अनिल तिवारी
वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल तिवारी अपने रंगकर्म के 50 बरस के अनुभवों को फेसबुक पर साझा कर रहे हैं। हम इस सीरीज को बदलाव के पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं। अनिल तिवारी फेसबुक पर 50 से ज्यादा कड़ियां साझा कर चुके हैं। हम उनकी गति के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहे। पिछले करीब एक माह में हम इस सिलसिले को जारी नहीं रख पाए। क्षमा सहित फिर से हम अनिल तिवारी के इन संस्मरणों को साझा कर रहे हैं। डबल डोज के साथ 14वीं और 15 वीं कड़ी।
मेरे कदम सरोज के क्वाटर की ओर बढने लगे। हाथ से ढकेलने वाले लकड़ी के गेट को खोलने के बाद मैंने दरवाजे की कुण्डी बजाना शुरु की और अचानक दरवाजा खुला। सामने एक महिला ने लगभग मुझे डांटने के अन्दाज में पूछा,- आप कौन? मैने उस कौन को नजरअन्दाज कर नमस्कार किया। उन्होंने नमस्कार का जवाब न देते हुये फिर से कहा,- आप कौन? मैंने कहा- मैं अनिल तिवारी। यहाँ कैसे आये, तुम्हारी यहाँ आने की हिम्मत कैसे हुई? और दरवाजा बन्द।
मैंने फिर दरवाजा खटखटाया। काफी देर बाद दरवाजा खुला और अब की बार तो महिला आगबबूला थी और हर प्रकार की भाषा का खुले आम प्रयोग कर रही थी। मैं सब चुपचाप सुन रहा था। बस बीच-बीच में इतना ही बोल पाता था कि मेरी बात तो सुनिये। पर वो बात सुनने को राजी ही नहीं थीं। इसी बीच सरोज भी आ गईं। उसे देख कर उनका पारा सातवें आसमान पर चढ गया। सरोज को उन्होंने अन्दर जाने का आदेश कई बार दिया तो सरोज बार-बार अन्दर जाये और फिर महिला के पीछे आ जाये। अब महिला सरोज को अन्दर ढकेलती, मुझे डांटती और मैं ? मेरी बात तो सुनिये की रट लगाता। यह क्रम लगभग दस पंद्रह मिनट तक चलता रहा। तब कहीं जा कर वो थोड़ा चुप हुईं और मेरी बात सुनने को राजी हुईं।
मेरे रंग अनुभव के 50 वर्ष –14,15
मुझे समय मिला और मैंने अपनी बात शताब्दी की रफ्तार से कहना शुरू कर दिया। इसमें बीआईसी, कार से घर आना-जाना और बिरला ग्रुप के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री सरदार सिंह चौरडिया का नाम बार-बार लेता रहा। उन्हें विश्वास दिलाता रहा कि आपकी लड़की बिडला ग्रुप की धरोहर होगी और किसी भी प्रकार की घटना-दुर्घटना की पूरी जिम्मेदारी पूरे बिड़ला ग्रुप की होगी। आप चाहें तो मैनेजिंग डायरेक्टर साहब , यह सब आपको लिख कर भी दे सकते हैं। इस बीच सरोज मुझे अन्दर बैठाने का आग्रह अपनी माँ से करती रही पर वो सारी बात मुझे गेट पर ही खड़ा कर, करतीं रहीं।
करीब एक घण्टे बाद उन पर कुछ-कुछ मेरी बातों का प्रभाव होने लगा। उधर सरोज का उत्साह मैं अच्छी तरह से भांप गया था तो मेरा मनोबल भी दुगुना हो चुका था। खैर, लगभग एक घण्टे के बाद सरोज की माँ मुझे घर के अन्दर ले कर आईं। अब सारी स्थिति मेरे काबू में नजर आ रही थी। फिर तो चाय भी आई और नाश्ता भी हुआ। मैंने अपने को एक निहायती शरीफ लड़के के रूप में प्रस्तुत किया और उन्होंने माना भी। फिर लगभग दो तीन घण्टे तक मैं सरोज की माँ से गप्पें लगाता रहा। हँसी मजाक का दौर भी चला। आगे चल कर सरोज ने मुझे राखी बाँधना शुरू कर दी और उस घर में मेरी स्थिति घर के बड़े लडके की तरह हो गई।
सरोज ने मेरे साथ बीआईसी के कई नाटकों में काम किया। कुछ सालों बाद उसका भोपाल रंगमंडल में चयन हो गया और वो ग्वालियर छोड़ कर भोपाल बस गई। मैं एक लम्बे समय तक भोपाल रंगमंडल जा-जा कर उससे मिलता रहा।वहीं मेरी भेंट ग्वालियर की एक और लड़की से हुई जिसने कभी भी नाटकों में काम नहीं किया था पर बाबा कारन्त ने उसे भी भोपाल रंगमंडल का सदस्य बनाया था। उसका नाम था- आभा चतुर्वेदी।
भारत भवन के रंगमण्डल में ग्वालियर से चार कलाकारों का चयन किया गया था, जिसमें शीला मुखर्जी, सरोज शर्मा, आभा चतुर्वेदी और प्रदीप गोस्वामी। शायद ग्वालियर से ही सबसे ज्यादा महिला कलाकारों ने भारत भवन रंगमंडल भोपाल के लिये आवेदन किया था और उन सबका चयन बाबा कारन्त ने कर भी लिया। इसका कारण एक यह भी था कि बहुत कम महिलाओं ने रंगमंडल के लिये आवेदन किया था। पर इसे रंगमंडल का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि शीला मुखर्जी ने भारत भवन रंगमंडल छोड़ दिया।
मैं सरोज से मिलने भारत भवन जाता ही रहता था। तो वहाँ मेरी मुलाकात एक निहायत ही खूबसूरत लड़की से हुई जिसकी गजब की सुन्दर आँखें थीं, जिसे हम सही मायने में इंडियन ब्यूटी कह सकते थे। आभा , ग्वालियर से ही थी ,यह बात मुझे उससे मिलने के बाद ही पता चली। क्योंकि आभा ने कभी भी नाटक नहीं किये थे इसलिये मैं उससे परिचित भी नहीं था, पर वो मुझे जानती थी क्योंकि मेरे नाटक देखने वो आती थी। खैर सरोज ने आभा से मुलाकात कराई और हमारी अच्छी दोस्ती हो गई। जब भी मैं भोपाल जाता, आभा से जरूर मिलता।
एक बार की मुलाकात में उसने मुझे बताया कि उसका प्यार गंगा से चल रहा है, शायद वो गंगा से ही शादी भी करेगी। मुझे बहुत खुशी हुई। आभा ने मुझे गंगा से भी मिलवाया। गंगा ने बताया वो जबलपुर से है और किसी ट्रांस्पोर्ट कम्पनी में काम करता है। मुलाकात अच्छी रही। बाहर हम दोनों ने ठेले पर कई दिनों तक चाय भी पी और मैं ग्वालियर वापस आ गया। इस बीच सरोज से किन्हीं बातों को लेकर मेरे बीच मनमुटाव भी हो चुका था। अतः अब मेरा बार-बार भोपाल जाना लगभग बन्द हो चुका था।
कुछ साल ही बीते थे कि एक दिन अचानक मेरे घर की कॉलवेल बजी। मैंने दरवाजा खोला तो मैं देख कर दंग रह गया कि सामने गंगा खड़ा है। और साथ में एक अंकल टाईप इन्सान भी हैं। मैंने दोनों को ड्राइंग रुम में बैठाया। सामान्य हालचाल के बाद गंगा ने अपने ग्वालियर आने का कारण बताया और कहा- यह मेरे पापा जी हैं। जब गंगा से ग्वालियर आने का कारण सुना तो एक तरफ तो मुझे खुशी हुई वहीं दूसरी तरफ मेरे हाथ पैर फूल गये। गंगा ने कहा कि मेरी शादी आभा से कल ही होनी है और बरातीयों के नाम पर सिर्फ मेरे पापा ही हैं। मतलब और कोई तीसरा व्यक्ति नहीं है।
अब शादी का सारा प्रबन्ध मुझे ही करना था जिसमें बराती भी मुझे ही इकट्ठे करने थे और मेरे पास एक दिन का भी समय नहीं था। जब मैंने गंगा से बरातियों का जबलपुर से साथ न लाने का कारण पूछा तो पता चला कि गंगा के पिता की आर्थिक हालत ऐसी नहीं थी। खैर मैं तुरन्त एक्टिव हुआ और अपनी नाट्य संस्था प्रतिशोध की टीम को एक्टिव किया। हम सभी जी जान से गंगा की बरात का इन्तजाम करने में लग गये। और दूसरा दिन तो तब हुआ जब हमारा गंगा घोड़ी पर बैठ कर आभा को बिआने बरात सहित निकला। जब बारात चली थी तब करीब चालीस बराती थे पर जब बरात आभा के घर पहुँची उस समय तक बारातियों की संख्या 200 से ऊपर पहुँच चुकी थी। मतलब इस बीच जो मिला उसे एन-केन प्रकारेण बारात का हिस्सा बना ही लिया गया। और धूम-धाम से विवाह सम्पन्न हुआ।
फिर आभा की बिदाई हुई और सभी बरातियों को आभा के परिवार की ओर से एक-एक पानी का जार दिया गया। 51-51 रुपये से सभी का टीका किया गया। यह पानी का जार मेरे पास आज भी है जिस पर लिखा है-आभा चतुर्वेदी के विवाह के सुअवसर पर बरातियों को सप्रेम भेंट। कई सालों से मैं इसे अपनी चाय के लिये स्तेमाल करता हूँ। मतलब अब इसमें पानी नहीं बल्कि मेरे लिये चाय भरी जाती है।
आभा और गंगा जबलपुर के लिये अपने पिता और ससुर के साथ बिदा हो गये। और फिर वो दोनों न जाने कहाँ गायब हो गये। बहुत सालों बाद किसी ने मुझे बताया कि वो दोनों बम्बई चले गये फिल्मों में काम करने के लिये। फिर काफी समय के बाद जब मेरे शिष्य बम्बई जाने लगे तो उन्होंने बताया कि दादा आभा ने गंगा को छोड़ दिया है और दूसरी शादी कर ली है। फिर कुछ सालों बाद पता लगा कि आभा ने उसे भी छोड़ दिया है और तीसरी शादी कर ली है।
मेरी बैचेनी अपनी चरम सीमा पर थी कि एक दिन मुझे फेसबुक पर गंगा मिल गया। पर अब वो मेरा गंगा नहीं कवि हो चुका था। जो रोज फेसबुक पर अपने दिल का हाल छोटी-छोटी कविताओं के जरिए व्यक्त किया करता है।
अनिल तिवारी। आगरा उत्तर प्रदेश के मूल निवासी। फिलहाल ग्वालियर में निवास। राष्ट्रीय नाट्य परिषद में संरक्षक। राजा मानसिंह तोमर संगीत व कला विश्वविद्यालय में एचओडी रहे। आपका जीवन रंगकर्म को समर्पित रहा।
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अनिल तिवारी जी की यह रपट अपने में बहुत कुछ समेटे हुए है। सस्पेंस इतना कि अब आगे क्या हुआ ,जानने को मन आकुल हो जाता है। सरोज की मां से इतनी डांट खाने के बाबजूद अपने उद्देश्य मे सफल अनिल ही हो सकते थे,शायद दूसरा नहीं। मैं होता तो एक ही डांट मे भाग खड़ा होता और फिर कभी उधर रुख नहीं करता। रपट जारी रहनी चाहिए।