प्रजातंत्र में लहलहाता राजतंत्र का ‘रक्तबीज’

प्रजातंत्र में लहलहाता राजतंत्र का ‘रक्तबीज’

संजय पंकज

सब जानते हैं कि आज की राजनीति नेताओं के लिए समाज-सेवा से ज्यादा सत्ता-सुख की भोग-चाहना है। वे दिन बहुत पीछे छूट गए जब ‘भिक्षुक होकर रहते सम्राट, दया दिखाते घर घर घूम ।’ आज सम्राट जैसा जीवन और ऐश्वर्य मंत्रियों का है । राजतंत्र और सामंत को कोसनेवाले समाजवादियों का चेहरा कितना घिनौना और कृत्य कितना भ्रष्ट है किसी से छिपा हुआ नहीं है । यहाँ तक कि साम्यवादी कुछेक नेताओं को छोड़ दें तो जनवादी प्रतिबद्धता की दुहाई देनेवाले अनेक नेताओं का रहन-सहन और खान-पान तथा भोग-विलास किसी राजा-महाराजा और सामंत से तनिक भी कम नहीं है। बल्कि राजा को तो सब कुछ व्यवस्थित करने के लिए सचेष्ट रहना और चिंतित होना पड़ता था । जनतंत्र में तो सारी व्यवस्था और चिंता नौकरशाह को करनी पड़ती है। मंत्री जी को तो सक्रिय होकर सारे सुख-संसाधनों का भोग करते जाना है केवल । गाड़ी, बंगला,यातायात, धुलाई, सफाई चिकित्सा सब सरकार की चिंता जबकि सरकार स्वयं मंत्री जी होते हैं लेकिन व्यवस्था की सरकार तो सिस्टम और नौकरशाही है ।

पंचायत से लेकर संसद तक जो जनतंत्रीय प्रणाली और जनतांत्रिक मूल्य हैं वे सबके सब ध्वस्त और छिन्न-भिन्न हैं । संविधान का हवाला देते असंवैधानिक और संसद में शोर मचाते असंसदीय कार्य तथा व्यवहार बेशर्मी से खूब किए जा रहे हैं । शोर मचाते हुए ईमानदारी, नैतिकता, सादगी और सच्चाई की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। भोली भाली जनता को भरमा-भटकाकर दिन-रात बड़गलाया जा रहा है । जनता धर्म, भाषा, क्षेत्र, दल, मजहब और जाने किस किस अनर्गल प्रलापों और प्रपंचों फँसकर आपस में लड़-मर रही है। सत्ता-लोलुप नेता इसका लाभ उठाता है । वह सारी सुविधाएँ जनता की बलि चढ़ाकर हासिल करता है ।साधु स्वभाव के नेता अब दुर्लभ हैं । संत और त्यागी अब कौन है भला? सत्ता में सरदार वल्लभ भाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री, अब्दुल कलाम, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता हुए जो सेवा, सादगी, त्याग, निष्ठा, संवेदना, संस्कृति की मिसाल हैं ।

राजनीतिक अवमूल्यन के इस विकट दौर में भी कुछ नेता हैं जिनके विचारों से असहमति होने के बावजूद उनकी सादगी और ईमानदारी पर भरोसा किया जाता है । वे जनता, जनपद और देश के लिए सोचते हैं । अपनी दलगत मजबूती बनाए रखने की मजबूरी में वे अनाप-शनाप बोलते हुए भी अपनी मितव्ययिता और सादगी बचाए रखते हैं । समाजवाद की चादर ओढ़े नेताओं की विशाल फौज पूरे देश में मौजूद है जिनका भोग-विलास किसी राजा से कम नहीं । जबकि त्रिपुरा से लेकर पश्चिम बंगाल और गोवा के तमाम सियासत दां आज भी सादगी के मिसाल हैं । मुख्यमंत्री होते हुए भी कुछ ऐसे लोग हैं जो सादगी के मिसाल बने हुए हैं, । उनकी आक्रामकता और राजनीतिक पहल से सहमति-असहमति हो सकती है मगर उनकी कर्मनिष्ठा और सादगीपूर्ण जीवन-शैली पर टिप्पणी नहीं की जा सकती है । जबकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकों सरकार संसाधनों की इतनी लत लग गई है कि बिना कोर्ट के आदेश के सरकारी बंगला तक खाली करने को तैयार नहीं होते हैं।

भारत के राजाओं का भवन अब संग्रहालय बन गए या फिर होटल बन गए । कई खंडहरों में तब्दील होकर भी दर्शनीय भर बनकर रह गए। राजभवन को देखकर किसी संवेदनशील व्यक्ति के भीतर मिश्रित प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है मगर प्रजातंत्र के रास्ते आई इस सामंती प्रवृत्ति पर किस तरह की टिप्पणी की जाए -जनता को सोचना जरूर चाहिए।

ग्वालियर के जय विलास पैलेस के भीतर की तस्वीर

ग्वालियर के अपने साहित्यिक प्रवास पर वरिष्ठ साहित्यकार श्री मुरारीलाल गीतेश जी के साथ ग्वालियर राजा के भव्य आवास ‘जय विलास पैलेस’ के दर्शन के लिए जब गया तो सब कुछ देखकर दंग रह गया । साफ सुथड़ा और रंग बिरंगे फूलों से सुसज्जित दूर दूर तक फैला सुव्यवस्थित परिसर । हॉल जैसे बड़े बड़े कमरे ।रंगीन झालर-झूमरों से जगमगाता बड़ा बरामदा । संग्रहालय तथा अन्यान्य अनेक चीजों को देखकर मैं राजतंत्र के वैभव में खोता चला गया । मैं उस जमाने के वास्तुकला, कारीगरी और तकनीक पर मुग्ध रह गया । नजर डायनिंग टेबल पर बिछी चारों तरफ घूमती छोटी रेलपटरियों पर गईं ।मुँह से अनायास निकल गया -‘यह क्या?’ गीतेश जी ने समझाया -‘किचेन से कई  पदार्थ भरे डिब्बों को खींचकर एक छोटा -सा ईंजन हर मेहमान तक व्यंजनों को पहुँचाता है । वहाँ के कर्मचारी ने पूछने पर बताया कि आज भी अवसर विशेष पर यहाँ उसी राजसी अंदाज में भोज का आयोजन होता है । मैं रक्तहीन अस्थिशेष युग युगों से पीड़ित जनता की कराह वहाँ सुन रहा था। छत को कमजोर हाथों से समतल करते मजदूरों की खुरदरी हथेलियों को देख रहा था । प्यास से दम तोड़ते उसी छत पर छटपटाते यौवन को थरथराते हाथों से छू रहा था ।मैं वहाँ रुक नहीं सका तेजी से दनदनाता हुआ बाहर निकल गया । पीछे पीछे भागते हुए आदरणीय गीतेश जी भी आ गए । हम परेशान परिसर के मुख्य द्वार पर मुँह फाड़े खड़े थे । किसको खरी खोटी सुनाते । मैं भी तो ऐश्वर्य देखने गया था । सामंत का रक्तबीज प्रजातंत्र में भी लहलहा रहा है ।


संजय पंकज। बदलाव के अप्रैल 2018 के अतिथि संपादक। जाने – माने साहित्यकार , कवि और लेखक।  स्नातकोत्तर हिन्दी, पीएचडी। मंजर-मंजर आग लगी है , मां है शब्दातीत , यवनिका उठने तक, यहां तो सब बंजारे, सोच सकते हो  प्रकाशित पुस्तकें। निराला निकेतन की पत्रिका बेला के सम्पादक हैं। आपसे मोबाइल नंबर 09973977511  पर सम्पर्क कर सकते हैं।