मंज़ूर एहतेशाम- भोपाल में मुहब्बत की एक ‘सांझ’

मंज़ूर एहतेशाम- भोपाल में मुहब्बत की एक ‘सांझ’

पुष्यमित्र के फेसबुक वॉल से साभार

मेरे प्रिय लेखक और सबसे प्रिय मेंटर। आज मुहब्बत की वह डोर टूट गयी, जिसकी उम्मीद मुझे हमेशा ताकत देती थी। आपका होना एक अहसास था कि जब भी भोपाल जाऊंगा तो आपके साथ कुछ देर बैठकर थोड़ा खुश और थोड़ा बेहतर बन जाऊंगा। अब यह सोचना मुश्किल है कि कभी भोपाल गया तो अब आपसे मुलाकात नहीं होगी। 26 जनवरी, 2020 को आपके साथ हुई मुलाकात आखिरी मुलाकात के तौर पर दर्ज हो जायेगी।
1998 से लेकर 2003 तक जब तक मैं भोपाल में रहा, आपके दरवाजे मुझ जैसे छात्र के लिए हमेशा खुले रहे। फिर चाहे वह शिल्पकार फर्नीचर वाली दुकान हो, आपका घर हो या रवींद्र भवन के सामने आपको कुछ दिनों के लिए मिला सरकारी आवास हो जो निराला सृजन पीठ के अध्यक्ष के तौर पर आपको मिला था। लगभग हर हफ्ते आपके घर बिना पूछे चला जाता है और आप बिठा कर पूरे इत्मीनान से बतियाते थे, साहित्य, दुनिया और तरह-तरह की बातें। उन बातों में सबसे कम जिक्र आपकी किताबों का होता था। मैं कई बार आपको खोदता तो आप चार लफ्ज बोलकर बात बदल देते। फिर दोस्तोएवस्की या किसी और अपने पसंदीदा लेखक के बारे में शुरू हो जाते।
जब भी जाता तो आप कुछ इस तरह स्वागत करते कि आपके घर में कोई बड़ा मेहमान आया हो। खाने और चाय के लिए पूछते और फिर जब घंटे-दो घंटे बाद अपनी मुलाकात खत्म होती तो दरवाजे तक छोड़ने आते। उस वक्त तो मैं ठीक से पत्रकार भी नहीं था, पत्रकारिता का छात्र और साहित्य का पाठक भर था। मगर आपका स्नेह बराबर था।

भोपाल जाने से पहले आपको नहीं पढ़ा था। आपके बारे में आपके मित्र सत्येन कुमार ने बताया था, जिनका उन दिनों मैं फैन हुआ करता था। जब उनसे मिलने गया तो उन्होंने कहा कि मंजूर से जरूर मिलना। और फिर जब आपसे मिला तो आपका ही होकर रह गया। सत्येन कुमार जी से फिर दूसरी मुलाकात नहीं हो पायी।आप चले गये, दुख तो जरूर है। मगर यह भी पता है कि पिछले कुछ वर्षों से आप लगातार अकेले होते चले गये थे। आपके मित्र सत्येन कुमार और अलख नंदन चले गये। फिर आप बीमार हुए और फिर आपकी पत्नी भी गुजर गयीं। यह अकेलापन आपको अंदर ही अंदर खा रहा था। आपसे फोन पर बातें होतीं तो लगता कि आप लगातार उदासी के भंवर में डूब रहे हैं।

एक बार सिर्फ आपसे मिलने भोपाल गया। आपका जोर था कि आपके घर पर ही ठहरूं। रात भर रुका भी। आप काफी परेशान थे। आप लगभग पूरी रात बहुत सारी बातें बताते रहे। मैं शायद आपकी उदासी के बावत कुछ कर नहीं पाया।फिर दुबारा तब मुलाकात हुई जब पिछले साल भोपाल गया था। मगर तब आप अपने ही अंदर कहीं खो गये थे। बहुत कम बोलने लगे थे। उस बार लगातार मैं ही बोलता रहा, आपको खोदता रहा। आपने सिर्फ इतना बताया कि भोपाल के बारे में किसी किताब पर काम कर रहे हैं।पिछले दिनों राजू भाई पटना आये तो उन्होंने बताया कि आपकी पत्नी साल के आखिर में कोरोना से गुजर गयीं। इसके बाद आप बिल्कुल अकेले हो गये। यह जीवन निश्चित तौर पर आपके लिए अच्छा नहीं था। हम जो आपके चाहने वाले थे वे चाह कर भी आपको इस भंवर से उबार नहीं पा रहे थे। आप को अपनी दुनिया में खींच कर ला नहीं पा रहे थे। फिर आपके जाने की खबर आ गयी।

अब आपकी किताबें हीं हमारे पास रह गयी हैं। सूखा बरगद जो यह बताती हैं कि धर्म या मजहब के जाल में फंस कर कैसे एक पढ़ा लिखा इंसान रेडिकल बन जाता है। दास्तन-ए-लापता का किस्सा कि कैसे एक इंसान इस दुनिया से चलते फिरते लापता हो जाता है, वह इंसान ही नहीं इंसानियत का प्रतीक है। और फिर बशारत मंजिल जो एक गांधीवादी परिवार की कथा है। और भी कई इंटेंस किताबें हैं। अब वही हमारे साथ हैं, जिन्हें पढ़कर मेरे जैसा व्यक्ति आपको बार-बार ढूंढेगा उन किताबों के किरदारों में।

अब जब कभी भोपाल जाऊंगा तो सिटी के उस चौराहे पर बने विशाल शिल्पकार हाउस की तरफ से जरूर गुजरूंगा और अपने साथ जो भी कोई होगा उसे बताऊंगा कि इस घर में मंजूर एहतेशाम रहा करते थे। कभी भोपाल में यह भी मेरा एक ठिकाना हुआ करता था, जहां मुझ पर मंजूर सर की सरपरस्ती मिलती थी। विदा।