बावरवस्ती की महिलाओं के साथ वूमन्स डे की यादें

बावरवस्ती की महिलाओं के साथ वूमन्स डे की यादें

शिरीष खरे

शुक्रवार की तारीख क्यों खास थी यह मुझे पता भी न थी, लेकिन अब यह तारीख फिर भूल जाऊं तो भी इस तारीख से जुड़ी यह घटना मुझे हमेशा याद रहेगी. ऐसा इसलिए कि सुबह कर्नाटक के बीजापुर शहर की तरफ जब कोई पचास किलोमीटर दूर निकला तो एक छोटी-सी बसाहट दिखाई दी. इस मार्ग पर दूर-दूर तक कोई गांव नहीं दिख रहा था और सड़क पर जब एक बसाहट दिखी तो दूर से ही पहचान गया कि यह वही बस्ती है जिसकी तलाश में मैंने आज सुबह पांच बजे ही बिस्तर छोड़ दिया था. इस बस्ती का नाम था- बाबरवस्ती.

बीजापुर शहर से कोई तीस किलोमीटर पहले जब मैं बाबरवस्ती वालों से मिला तो पता चला कि आज आठ मार्च है और बस्ती की कई महिलाएं सुबह-सुबह स्कूल गई हुई हैं. स्कूल पहुंचा तो जाना कि इस इलाके की ये महिलाएं शिक्षा और नशा-मुक्ति के लिए काम कर रही हैं. वहां कई सारी महिलाएं आठ मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बच्चों के साथ सावित्री बाई फुले पर एक कार्यक्रम कर रही थीं. वैसे तो पूरा गांव कन्नड़ भाषा में बात करता है, फिर भी वह एक मराठी माध्यम की शाला थी और सड़क से भीतर कुछ दूर की बसाहटों से अन्य महिलाएं भी कार्यक्रम में आई हुई थीं, शायद यह सोचकर सबने अपनी-अपनी बात मराठी भाषा में रखी. हालांकि, मैंने इस बस्ती के बारे में कुछ और सुन रखा था और इसलिए वहां तक पहुंचा भी था, लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर जुटी महिलाओं की बातें सुनी तो यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ और खुद से यह सवाल किया कि विरल क्षेत्र की ये महिलाएं सामाजिक मुद्दों पर इतनी सजग हो सकती हैं, मैं इसकी कल्पना भी क्यों न कर सका!

उन महिलाओं की कही बहुत सारी बातें मेरे लिए नई थीं. इसलिए मैं उन्हें अपनी डायरी में लिखता गया. इस दौरान अच्छी बात यह रही कि वहां किसी ने मेरे साथ अतिथि की तरह व्यवहार नहीं किया. ऐसा मुझे इसलिए भी लगा कि कार्यक्रम में आईं कई महिलाओं को सम्मान देने के लिए मेरा नाम लेकर बार-बार पुकारा गया. तब मैं अपना लिखना छोड़ दिल से उन्हें सम्मान देने पहुंच जाता. मुझे खुशी इस बात की हुई कि आज मैंने खुद को अपनी भूमिका से कुछ अलग भी महसूस किया.

इसके बाद बाबरवस्ती के बारे में जो सुन रखा था उस पर भी देर तक बस्ती वालों से बातचीत हुई और साथ-साथ कुछ तस्वीरे भी खींचीं.अंत में जब यह कार्यक्रम समाप्त हुआ और बाहर से आए अथिति चले गए तो मैंने एक तस्वीर और खींची. यह सबसे आखिर की तस्वीर थी. लेकिन, उसके पीछे एक और तस्वीर वहां के प्रधानाध्यापक दिलीप बाघमारे सर ने खींच दी. इस तस्वीर में मैं एक तस्वीर उतार रहा हूं. उनकी वही तस्वीर इधर आपके साथ साझा कर रहा हूं…


shirish khare

शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।