दंगों का दर्द और इंसाफ की धीमी रफ्तार

दंगों का दर्द और इंसाफ की धीमी रफ्तार

उर्मिलेश जी के फेसबुक वॉल से साभार/न्याय के लिए अगर 34 साल का लंबा इंतजार करना हो तो उस न्याय का समाज और सियासत पर क्या और कितना असर पड़ेगा। 1984 के सिख-विरोधी दंगे में कांग्रेस नेता सहित कुछ दोषियों को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा कड़ी सजा सुनाई गई। यह जरूरी फैसला लंबे और दुखदायी इंतजार के बाद आया है। हमने दिल्ली के सिख विरोधी दंगे को अपनी आंखों से देखा। उन दिनों मैं विकासपुरी के एक ब्लाक में रहता था। निस्संदेह, कुछ कांग्रेसी और अन्य दलों से जुड़े हिंदुत्ववादी नेताओं ने उन दंगों को प्रायोजित किया और भड़काया। 
माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले में गुजरात, मुंबई, कंधमाल और मुजफ्फरनगर के दंगों का भी उल्लेख किया गया है। पर कौन नहीं जानता कि गुजरात के दंगाइयों-हत्यारों और उनके शक्तिशाली संरक्षकों के विरुद्ध न्याय का चक्र कहां और कैसे थम गया।
अगर दंगों के दोषियों को तीन-तीन दशक बाद सजा मिलेगी तो दंगाई मानसिकता का विस्तार कैसे थमेगा। सन् 1984 के दंगाइयों को अगर सन् 1986-87 तक सजा मिल गई होती तो क्या सन् 1993, 2002 या  2013 के दंगाइयों को इतने सारे लोगों की नृशंस हत्या करने या कराने का दुस्साहस होता। 
सच ये है कि भारत की न्यायपालिका और सियासत ने सांप्रदायिकता जैसे अपराध के खिलाफ वह दृढ़ता नहीं दिखाई, जिसकी दरकार थी। इसी वजह से आजादी और साथ में हुए देश-विभाजन के बाद से ही दंगाई मानसिकता और सांप्रदायिकता का जहर फैलता गया है।संसद में क्यों नहीं यह कानून बनता कि दंगे जैसे मनुष्यता-विरोधी घिनौने अपराध के लिए दोषियों को महज एक या दो साल के अंदर सजा देने का प्रावधान हो।

उर्मिलेश/ वरिष्ठ पत्रकार और लेखक । पत्रकारिता में करीब तीन दशक से ज्यादा का अनुभव। ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘हिन्दुस्तान’ में लंबे समय तक जुड़े रहे। राज्यसभा टीवी के कार्यकारी संपादक रह चुके हैं। दिन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता करने में मशगुल