शहीद खुदीराम बोस की स्मारक की सुध कब लोगे सरकार ?

शहीद खुदीराम बोस की स्मारक की सुध कब लोगे सरकार ?

फोटो साभार- विकीपीडिया

ब्रह्मानंद ठाकुर

11 अगस्त 1908 की वो तारीख जिसे देश कभी भूल नहीं पाएगा क्योंकि ये वो दिन जब एक आजादी के मतवाले ने भारत मां के लिए हंसते-हंसते फांसी को गले से लगा लिया था । गुलाम भारत में भी वो खुली सांस लेता रहा लेकिन आजाद भारत में भी उस क्रांतिकारी की उपेक्षा दिल्ली से लेकर बिहार तक की सरकारें करती रहीं । बिहार की मुजफ्फरपुर सेंट्रेल जल में खुदीराम को फांसी दी गई थी जिसके बाद जेल से महज एक किमी दूर बूढीगंडक के  चंदवारा घाट पर उनका दाह संस्कार हुआ जहां उनका स्मारक बनाया गया है लेकिन खुदीराम बोस की शहादत के 110 साल बाद भी वो स्मारक सरकारी उपेक्षा का शिकार है ।

चंदवारा में शहीद खुदीराम का बदहाल स्मारक

ऐसा नहीं है कि क्रांतिकारियों को लेकर आज की सरकारें उदासीन है बल्कि आजादी के बाद से ही सरकारें उपेक्षा करती रही हैं । मुजफ्फरपुर में ऐसी चर्चा आम है कि आजादी के बाद 2 अप्रैल 1949 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू मुजफ्फरपुर आए हुए थे। पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार खुदीराम बोस की याद में एक स्मारक का शिलान्यास नेहरू जी को करना था। लेकिन अखिरी मौके पर उन्होंने यह कहते हुए शिलान्यास से इन्कार कर दिया कि एक कांग्रेसी होने के नाते उनका अहिंसा में विश्वास है और वे हिंसा की संस्कृति में विश्वास रखने वालों को श्रद्धांजलि नहीं दे सकते । हालांकि बाद में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने इस स्मारक का शिलान्यास किया। जिस जगह पर बम फेंका गया था वहां तो निजी कंपनियों के सहयोग से एक अच्चा स्मारक बन गया लेकिन जहां खुदीराम को मुखाग्नि दी गई थी आज भी वो बदहाल है ।

खुदीराम बोस आजादी आंदोलन की गैर समझौतावादी धारा के जांबाज सिपाही थे। उनका जन्म 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिलान्तर्गत मौबनी गांव में एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार मे हुआ था। उनकी माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी और पिता का नाम त्रैलोक्यनाथ बसु था। महज 6 साल की उम्र में उनकी माता का देहांत हो गया। उनका पालन-पोषण इनकी बहन अपरूपा देवी ने किया जो उम्र में उनसे बड़ी थीं। कहते हैं कि लक्ष्मीप्रिया देवी ने अपने इस पुत्र को दीर्घजीवी होने के लिए एक मुठ्ठी खुद्दी (चावल का छोटा छोटा टुकडा) के बदले उनकी बहन अपरुपा देवी को सौंपी दिया था और इस तरह उनका नाम खुदीराम पड़ा। जीवन की कठिनाइयों और समाज में व्याप्त क्रूरताओं ने उन्हें विद्रोही बना दिया।

प्रसिद्ध क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बसु के सान्निध्य का ही प्रभाव रहा खुदीराम के हृदय में देशप्रेम की भावना जाग्रत हुई और आजादी के लिए उन्होंने खुद को समर्पित कर दिया। वैसे तो बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत 19वीं सदी के छठे और सातवें दशक से होती है । लेकिन 20वीं सदी के आरम्भ से ही इसमें उफान  आ गया। अनुशीलन समिति का गठन क्रांतिकारी आंदोलन की  दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कहा जाता है। प्रमथ मित्र इस समिति के अध्यक्ष बनाए गये। सिस्टर निवेदिता ने इस समिति को यूरोपीय क्रांतिकारी साहित्य भेंट कर इस समिति को वैचारिक रूप से काफी समृद्ध और सम्पन्न बना दिया। अरविन्द घोष और चितरंजन दास, सुरेन्द्रनाथ टैगोर, सत्येन्द्रनाथ बसु, रासबिहारी बोस, आदि युवाक्रांतिकारी इस समिति में शामिल हुए। देखते देखते इस समिति का कलकत्ता समेत आसपास के इलाके में सघन जाल फैल गया। क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ बसु की नजर में खुदीराम की देशभक्ति और क्रांति के प्रति उनका समर्पण भाव छिपा नहीं रह सका। उन्होंने किशोर खुदीराम को अपनी अनुशीलन समिति में शामिल कर लिया। उस समय किंग्सफोर्ड कलकत्ता का प्रेसिडेसी मैजिस्ट्रेट हुआ करता था। वह राष्ट्रवादी नेताओं,  क्रांतिकारियों को कठोर दंड देने के लिए कुख्यात माना जाता था। क्रांतिकारी संगठन युगांतर ने इस मैजिस्ट्रेट के लिए मौत का फरमान जारी कर दिया था।

1200 पन्नों वाली एक किताब के 600 पन्ने काट कर उसके भीतर इस तरह बम रख कर पार्सल से किंग्सफोर्ड को भेजा गया कि उसे खोलते ही बम विस्फोट कर जाएगा और किंग्सफोर्ड मारा जाए। दुर्भाग्यवश वैसा हुआ नहीं। किंग्सफोर्ड ने उस पार्सल को छुआ तक नहीं, अपनी मेज पर अलग रखवा दिया । इस घटना के बाद क्रांतिकारियों के सम्भावित हमले को देखते हुए किंग्सफोर्ड का तबादला मुजफ्फरपुर कर दिया गया। क्रांतिकारियों ने एक बार फिर उसके मारने की योजना बनाई ।इसबार यह काम मिदनापुर के खुदीराम बोस और रंगपुर के प्रफुल्ल चाकी को सौंपा गया । मचंद्र कानूनगो द्वारा निर्मित बम तथा पिस्तौल देकर उन दोनों को मुजफ्फरपुर के लिए रवाना किया गया। खुदीराम और प्रफुल्ल दोनों क्रांतिकारी कलकत्ता से मुजफ्फरपुर आ गये। एक धर्मशाला में ठहरे और किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर पैनी निगाह रखने लगे।

दोनों क्रांतिकारियों ने तय किया कि किंग्सफोर्ड को घर से क्लब जाने के रास्ते मे मारा जाए। तब किंग्सफोर्ड नियमित रूप से यूरोपियन क्लब (अब मुजफ्फरपुर क्लब) जाया करता था। 30 अप्रैल,1908 की शाम दोनों देशभक्त क्रांतिकारी अपने मिशन को अंजाम देने के लिए क्लब के बाहर मुख्य सड़क के किनारे एक पेड के नीचे मुस्तैद हो गये। आठ बजे संध्या क्लब से विक्टोरियन बग्घी बाहर निकलती है। यह बग्घी किंग्सफोर्ड की ही थी। ज्यों ही बग्घी पेंड के पास पहुंची, एक जोरदार विस्फोट हुआ । लक्ष्य सटीक बैठा और बग्घी के परखचे उड गये। मिशन पूरा हुआ और दोनों क्रांतिकारी दो दिशा मे भागे। खुदीराम रेलवे लाईन पकड़ कर पूरब दिशा मे पैदल बढ़ने लगे। इधर बम विस्फोट की खबर चारों ओर जंगल में आग की तरह फैल गयी। लेकिन ‘किंग्सफोर्ड बच गया क्योंकि बग्घी में वो मौजूद नहीं था । बग्घी में बैरिस्टर कैनेडी की पत्नी और बेटी थी और दोनों मौके पर मारी गयीं। किंग्सफोर्ड क्लब में रुकने की वजह से बच गया ।

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उधर खुदीराम पैदल चलते हुए वैनी (पूसारोड स्टेशन ) पहुंचे । सुबह हो चुकी थी। चाय की तलब हुई। एक दुकान पर रुके तो वहां चर्चा हो रही थी कि कल मुजफ्फरपुर बम कांड में दो महिलाएं मारी गयीं। खुदीराम के मुंह से अचानक निकल पड़ा क्या ? किंग्सफोर्ड बच गया ? दो निर्दोष महिलाएं मारी गयी ? ‘ बस वहां सादे लिवास में पहले से पुलिस तैनात तो थी ही और क्रांतिकारियों का जो हुलिया प्रचारित किया गया था वह खुदीराम से मिलता-जुलता था । वे गिरफ्तार कर लिए गये। वह 1 मई 1908 का दिन था । उधर खुदीराम के साथी प्रफुल्ल चाकी मौके से तो भाग निकले और समस्तीपुर से ट्रेन में सवार हुए तभी ट्रेन में मौजूद एक पुलिस कर्मी ने मोकामा पुलिस को सूचना दे दी । मोकामा स्टेशन पर पर चारों से से पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मारकर जान दे दी । अंग्रेज सिपाहियों ने प्रफुल्ल चाकी का सिर काटकर अदालत में पेश किया । अंग्रेज शासन की ये जघन्यतम घटनाओं में से एक है ।

21 मई 1908 को मुजफ्फरपुर के सत्र न्यायालय में मुकदमा दायर हुआ। 8 जून को मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई और मात्र 5 दिनों के अंदर 13 जून 1908 को फांसी की सजा सुना दी गयी। फांसी की सजा सुनाने के दौरान कठघरे में खड़े खुदीराम के निर्विकार चेहरे को देख जज को भ्रम हुआ था कि शायद इस लडके ने फांसी का मतलब नहीं समझा है, उसने पूछा था ‘सजा समझ ली?  ‘इस पर खुदीराम ने कहा-‘ हां, समझ लिया।’ 6 जुलाई को इस फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट मे अपील हुई। 13 जुलाई को हाईकोर्ट ने फांसी की सजा बहाल रखने का आदेश दिया। 11 अगस्त1908 की सुबह मुजफ्फरपुर केन्द्रीय कारा में इस महान क्रांतिकारी को फांसी दे दी गयी।


ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।