सोशल इंजीनियरिंग की सियासी ‘माया’

सोशल इंजीनियरिंग की सियासी ‘माया’

पीयूष बबेले

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस तरह कांशीराम के संघर्षों से बीएसपी दलित वर्ग में अपनी पैठ बना चुकी थी । 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ी बीएसपी ने अपने समर्थकों में जोश भरा तो वहीं 1995 में पहली बार मिलीजुली सरकार के जरिए मायावती को देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री होने का गौरव भी दिलाया । हालांकि 15 बरस में 3 बार यूपी की सत्ता तक पहुंची बीएसपी साल 2007 आते-आते सोशल इंजीनियरिंग के दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब हुई और ये सब मुमकिन हुआ मायावती की मेहनत और सोशल इंजीनियरिंग की चलते । इस दौरान एक नारा खूब चला तिलक, तराजू और तलवार ।

कहानी बसपा की (भाग-2)

लॉटरी पर पूर्ण प्रतिबंध जैसे फैसलों से मायावती अगड़ी जातियों की महिलाओं के दिल में जगह बना रही थीं, तो हरिजन एक्ट से इन्हीं जातियों पर दबिश भी बन रही थी नब्बे के दशक में एक दौर ऐसा आया जब पूरा उत्तर प्रदेश लॉटरी की गिरफ्त में आ गया। हस्तरेखा, धनलक्ष्मी, भाग्यलक्ष्मी और न जाने कौन-कौन से नामों से लॉटरियों के टिकट बिकने लगे. आलम यह हुआ कि पान, बीड़ी और चाय बेचने वाले तमाम लोग अपना मूल धंधा छोडक़र टिकट विक्रेता और लॉटरीबाज बन गए. मऊरानीपुर का पूरा बाजार जैसे लॉटरी के टिकटों से पट जाता था. सुबह नगर पालिका के सफाई कर्मचारी जब झाड़ू लगाने आते, तो उनके कूड़े का सबसे बड़ा हिस्सा सड़क पर बिखरे लॉटरी के बासी टिकट होते. उधर, लॉटरी ने घरों में भी सफाई कर दी थी। मध्यमवर्गीय परिवारों में दूसरे पखवाड़े तक चलने वाली तनख्वाह पहले हफ्ते में ही लॉटरी टिकटों में उड़ जाती। हारने वाला अगले दिन चार्ट देखकर कहीं ज्यादा जोश में दांव लगाता और पहले से ज्यादा लुटा बैठता। हाल यह था कि बरबादी के इस आलम में घर की महिलाएं भी घर चलाने के लिए अपनी आखिरी बचत से लॉटरी का टिकट खरीदने लगीं. अखबारों में ऐसी खबरें खूब छपतीं कि लॉटरी में लुटने के बाद किसी ने खुद, तो किसी ने परिवार सहित खुदकुशी कर ली।

लॉटरी एक सामाजिक महामारी बन गई थी। तभी जून 1995 में प्रदेश में पहली बार बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी। चिपके बाल और लंबी चोटी वाली सादा लेकिन तेजतर्रार मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। देश में मुख्यमंत्री बनने वाली वे पहली दलित महिला थीं। उनको लेकर जितनी जिज्ञासा थी, उससे कहीं ज्यादा पूर्वाग्रह थे. सबको पता था कि 67 सीटों वाली बसपा की यह सरकार बहुत लंबी चलने वाली नहीं है, लेकिन सब देखना चाहते थे कि बसपा की फिल्म के ट्रेलर में होता क्या है और एक दिन कड़ा फैसला लेते हुए मायावती ने लॉटरी पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। सूबे में जो हंगामा-हलचल मची कि देखते ही बनती थी. पहली बार दलितों की नेता मायावती के बारे में अगड़ी जाति के घरों में वाकई चर्चा होने लगी।  अगड़े परिवार की महिलाओं के लिए मायावती रातोंरात एक ऐसी नेता बन गईं, जिन्होंने उनकी बिखरती गृहस्थी को बरबाद होने से बचाया था। यहीं से बहुत खामोशी से मायावती ने पहली बार बहुजन से सर्वजन की राजनीति का बीज रोप दिया था, हालांकि इसकी आधिकारिक घोषणा उन्होंने इस घटनाक्रम के दस साल बाद की। घोषणा के समय कांशीराम बिस्तर पर निस्तेज पड़े जीवन की आखिरी घड़ियां गिन रहे थे।

बहरहाल साढ़े चार महीने बाद यह सरकार विदा हो गई। बीएसपी के तकरीबन सारे विधायक बिक गए, लेकिन कांशीराम और मायावती अकेले नहीं पड़े. उनके पास विधायक नहीं थे, लेकिन जनता थी। बल्कि इस दौर में कांशीराम ने कहना शुरू किया कि राज्य और केंद्र में जितनी अस्थिर सरकारें बनेंगी, बहुजन आंदोलन को उतना ही ज्यादा फायदा होगा. बाद में वक्त ने उन्हें सही साबित किया। इसी बीच मैंने हाइस्कूल पास कर लिया. जीआइसी समथर में ही 11वीं में दाखिला हो गया. इस दौरान एक अप्रिय घटना घटी. पूरा घटनाक्रम कुछ इस तरह था। पास के कस्बे मोठ के आसपास के गांवों के कुछ दलित लडक़ों ने भी 11वीं में दाखिला लिया। ये लडक़े दलितों की पारंपरिक छवि से थोड़ा अलग थे. वे पढऩे में बहुत तेज तो नहीं थे, लेकिन सिर उठाकर चलते थे. अच्छे कपड़े पहनते थे. खामखां किसी से दबते नहीं थे और जरूरत पडऩे पर मुंहजोर हो जाते थे. ये लोग मोठ से समथर तक 15 किमी का सफर कर बस से आना जाना करते थे. कुल मिलाकर यह था कि आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते थे। एक दिन अचानक मैंने देखा कि कॉलेज में लड़कों के दो गुटों में लड़ाई हो रही है. जल्द ही लड़ाई एक तरफा हो गई. गुर्जर और परिहार समुदाय के लडक़ों ने दलित समुदाय के इन लडक़ों को पीटा और खदेड़ दिया. घटना के बाद बीच-बचाव हुआ और किसी को कॉलेज नहीं छोड़ना पड़ा. दलित लड़के भी कॉलेज आते रहे, लेकिन अब वे पहले की तरह अलग से नोटिस नहीं किए जाते थे. इस घटना ने मन पर बड़ा कसैला असर छोड़ा, लेकिन समय के साथ मैं और बहुत से लोग इसे भूल सा गए।

वक्त बीतता गया और 1997 में बोर्ड के इम्तिहान का वक्त आ गया. हम समथर वालों का बोर्ड परीक्षा का सेंटर मोठ पहुंच गया. जब परीक्षा शुरू हुई, तब तक प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था। सेंटर पर नकल जोरों से चल रही थी. हाल यह था कि गेस पेपर और कुंजियों में बोरों बांधी नकल हमारे सेंटर पर इस्तेमाल होती थी. फ्लाइंग स्क्वायड का डर भी किसी को नहीं था. नकल पुराण के ज्यादा विस्तार पर अलग से कभी किताब लिखेंगे, लेकिन इतना समझ लीजिए 21 मार्च 1997 को मायावती दुबारा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं।

रातोंरात फिजां बदल गई, जबकि बोर्ड परीक्षा अभी पूरी नहीं हुई थी. कल तक हमारा सेंटर जहां नकल-सेवकों से घिरा रहता था, अब उसके चारों तरफ पुलिस का सख्त पहरा था। नकल के ठेकेदार गायब थे। जो दरोगा जी कॉलेज के गेट से नकल पास कराया करते थे, अब तेल पिला डंडा लेकर नकल के दुश्मन बन गए थे. इसका असर यह हुआ कि जब परीक्षा का रिजल्ट आया तो बहुतों की मार्कशीट शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में बंट गई। जो पेपर राष्ट्रपति शासन में हुए उनमें नंबरों का सबेरा और जो मायावती सरकार में हुए उनमें फेल होने की रात. बड़ी संख्या में लडक़े फेल हो गए, लेकिन मायावती सरकार आते ही एक दूसरी घटना भी हुई। शाम की पाली में जब मैं पेपर देने पहुंचा तो पता चला कि कल समथर के गुर्जर और ठाकुरों के कई लडक़े मोठ में पिटे हैं। उन पर घेरकर लठ चलाए गए। किसी का सिर फटा तो कोई मामूली चोटें खाकर भाग खड़ा हुआ। जल्द ही यह भी पता चला कि दो साल पहले समथर में जो दलित लडक़े पिटे थे, यह उनका और उनके साथियों का बदला था।

मान्यवर कांशीराम ने जिस सोती कौम को जगाया था, वही कौम मायावती के राज में न सिर्फ जागी थी, बल्कि बराबरी से खड़ी हो रही थी। अगर भैंस उसी की होती है, जिसकी लाठी होती है, तो दलित लडक़े भी लाठी उठा चुके थे। सोती कौम जगाने के नारे की जगह ‘‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’’ जैसे नारों ने ले ली थी. इस सरकार में जो सुर्खियां बनती थीं, उनमें से एक खबर यह भी हुआ करती थी कि किसी अगड़ी जात के आदमी को जबरन हरिजन एक्ट में फंसा दिया गया। उत्तर प्रदेश की राजनीति अगड़ा-पिछड़ा-दलित के लव ट्रेंगल का शिकार हो गई थी. अब बसपा, भाजपा और सपा की तरह बराबरी की सियासी खिलाड़ी थी, जिसकी आगे की दिशा मायावती तय करने वाली थीं।  अगली किस्त में पढ़िए किस तरह बनी बहुजन से सर्वजन की राह ।


piyush baweleपीयुष बवेले। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। संप्रति इंडिया टुडे में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी।