रहिमन, ये नर जिंदा हैं… जिन मुख निकसत ‘हां’ ही!

रहिमन, ये नर जिंदा हैं… जिन मुख निकसत ‘हां’ ही!

विकास मिश्रा

हमारे एक पुराने सहयोगी के दोस्त ने उनसे जरूरत पड़ने पर उनकी कार मांग ली थी। उन्होंने कार तो नहीं दी, लेकिन दोस्त के दुस्साहस की चर्चा जरूर करने लगे। मुझसे बोले-बताइए, कैसे भला कोई किसी से उसकी कार मांग सकता है.. भला कौन किसी को अपनी कार देगा? बताइए, ये कोई तरीका है…? वो मुझसे अपनी बात का समर्थन मांग रहे थे। मैंने कहा-भाई मैं आपकी बात को समर्थन कैसे दूं, मेरे तो कुछ दोस्त ऐसे हैं, जो मेरी कार ही नहीं, मेरी बीवी-बच्चे तक मांग ले जाते हैं।

बात मजाक ही नहीं..। बात करीब 6-7 साल पुरानी है, मेरे मित्र मुकेश कुमार (अब संपादक दैनिक जागरण मेरठ) तब मेरठ में जागरण में ही थे। मुकेश जी का फोन आया, बोले भाई पत्नी की तबीयत खराब है, बच्चा छोटा है, उसे संभालने की जरूरत है। अब ये बताओ कि भाभी जी को तुम पहुंचा दोगे या फिर मुझे उन्हें लाने के लिए किसी को भेजना होगा। जी हां, हमारे मित्र मुझसे अपनी पत्नी के ठीक होने तक मेरी पत्नी मांग रहे थे, विकल्प दो ही रखे थे। रिश्ते के आगे मेरी क्या बिसात जो मैं अनवइया का इंतजार करता, खुद पहुंचा आया। ऐसे ही बड़ी दीदी का एक ऑपरेशन था, इस बार जीजा जी बीवी मांग ले गए। दीदी बुलंदशहर में थीं, उनकी सेवा में श्रीमती जी 10-12 दिनों तक रहीं।

मेरे एक नाना थे, पंडित नाना। मेरी मां के मामा। उनकी साइकिल बड़ी चमचमाती हुई रहती थी। खुद पोंछते थे, तेल और ग्रीस डाला करते थे। उनकी साइकिल के दोनों पहियों में फुलरा लगा रहता, गजब की ट्रिन ट्रिन वाली घंटी, और रात में रोशनी के लिए उसमें लाइट भी लगी थी, पिछली पहिया पर बोतलनुमा डाइनमो रगड़ता था, फिर आगे रोशनी होती थी। नाना उसी साइकिल से मेरे घर आते थे, लेकिन क्या मजाल कि कोई उस साइकिल को हाथ भी लगा ले। तब मैं कैंची साइकिल चलाना सीख चुका था, मेरे भाई लोग गद्दी साइकिल सीख चुके थे। (कैंची और गद्दी साइकिल चलाने की कला हमारी पीढ़ी ही जानती है) नाना जब भी आते, हम लोग उनसे साइकिल मांगते, लाख जिद करते, लेकिन नाना चाबी देते नहीं देते थे। घर आते तो फौरन साइकिल में ताला मार देते। उनके बारे में लोग कहते थे कि ये जान दे देंगे, साइकिल नहीं देंगे। उस दौर में नई साइकिल चलाने का जितना चाव था, उतना तो आज मर्सडीज, बीएमडब्लू चलाने का भी नहीं है।

मैंने तो सुनार चाचा की हीरो मैजेस्टिक से मोपेड, जीजा जी की यजदी मोटरसाइकल से बाइक, अपने ट्रैक्टर से चौपहिया चलाना सीखा। ये सारा काम 13 साल की उम्र तक पूरा हो चुका था। तब सपने भी बाइक और मोपेड चलाने के आते थे। काश कोई ऐसा काम सौंप दे, जिसे पूरा करने के लिए बाइक मिल जाए…। मेरे घर में आधिकारिक सवारी उन दिनों घोड़ा, साइकिल और ट्रैक्टर ही थी। मेरे लिए खुद अपना घोड़ा अलग से था। घर में कई ऐसे उदार रिश्तेदार आते थे, जो अपनी बाइक, स्कूटर चलाने के लिए खुशी-खुशी देते। मेरे कुसुमाकर मामा जब मिलते, तो बिना पूछे ही अपनी राजदूत मोटरसाइकिल की चाभी पकड़ा देते, लेकिन ऐसे तमाम चिरकुटों से भी पाला पड़ा, जिन्हें ये तक मंजूर नहीं कि उनकी बाइक और स्कूटर कोई छू भी ले।

मेरे घर एक राय साहब भी रहते थे। उनकी हैसियत मेरे घर में बड़े भाई की ही थी। ये सब मेरी मां का प्रताप था, उसके बेटे और बहुओं की तादाद चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती रहती थी। तब मेरे घर में स्कूटर आ चुका था, लेकिन थोड़ा पुराना था। राय साहब ने नया स्कूटर खरीदा, उन्हें सबसे ज्यादा डर मुझसे ही था कि मैं जब छुट्टियों में आऊंगा, तो कहीं उनका स्कूटर न मांग लूं। आफत की सोचो, आफत हाजिर। छुट्टियों में घर पहुंचा, उनकी स्कूटर देखी, इससे पहले कुछ कहता, राय साहब बोले-मैं दुर्गा मइया के थान (स्थान) पर कसम खाकर आया हूं कि किसी को स्कूटर नहीं दूंगा। मुझे झटका लगा, मैंने कहा- भाई कसम खाते कि आप कोई गलत काम नहीं करेंगे, कसम खाते कि किसी की मदद से पीछे नहीं हटेंगे। ये कौन सी कसम खाकर आ गए । खैर, उनके स्कूटर की तरफ मैंने कभी आंख उठाकर देखा तक नहीं, लेकिन इस बात का मेरे-उनके रिश्तों पर कभी असर नहीं पड़ा।

वक्त बदला, पढ़ लिखकर बड़ा हुआ, मेरी नौकरी लगी, स्कूटर आई, बाइक आई, कार आई, हैचबैक के बाद सेडॉन और अब एसयूवी डस्टर। जिंदगी के पिछले अनुभवों ने न जाने कैसे भीतर प्रतिकार किया कि मैं इंतजार करता कि कब किसी को बाइक की जरूरत पड़ जाए और मैं फौरन उसे दे दूं। चलाना सीखना हो, कहीं जाना हो, पूछना तो महज औपचारिकता थी। दर्जनों लोगों ने मेरी बाइक से मोटरसाइकिल चलाना सीखा और मेरी कार से कार चलाना। गाड़ी ही नहीं, जैसे हो पाए, वैसे मदद करने की जैसे भूख जगी। साढ़े तीन साल पहले मैंने नई-नई होंडा अमेज खरीदी थी। मुंबई से एक मित्र का फोन आया, बताया कि उनके दिल्ली के एक दोस्त की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है, हफ्ते भर के लिए कोई गाड़ी मिल सकती है क्या..? मैंने कहा-ठीक है मित्र से कह दो, मेरी ले जाए। वो अचंभे में पड़ गया-अरे अभी तुम्हारी तो नई गाड़ी है। मैंने पूछा-तो ये कहां लिखा है कि जिसकी गाड़ी पुरानी हो जाए, वो मंगनी में देगा। खैर, दोस्त का दोस्त गाड़ी ले गया, दस दिन बाद सही सलामत वापस कर गया। यहां ध्यान रहे, ये इकतरफा मुहब्बत नहीं है। मैं बिना सोचे समझे ये सब इस नाते करता हूं कि मेरी जरूरत के वक्त दर्जनों विकल्प मौजूद रहते हैं। मेरे कई मित्र, साथी ऐसे हैं, जिन्हें पता भर लग जाए कि मुझे गाड़ी की जरूरत है, घर पर लाकर खड़ा कर देंगे। कई बार ऐसा हुआ है कि अपनी गाड़ी किसी और को दिया हूं, दूसरे साथियों ने अपनी गाड़ी मुझे पहुंचाई है।

अच्छा… जब मेरे पास कार नहीं थी, तब दिल्ली में मेरे एक साथी के पास ऑल्टो आई थी। उससे पहले मेरी मोटरसाइकिल उनकी एक जुबान पर उनके पास हमेशा हाजिर रहती थी। खैर, एक रोज मुझे अपनी मां को मेरठ में डॉक्टर को दिखाने ले जाना था, मैंने उन्हें फोन करके उनकी कार मांगी। वो कसमसाते हुए बोले-भाई साहब, कार तो मुझे दहेज में मिली है, इसे किसी को देने का फैसला तो श्रीमती जी को ही करना है, अभी वो सो रही हैं। मैंने कहा-अरे रहने दीजिए, हो जाएगा। खैर, मेरे एक और मित्र को सूचना मिली, फौरन गाड़ी लेकर पहुंच गए।

गाड़ी ही नहीं, तमाम और चीजों के साथ-साथ रुपये-पैसे का व्यवहार भी ऐसा ही रहा है। मेरे खाते में अमूमन पैसे नहीं ही रहते, लेकिन मेरी जरूरत पर 24 घंटों में धनवर्षा हो सकती है, इसका मुझे यकीन है। मेरे एक मित्र बैंक से डिफॉल्टर हो गए थे, बोले अपने खाते से 5 लाख रुपये का पर्सनल लोन लेकर मुझे दे दीजिए, किश्तें मैं चुका दूंगा। सोचने का विकल्प नहीं था, लोन लिया, उन्हें दिया, चुकता भी हो गया। हालांकि पैसे लेकर लौटाने और समय पर लौटाने वालों का इतिहास थोड़ा खराब है, करीब साढ़े तीन लाख रुपये ऐसे परिचितों, मित्रों, रिश्तेदारों ने ले रखे हैं, जिन्हें मैंने भी एनपीए मान लिया है। उनके लौटने का इंतजार भी नहीं है। चिंता भी नहीं है, क्योंकि यहीं लिया, यहीं दिया। कौन पैदा होते वक्त लाए थे? मेरे संघर्ष के दौर में जितने लोग मेरे काम आए थे, उस सहयोग के आगे तो ये घाटा कुछ भी नहीं।

मेरे बाबूजी कहते हैं -‘अगर तुमसे कोई चीज हक के साथ कोई मांग रहा है तो अवसर तुम्हें मिला है, उसे नहीं। वो तुम्हारी कोई चीज नहीं ले रहा है, बल्कि अपनी चीज ले रहा है। तुम्हें पहले ईश्वर ने इस लायक बनाया है कि किसी के काम आ सको, किसी की मदद कर सको।’ किसी विद्वान ने भी कहा है- ‘वस्तुओं का इस्तेमाल करो, रिश्तों को संभालकर रखो।’ हालांकि होता अक्सर उल्टा ही है। लोग इंसानों का इस्तेमाल करते हैं और वस्तुओं को संभाल कर रखते हैं। रहीमदास सदियों पहले लिख गए हैं- ‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुं मांगन जाहिं। उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।’
आप दूसरों के इसरार पर हां कहना तो शुरू कीजिए, अपने लिए कभी ना नहीं सुनेंगे।


विकास मिश्रा। आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के पूर्व छात्र। गोरखपुर के निवासी। फिलहाल, दिल्ली में बस गए हैं। अपने मन की बात को लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुंचाने का हुनर बखूबी जानते हैं।

One thought on “रहिमन, ये नर जिंदा हैं… जिन मुख निकसत ‘हां’ ही!

  1. विकास मिश्राजी की यह आप बीती , जग बीती भी है। लेकिन मुझेभी कुछ कहना है , ज्यादातर लोग इस पवित्र रिशते (मित्रता )का स्वहित में उपयोग करने वाले ही होते हैं।चलिए मित्र की धर्म}खेबाजी में भु आत्मिक आनंद तो है ही ।

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