा) और शापित ऋषि फिर से मानव रूप में आ सकें। कोसी और मिथिलांचल के इलाके में इस पर्व को लेकर काफी उल्लास रहता है। रात के वक्त लड़कियां और महिलाएं खेतों में जाकर खूब गीत गाती हैं और भाइयों का शुक्रिया अदा करती हैं। इन गीतों में जिस भाई का नाम आता है वह अह्लादित हो जाता है।
इन मधुर गीतों को स्वर कोकिला शारदा सिंहा ने अपनी आवाज दी है। इनमें से “गाम के अधिकारी” और “सामा खेलै चललि” वाले गीत काफी लोकप्रिय हैं। अक्सर इन्हें लोग गलती से छठ गीत समझ लेते हैं। इस लोकपर्व की मधुरता का सबसे सजीव वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने दूसरे सबसे पापुलर उपन्यास परती परिकथा में किया है। जिन्होंने उस प्रकरण को पढ़ा है, वे इस पर्व की मधुरता का अंदाज लगा सकते हैं।
कथा जो भी हो, मगर वस्तुतः यह पर्व उत्तरी बिहार में हर साल साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों के स्वागत में मनाया जाता है। इस दौरान पूरे इलाके में साइबेरियन क्रेन समेत कई पक्षी प्रवास करने आते हैं। मगर अक्सर ये पक्षी शिकारियों के हाथों मारे जाते हैं। जबकि इलाके की औरतों को इन पक्षियों के मारे जाने से दुख होता है। इस पर्व के जरिये वे इन पक्षियों की सुरक्षा का भी संदेश देती हैं। हालांकि मौजूदा वक्त में यह संदेश गुम सा हो गया है। अब सामा चकेवा को चराने के लिए न वन (वृंदावन) हैं, न गीत गाने वाले मधुर कंठ, न मूर्तियां बनाने में कुशल महिलाएं। छठ के बाद सबकुछ आपाधापी में होता है। मगर फिर भी यह पर्व हर साल हम जैसों के मन में मधुर स्मृतियां छोड़ जाता है।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।