शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ का 26 फरवरी को नई-दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में विमोचन

शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ का 26 फरवरी को नई-दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में विमोचन

टीम बदलाव

‘नदी सिंदूरी’, शहर और शहरी सभ्यता से दूर एक गोंड आदिवासी बहुल गाँव की कहानी है जिसकी अंदर कई सारी कहानियाँ हैं। नर्मदा की इस सहायक नदी के किनारे यह गाँव है मदनपुर। ‘नदी सिंदूरी’ महज नदी की ही कहानी नहीं है, बल्कि घाट, गाँव, गाँव-संस्कृति की भी कहानी है।

इस स्मृति-कथा में चरित्र प्रधान है और कई सारे चरित्र हैं जैसे आदिवासी गायक, ढोलकबाज, साधु, ठग, चोर, नचैया, हिम्मतवाली दलित बस मालकिन, साहसी दलित युवक, उज्जड बस कंडक्टर, जीप ड्राइवर, बांसुरीवादक गड़रिया, फोटोग्राफर, पिछड़ा वर्ग का नेता, प्रगतिशील पुजारी, आदर्शवादी मास्साब, मॉडर्न सैलून वाला, टेलर मास्टर, वीर वीरन कक्का, गोताखोर, गोताखोर की पत्नी, भूत इत्यादि और इन्हीं में एक मैं भी।

‘नदी सिंदूरी’ में कस्बाई आकर्षण है। लेकिन, कस्बाई दबंगई का डर और विरोध भी है। कस्बे की लड़की से जुड़ी एक प्रेम की स्मृति है तो कहीं चोरी-छिपे तो कहीं सतह तक आईं गाँव की कुछ दूसरी प्रेम कहानियाँ भी हैं। सभी जगह पर प्रेम एक स्थायी तत्व है जो परम्परागत संरचना को हिलाती रहती है और उसमें हर बार सिंदूरी की पतली-सी धारा फूटती दिखाई पड़ती है।

नदी सिंदूरी जो अब सूख रही है कभी बारह महीने बहा करती थी। यहाँ व्हाट्सप्प-फेसबुक-ट्वीटर युग की दुनिया से दूर नब्बे के दशक की दुनिया दर्ज हुई है जहाँ मशीनों से दूर जीवंतता है और जड़ता भी। मानवीयता है तो विद्रूपता दोनों ही। साथ ही कुछ ऐसी ध्वनियाँ हैं जो लोगों को आपस में एक-दूसरे से बाँधती हैं।

नदी सिर्फ संसाधन नहीं है, न ही बस गाँव का भूगोल तय करती है, बल्कि एक समुदाय रचती है। यह है सिंदूरी जैसी छोटी नदी किनारे का समुदाय जो लोकरीति, लोकनीति, किस्से और कहावतों के महीन धागों से बुना हुआ है, जिसमें एक शुद्ध देहात की दुनिया दिखती है, जिसमें नदी को देख रोया, गाया या हँसा जा सकता है।

मध्य-भारत के एक बड़े शहर भोपाल से करीब दो सौ किलोमीटर दूर सिंदूरी के किनारे मदनपुर को सन् 1842 और 1857 के गोंड राजा ढेलन शाह के विद्रोह के कारण इतिहास में मामूली जगह दी गई है। बहादुर शाह जफर ने सन् 1857 में केंद्रीय मंत्रीमंडल बनाया था जिसके प्रधानमंत्री वे खुद थे। उस मंत्रीमंडल में एक नाम ढेलनशाह का भी था।

ढेलन शाह की कहानी तो फिर भी इतिहास में दर्ज हो चुकी है। लेकिन, ‘नदी सिंदूरी’ की कहानी अब दर्ज हुई है। ये संस्मरण, ये कथाएँ सिंदूरी के बीच फेंके गए पत्थर के कारण नदी के शांत जल की तरंगों जैसी हैं।

अक्सर इतिहास और साहित्य में बड़ी नदियों और उन नदियों के तट पर विकसित नगरीय सभ्यता पर तो खूब चर्चा होती है, पर कहीं-न-कहीं किसी छोटी नदी और उसकी गोद में किसी गाँव की संस्कृति हाशिये पर ही छूट जाती है। ऐसे में ‘नदी सिंदूरी’ की गोद में आकार लेती मदनपुर जैसे एक गाँव की उपस्थिति को परिधि में लाया गया है।

नब्बे का दशक राजनीति में नए बदलाव का दशक माना जाता है। इस दशक में राजीव गांधी की हत्या, पिछड़ा वर्ग से जुड़े मुद्दों और गठबंधन की राजनीति के उदय से लेकर अयोध्या में विवादित ढांचे का विध्वंस तथा साम्प्रदायिक दंगे हुए। इसी दशक में नवीन आर्थिक नीतियों के जरिए उदारीकरण को बढ़ावा दिया गया। ऐसे में ‘नदी सिंदूरी’ अतीत से संवाद करके उसके छूटे सिरे पर खुद को जोड़ती है, जिस पर एक नया बाजार आकार ले चुका है और आधुनिक विकास ने नदी सिंदूरी सहित कई छोटी नदियों को उजाड़ दिया है।

उजाड़ कथा के इस दौर में गाँव ने पलायन का दंश झेला है। बहुत सारे गांवों की शक्ल बदल चुकी है तब बचपन से किशोरावस्था की एक स्मृति-यात्रा ऐसे दौर से गुजरती है जिसमें कल्लो नाम की एक गाय से जुड़ा मर्मस्पर्शी संस्मरण है। आल्हा, राई, बंबुलिया जैसे लोक-गीत हैं तो रामलीला का स्थानीय संस्करण भी है।