‘स्टालिन मुर्दाबाद’ वाले कन्हैया कुमार आपसे कुछ सवाल हैं!

‘स्टालिन मुर्दाबाद’ वाले कन्हैया कुमार आपसे कुछ सवाल हैं!

ब्रह्मानंद ठाकुर

स्टालिन
कन्हैया कुमार

जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष और सीपीआई नेता कन्हैया कुमार को जब एक दिन इलेक्ट्रानिक मीडिया के समक्ष स्टालिन मुर्दाबाद कहते सुना तो मैं चौंक गया। आखिर किस परिस्थिति में उन्होंने ऐसा कहा , यह तो वही बता सकते हैं। लेकिन यह बात सोवियतसंघ के नव निर्माण में स्टालिन के ऐतिहासिक योगदान को नकारने का प्रयास कहा जा सकता है। कन्हैया कुमार हाल ही में राजनीति में आए हैं। वामपंथी विचारधारा के हैं। इसलिए यह सहज ही समझा जा सकता है कि मार्क्सवाद – लेनिनवाद का उनका गहरा अध्ययन होगा ही। जबकि वास्तविकता यह है कि मार्क्सवाद – लेनिनवाद के गहरे अध्ययन मात्र से कम्युनिस्ट नहीं बना जा सकता। अगर ऐसा होता तो एम एन राय, ट्राटस्की, जिनोविएव जैसे लोगों  ने मार्क्सवाद का गहन अध्ययन किया था मगर वे सच्चे कम्युनिस्ट नहीं बन सके। एम एन राय तो जीवन के आखिरी दिनों में कम्युनिस्ट विरोधी बन गये थे। ट्राटस्की , जिनोविएव जैसे मार्क्सवादी नेता भी गिरावट के शिकार हुए।

मार्क्सवादी बनने के लिए जरूरी शर्त यह है कि मार्क्सवाद – लेनिनवाद को द्वन्द्वात्मक पद्धति से समझ कर अपने जीवन में उतारा जाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो क्रांतिकारी आंदोलन में  पूरी ईमानदारी के साथ आने पर भी व्यक्तिवाद का प्रभाव , नाम, यश, पद का लोभ, अपने को बढा – चढा कर प्रस्तुत करने की मानसिकता, सही आत्मसम्मान बोध के बदले  अ्हंकार, अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय अड़ियल रवैया अपनाने और निजी जीवन में तरह तरह के समझौते करने की वजह से ही अनजाने में वह क्रांतिविरोधी राह पर चलने लगता है।  ट्राटस्की , कामेनेव , जिनोवाएव , बुखारिन आदि के साथ ऐसा ही हुआ। वे मार्क्सवाद के विद्वान तो थे मगर अपने निजी जीवन, आदतों एवं व्यवहार में मार्क्सवाद को लागू न कर सके। लेनिन के बाद स्टालिन ही उनके योग्य शिष्य साबित हुए जिन्होंने सोवियत समाजवाद की प्राणपन से रक्षा की और दो – दो विश्वयुद्ध की भयंकरता झेल चुके सोवियत संघ के नवनिर्माण का कार्य किया।

दो दिन पहले जब मैंने अपने एक  बौद्धिक मित्र से स्टालिन की थोड़ी चर्चा छेड़ी तो उन्होंने कहा कि स्टालिन ने अपने शासन काल में ढेर सारे विरोधियों की हत्या कराई थी। तब मैं उनकी इस प्रतिक्रिया पर मौन रह गया था। अब मैं अपनी बात की शुरुआत एक सवाल से करने जा रहा हूं। फिर असली मुद्दे पर आऊंगा। सवाल यह है कि यदि अपने देश में कोई एक तबका या समूह विदेशी ताकतों से हाथ मिलाकर राष्ट्रद्रोह की साजिश रचे तो जनतांत्रिक न्याय की बात करते हुए उस साजिशकर्ता को छोड़ दिया जाएगा या उसे सजा दी जाएगी ? 1934  में स्टालिन के विश्वस्त सहयोगी, सोवियत पार्टी और राज्य के कर्णधार किरोव की हत्या कर दी गई। इस घटना की जांच के बाद पता चला कि सोवियत पार्टी, राज्य और लाल फौज के विभिन्न स्तरों में अनेक प्रतिक्रांतिकारी गुटों का निर्माण हो चुका है जो युद्ध के मौके का फायदा उठाकर प्रतिक्रांति की तैयारी कर रहे हैं।  पार्टी के अंदर हर स्तर पर दुश्मनों के एजेन्ट घुस गये थे। जो हिटलर से मिलकर नवोदित समाजवादी व्यवस्था का गला घोंटना चाह रहे थे। तब सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी को अपने तमाम सदस्यों का सदस्यता कार्ड वापस लेना पड़ा। फिर काफी जांच – पड़ताल के बाद नये सिरे से सदस्यता दी गई। एक तरह से मजबूर होकर स्टालिन को कड़े कदम उठाने पड़े।

1933 से 1938 तक इन सभी साजिशकर्ताओं और देशद्रोहियों पर मुकदमे की सुनवाई चली। यह मुकदमा गुप्त रूप से नहीं चला था, सब कुछ खुलेआम हो रहा था। विदेशी पत्रकारों , कानूनविदों, कूटनीतिज्ञों और राजनीतिज्ञों को इन मुकदमे को देखने के लिए आमंत्रित किया गया था। ऐसा जनवादी मुकदमा दुनिया में इससे पहले कभी नहीं हुआ था। तब जो -जो विदेशी इस मुकदमे का गवाह बने थे, सभी ने यही बात कही थी। उस समय सोवियत संघ में अमेरिकी राजदूत जोसेफ डेविड ने इस मुकदमे को देखा था और बाद में आपनी पुस्तक ‘ मिशन टू मास्को ‘ में लिखा – ‘ सब कुछ देख कर मैं आश्वस्त हो गया हूं कि इस मुकदमे में स्वीकारोक्ति प्राप्त करने के लिए अभियुक्तों के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं की गई और सोवियत राज्य अभियुक्तों का जुर्म साबित कर सका। अकाट्य सबूत, गवाह और जिरह  के बाद अंतत: सभी अभियुक्त एक-एक कर अपना जुर्म कबूलने को मजबूर हुए। यह बात बिल्कुल साफ थी कि अभियुक्तों के चेहरे और आंखों पर जुर्म कबूलवाने के लिए किसी प्रकार के भय या बलप्रयोग का कोई चिह्न नहीं था। ‘ 

डेविस ने आगे लिखा है कि सोवियत सरकार द्वारा देशद्रोहियों को इस तरह से सजा देने के बाद हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस में कोई पंचमवाहिनी या जर्मनी का दलाल नहीं मिल सका। अगर यह मुकदमा नहीं चला होता, अभियुक्तों को सजा न मिली होती तो राज्य के अंदर , लाल फौज के अंदर हिटलर के पंचमवाहिनी के लोग अड्डा जमा चुके होते और सोवियत समाजवाद को बचाना असम्भव हो जाता। तब हिटलर  के एक सहयोगी  गोयरिंग ने 8 मई , 1943 को अपनी डायरी में लिखा -‘  हिटलर ने उन्हें पश्चाताप के साथ कहा कि लाल फौज में मैने जिस फूट की उम्मीद की थी , वह पूरी नहीं हुई।’ ऐसा इसलिए कि स्टालिन ने देश में पंचमवाहिनी के निर्माण के तमाम प्रयत्नों को जड़मूल से नष्ट कर दिया था। यदि ऐसा नहीं होता तो न केवल सोवियत समाजवाद बर्बाद होता बल्कि हिटलर के हमले से सम्पूर्ण यूरोप और दुनिया को बचाया नहीं जा सकता था। उन दिनों स्टालिन के इस ट्रायल को लेकर हिटलर के प्रचार माध्यम , कुछ कट्टर कम्युनिस्ट विरोधियों और ट्राटस्कीवादियों को छोड़ कर किसी ने भी दुष्प्रचार नहीं किया।

मास्को ट्रायल की जरूरत को समझ कर रुजवेल्ट के अनुयायी पत्रकार जान गंधार ने अपने लहजे में तुलना करते हुए तब कहा था -‘  मुसोलनी से लोग डरते हैं, हिटलर की अंधे की तरह पूजा करते हैं और स्टालिन को तहे दिल से आदर करते हैं । मास्को ट्रायल की जरूरत समझते हुए उन्होंने लिखा – ‘ पेरिस कम्युन के पतन के बाद 30 हजार कम्यूनपंथियों की हत्या कर दी गई थी। इससे मिली सीख से बोल्शेविकों ने समझा कि यदि प्रतिक्रांति के जरिए समाजवाद ध्वस्त हो जाता है तो कितने हजार कम्युनिस्टों की जान चली जाएगी। इसलिए उन्होंने समाजवाद की रक्षा के लिए कुछ प्रतिक्रांतिकारियों को सजा ए मौत देने की जरूरत महसूस की। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि स्टालिन के बाद जो नेतृत्व आया , वह सोवियत समाजवाद की रक्षा नहीं कर सका और धड़ल्ले से संशोधनवाद की राह पर चल पड़ा।

ब्रह्मानंद ठाकुर।बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।