सांसद पुष्पेंद्र सिंह के आदर्श गाँव पिपरामाफ़ का हाल

सांसद पुष्पेंद्र सिंह के आदर्श गाँव पिपरामाफ़ का हाल

कीर्ति दीक्षित

पिपरामाफ़ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश का सीमावर्ती गाँव है। 2011 की जनगणना के अनुसार जनसँख्या 4386 है। लगभग 58 फीसदी आबादी शिक्षित है। लगभग पचपन फीसदी खेती और चालीस फीसदी मजदूरी पर आश्रित है। करीब 5 फीसदी नौकरी और व्यवसाय आदि से अपनी जीविका चलाते हैं। सांसद पुष्पेन्द्र सिंह चन्देल हैं, प्रधान घसीटा अनुरागी हैं। पलायन बुंदेलखंड के लगभग हर गाँव की समस्या है, इस गाँव का भी वही हाल है। गाँव की आबादी का एक बड़ा हिस्सा जीविका के अभाव में अपना घर-बार छोड़ जाता है।

आदर्श गांव पर आपकी रपट- पांच

मुहिम के साझीदार- AVNI TILES & SANITARY

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सांसद आदर्श गांव पर अगली रिपोर्ट जयंत सिन्हा की होगी। वो गृहमंत्री राजनाथ सिंह के गोद लिए गांव की तस्वीर हमसे साझा करेंगे। 


जब पिपरामाफ़ को सांसद आदर्श गाँव के लिए चुना गया तब ग्रामीणों में एक उम्मीद की ज्योति टिमटिमायी कि अब कम से कब उनके दिन बहुरेंगे। सड़क, बिजली पानी जैसी बुनियादी समस्याओं से जल्द ही निजात मिलेगी। पर बड़े पेड़ की छाया बहुत सुख देती है लेकिन इसी बड़े पेड़ के तले अपने विकास की बाट जोहते पौधों का विकास दम तोड़ने लगता है, कुछ ऐसा ही हुआ इस गाँव के साथ भी।

सांसद पुष्पेन्द्र सिंह चन्देल

हमीरपुर महोबा संसदीय क्षेत्र के सांसद पुष्पेन्द्र सिंह चन्देल ने नवम्बर 2014 में इस गाँव को गोद लिया था। ग्रामीणों के अनुसार शुरुआती दौर में सांसदजी ने बड़ी बड़ी बातें कीं तो लगा हम सनाथ हो गये, कोई सुनने वाला है। किन्तु स्वप्नों की उम्र नींद भर की होती है, जैसे-जैसे समय बीता सांसद जी के दर्शन तो दूर गाँव की समस्याओं को सुनने के लिए भी उनके पास समय नहीं रहा।

2016 तक तो इस गाँव में विकास के नाम पर एक ईंट भी नहीं रखी गयी थी, करीब दो साल पहले हालत ये हो गये थे कि ग्रामीणों ने विरोध में गाँव की दीवारों पर ‘सांसद लापता’ के पोस्टर चस्पा किये, जो राष्ट्रीय मीडिया की खबर बनी। जब विवाद बढ़ा तब सांसद जी की निगाह अपने ही गोद लिए गाँव पर पड़ी, पर वो भी लगभग अधखुली।

आज ग्रामीणों से आदर्श ग्राम के विषय में बात करते हैं तो वे व्यंग्यात्मक हंसी हँसते हुए कहते हैं– ‘आदर्श ग्राम हो जाना मतलब अनाथ हो जाना है। हम जब शासन के पास, विधायक के पास या किसी अन्य पदाधिकारी के पास अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए जाते हैं तो वे ऐसा व्यवहार करते हैं मानो हममें करंट दौड़ता हो। कहते हैं, ये तो आदर्श ग्राम का मामला है, तुम्हारे सांसद जानें, हम कोई मदद नहीं कर सकते। अब जब राज्य में भी बीजेपी की सरकार आई तो लगा कुछ सुनवाई होगी, पर बहुत कुछ नहीं बदला। हाँ, अब सांसद जी चार छह महीने में दौरा कर जाते हैं, हाल ही में सूखा राहत के डब्बे बाँटने आये थे, काम के नाम पर बस खानापूर्ति हो रही है’।

अब सिलसिलेवार देखते हैं कि इस आदर्श ग्राम में इन करीब साढ़े तीन सालों में कितना बदलाव आया है-

प्यास बुझी, बिजली आई क्या?

महोबा पठारी क्षेत्र है, पथरीला होने के कारण यहाँ का ग्राउंड वाटर लेवल बड़ी तेजी से नीचे जाता है। सांसद आदर्श ग्राम होने के कारण पेयजल की योजना के लिये करोड़ों खर्च कर दिए गये पर स्थिति में बेहतरी नाम मात्र की ही है। ग्रामीणों को पानी उपलब्ध कराने के लिये सांसद निधि से 1 करोड़ 74 लाख रुपये की ग्रामीण पेयजल योजना में खर्च किया गया लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी ग्रामीण पेयजल योजना दुर्दशा का शिकार है। गांव में जल स्तर तेजी से घट रहा है। कुएं, हैंडपंप भी थोड़ा-थोड़ा पानी दे रहे हैं। गाँव में करीब साठ हैंडपंप हैं, इनमें से अधिकांश आदर्श ग्राम चुने जाने से पूर्व लगे थे, लेकिन मरम्मत ना होने के कारण वर्तमान में केवल पांच छह ही काम कर रहे हैं, उनमें भी पानी कम आता है। स्थिति यह है कि लोग गाँव के बाहर से पानी भरने दूर-दूर तक जाते हैं। पानी की तलाश में रतजगा हो रहा है। जहां उन्हें सही सलामत हैण्डपम्प मिला वहां से पानी भरकर लाते है। गर्मियां आते ही यह स्थिति और भयावह।

पेयजल के लिए पानी की टंकियां बनायीं गयीं, लेकिन इनका निर्माण इतना निम्नस्तरीय है कि पहले दिन टेस्टिंग के समय ही इनसे पानी रिसने लगा। कुछ की स्थिति तो यहाँ तक देखी गयी कि चंद दिनों में ही चटक गयीं। एक तो भरा ही कभी-कभी जाता है लेकिन जब भरा जाता है तो ऊपर से पानी रिश्ता है। इनके आस पास गन्दगी, कीचड़ का अम्बार लगा रहता है। पानी के लिए पम्प हाउस भी बनाया गया लेकिन ये पंप हाउस सफ़ेद हाथी साबित हो रहा है, सरकार प्रशासन से पानी की गुहारें लगायीं जाती हैं लेकिन कुछ नहीं होता।

बिजली के मामले में तो कोई तर्क ही नहीं। पहले बिजली के दर्शन होना दुर्लभ था, अब कुछ महीनों से आठ से दस घंटे बिजली मिल रही है , जबकि वायदा अट्ठारह का था। उस पर यदि कभी ट्रांसफार्मर जल गया, या कोई अन्य खराबी हुई तो हफ्तों गुजर जाते हैं। सौर उर्जा के खम्बे लगाये गये थे लेकिन कुछ दिन काम करने के बाद से खराब पड़े हैं।

सड़कें बनीं क्या, सफाई पर कितना अमल?

ग्रामीणों के तमाम विरोध प्रदर्शनों एवं संघर्ष के बाद एक साल पूर्व सीसी सड़क का निर्माण हुआ। गाँव में सफाई कर्मी की नियुक्ति है किन्तु सफाई की दशा-दिशा बदतर है। जो भी साफ़ सफाई दिखती है वह गाँव वाले स्वयं करते हैं। स्वयंसेवी संस्था एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता गाँव में स्वच्छता पर कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इसमें बच्चों को स्वच्छता के विषय में समझाया जाता है, तबसे बच्चे भी इस ओर ध्यान देते हैं। सरकारी स्तर पर इस क्षेत्र में कोई विशेष कार्य नहीं हुआ।

गाँव में पांच सौ से अधिक शौचालय बनाने की योजना थी। प्रधान के अनुसार लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत काम हो चुका है, लेकिन कुछ में केवल दीवारें खींच दी गयीं हैं, कुछ गड्ढे बनाकर छोड़ दिए गये हैं, और कुछ में स्वच्छता का मानक ख़राब है। ग्रामीण महिलाओं से जब सफाई के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था – ‘कैसी सफाई शुन्गारियां लोटती हैं’।

शिक्षा और स्वास्थ्य की चिंता किसे

देश में सरकारी स्कूलों में एक गोरखधंधा चल रहा है, इमारतें हैं तो बच्चे नहीं, बच्चे हैं तो शिक्षक नहीं। यहाँ का हाल भी इससे इतर नहीं, बल्कि इससे अधिक बुरा है। गाँव के जूनियर हाई स्कूल पर सालों से दबंगों का कब्जा है, जिसके लिए प्रशासन से, सांसद से, सरकार से, सबसे गुहार लगाई गयी। मार्च-अप्रैल के महीने में गाँव के समाज सेवक जनक सिंह परिहार ने इस कब्जे को हटवाने के लिए अनशन भी किया। प्रशासन के तमाम आश्वासनों के बावजूद कब्ज़ा जस का तस है। जनक सिंह कहते हैं –‘उन पर सरकारी वरदहस्त है जिनके आगे प्रशासन भी लाचार है, अवैध निर्माण कार्य भी कर लिए गये हैं, ऐसे में गाँव के बच्चों का भविष्य क्या होगा ये सोचनीय विषय है ’। जब उनसे पूछा गया कि ग्राम प्रधान का इन समस्याओं के प्रति क्या रुझान है तो उन्होंने बताया प्रधान को तो इस गाँव में मिट्टी का माधव बना कर बैठा दिया गया है, उन्होंने आज तक गाँव के किसी भी विकास कार्य का कोई संज्ञान नहीं लिया।

गाँव में एक अस्पताल है लेकिन उसमें चिकित्सक एवं अन्य स्टाफ ईद के चाँद से दिखाई पड़ते हैं , इसलिए छोटी सी बीमारी के लिए भी मध्य प्रदेश के छतरपुर या फिर महोबा का रुख करना पड़ता है।

गांव में डर लगता है क्या? 

अब बात सुरक्षा की, पिपिरामाफ उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश का सीमान्त गाँव है। इसलिए यहाँ अपराधी सहजता से यहां-वहां करते हैं। चोरी डकैती, लूट-पाट , हत्या जैसी वारदातें आये दिन होती हैं। सुरक्षा के नाम पर गाँव के चालीस किलोमीटर तक कोई पुलिस चौकी नहीं है। 1994 में हुई एक बड़ी वारदात के बाद यहाँ लोहड़ी स्टैंड पर पुलिस चौकी खोलने की योजना पास कर दी गयी थी लेकिन अब तक एक ईंट भी नहीं रखी गयी। अब आये दिन महिलाओं से लूटपाट की घटनाएं होती हैं। गाँव वाले सालों से इस चौकी की मांग कर रहे हैं लेकिन कागजों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। इस बार भी जब ये मांग उठाई गयी तो पुलिस अधीक्षक साहब से आश्वासन भर मिला है।

सरकारी योजनाओं का लाभ

उज्ज्वला योजना के तहत गैस के चूल्हे मिले हैं। इसके अतिरिक्त उनके जनधन के खाते भी खोले गये हैं। आवास योजना के तहत कागजों पर धन अवश्य आवंटित हुआ है लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ नही दिखाई देता। शौचालयों के लिए आवंटित धनराशि जमीन पर कम बंदरबांट में अधिक खर्च हुई है। किसान बीमा योजना, मृदा परिक्षण योजना आदि तमाम योजनाओं के विषय में ग्रामीणों को जानकारी अवश्य है लेकिन उनका लाभांश प्रतिशत बेहद कम है। पिछले साल सांसद आदर्श ग्राम योजना की जांच करने एक केन्द्रीय टीम गाँव आई थी, उन्होंने भी गाँव में हुए कामकाज पर गहरी असंतुष्टि जताई थी, तबसे कुछ बदलाव हुए हैं लेकिन सब छद्मी लगता है।

गाँव के सामजिक कार्यकर्ता जनक सिंह परिहार कहते हैं। ‘संभव है कागजों पर सारे काम फीट-फाट कर लिए गये हों लेकिन जमीनी स्तर पर हमारा गाँव बुरी स्थिति में हैं। यहाँ तक कि यदि कोई अन्य पार्टी का पदाधिकारी है तो वह हमें दूर से देखकर ही कन्नी काट जाता है। अरे भाई तुम तो आदर्श गाँव वाले हो हमसे काम ना बन पायेगा तुम्हारा इस तरह के तंज मारकर मुस्कुरा देते हैं। अब लोकसभा के चुनाव आ रहे हैं इसलिए सांसद साहब का दौरा लगने लगा है।

गाँव की महिला परिचय ना जाहिर करने की शर्त पे हंसते हुए कहती हैं– ‘काये को आदर्श गाँव, होत कछु नैया, मदिद तक करन कोऊ नईं आंगे आत, इतनो जरूर है कि सब पूंछन जरूर आ जात, कैसो है तुमाओ आदर्श गाँव, का कह दें किसें, दुसमनी तो मोल ले नईं सकत येई गाँव में रहने हैं, अब बोई इस्कूल पे बना लओ मकान जिला पंचाट बाले ने कोऊ की ताकित नैया जो छुड़ा ले, अब और का कहों बात इतनी है कि जैसेही उदै उसई भान ना उनखें चुटई ना उनखे कान’। सो जो है सो रहन दो सब एक हैं कोऊ सें कछु ना कहो रही बात हम और की तो, हम माटी कूरा के जनी,मांस हैं, हमाये बारे में कोऊ काये सोचे, हमारे तो लरका बच्चन के ब्याह होबो मुश्किल होत है तो का करें भगा देत जाओ बाहर करो मजूरी कम सें कम जीन जोरिया तो चले।


कीर्ति दीक्षित। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले के राठ की निवासी। इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रहीं। पांच साल तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में नौकरी की। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता। जीवन को कामयाब बनाने से ज़्यादा उसकी सार्थकता की संभावनाएं तलाशने में यकीन रखती हैं कीर्ति। जनऊ नाम से प्रकाशित आपका पहला उपन्यास काफी चर्चा में रहा ।


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