देश को पूंजीवाद विरोधी किसान आंदोलन की जरूरत-सहजानंद सरस्वती

देश को पूंजीवाद विरोधी किसान आंदोलन की जरूरत-सहजानंद सरस्वती

ब्रह्मानंद ठाकुर
आज से 130 साल पहले उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के देवा गांव में 22 फरवरी , 1889 को महा शिवरात्रि के दिन एक साधारण किसान बेनी राय के घर एक बालक पैदा हुआ । माता-पिता ने बड़े प्यार से इस बालक का नाम रखा- नौरंग राय । तब कौन जानता था कि यह नन्हा बालक आगे चलकर अपने जीवन में नये-नये रंगों को साकार करेगा । बालक नौरंग राय जब तीन साल के हुए तो मां का निधन हो गया । संयुक्त परिवार था सो चाची ने मां का दायित्व सम्भाला । 9 वें वर्ष में जलालाबाद के मदरसे में नामांकन पिता ने करा दिया। फिर 12 वर्ष की उम्र में लोअर और अपर की 6 वर्ष की शिक्षा तीन वर्ष में ही पूरी कर ली।

1904 में मिडल की परीक्षा में पूरे उत्तरप्रदेश में छठा स्थान प्राप्त कर अपनी मेधा का परिचय दिया। सरकार की ओर से छात्रवृत्ति स्वीकृत हो गई । इसी बीच 1905 में पिता ने अपने इस पुत्र में वैराग्य का लक्षण देखा और मात्र 16 वर्ष की उम्र में इनका वह वाह करा दिया । आखिर नियति को जो मंजूर था वही हुआ। शादी का एक साल पूरा होते-होते 1906 में एक दिन नौरंग राय की पत्नी स्वर्ग सिधार गई। किशोर नौरंग राय के पग वैराग्य के पथ पर बढ़ गये। एक दिन चुपचाप घर से निकल पहुंच गये काशी। 1907 में पहली बार इस किशोर ने स्वामी अच्युतानन्द से दीक्षा ली । दंड ग्रहण किया और बन गये स्वामी सहजानन्द सरस्वती और निकल पड़े मानव मुक्ति की राह तलाश करने। जन्म और जरा-मरण से मुक्ति नहीं, शोषण-उत्पीड़न, अन्याय-अत्याचार से धरापुत्र किसानों-मजदूरों की मुक्ति की तलाश में। स्वतंत्रता सेनानी , सन्यासी, किसान नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती का सम्पूर्ण जीवन इसी किसान आंदोलन के लिए समर्पित रहा।महा शिवरात्रि पर उनको याद करते हुए उनकी विचारधारा पर गौर करना आवश्यक है।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती को गुजरे हुए 69 बर्ष बीत गये लेकिन देश के किसानों की बेहतरी के लिए व्यवस्था परिवर्तन का उन्होंने जो आंदोलन शुरू किया था, वह अपने लक्ष्य से भटक गया। किसानों की दशा दिन प्रति दिन बद से बदतर होती गई। ऐसा नहीं कि इस 69 बर्षों की लम्बी अवधि में किसानों के हित के उद्देश्य से कोई आंदोलन नहीं हुए। आंदोलन अवश्य हुए और हो भी रहे हैं लेकिन उसका लाभ किसे मिल रहा है ? सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल और उसकी विरोधी पार्टियां किसानों के हित का राग अलापती हुई आखिर क्यों एक पर एक किसान विरोधी नीतियां ही अपनाती जा रही हैं? वर्तमान संदर्भों में यदि इसे समझना है तो स्वामी सहजानन्द सरस्वती के किसान आंदोलन सम्बंधी विचारधारा को समझना होगा। उसी के आधार पर जाति, धर्म, लिंग और सम्प्रदाय की भावना से हटकर खुद में वर्ग चेतना जागृत करते हुए व्यवस्था परिवर्तन होने तक किसान-मजदूरों की राजसत्ता कायम होने तक किसान-मजदूरों का एकजुट, सशक्त आंदोलन जारी रखना होगा। आज एक जाति विशेष के लोग स्वामी जी को अपनी जाति का बता कर उनकी जन्म तिथि और पुण्यतिथि पर अनेक भव्य कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। ऐसा इसलिए कि उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत भूमिहार ब्राह्मण सभा से हुई थी। 1914 में उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण महासभा का गठन किया था। 1915 मे ‘ भूमिहार ब्राह्मण ‘ पत्र का प्रकाशन शुरू किया। इस पर पुस्तकें लिखीं। तब वे सक्रिय राजनीति में नहीं आए थे।

राजनीति में वे तब आए जब 1920 में 5 दिसम्बर को पटना में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। यहीं से उनका राजनीति में प्रवेश हुआ। असहयोग आंदोलन में सक्रिय हुए और जेल गये। यह सब करते हुए उन्होंने स्थितियों को बारीकी से समझा और 1929 मे भूमिहार ब्राह्मण महासभा को भंग कर बिहार प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की और उसके प्रथम अध्यक्ष बनाए गये। यहीं से शुरू हुआ उनका किसान आंदोलन। अपने स्वजातीय जमींदारों के खिलाफ भी उन्होंने आंदोलन का शंखनाद किया। सचमुच जो मसीहा होते हैं वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय और लैंगिग भेद-भाव से ऊपर होते हैं। स्वामी जी को जातीय सांचे मे ढाल कर देखने-समझने वाले लोग शायद इस वास्तविकता को नहीं समझ पाए या जानबूझ कर उसे नजर अंदाज कर दिया। स्वामी जी का मानना था कि यदि हम किसानों, मजदूरों और शोषितों के हाथ में शासन का सूत्र लाना चाहते हैं तो इसके लिए क्रांति आवश्यक है। क्रांति से उनका तात्पर्य। व्यवस्था परिवर्तन से था। शोषितों का राज्य क्रांति के बिना सम्भव नहीं और क्रांति के लिए राजनीतिक शिक्षण जरूरी है। किसान-मजदूरों को राजनीतिक रूप से सचेत करने की जरूरत है ताकि व्यवस्था परिवर्तन हेतु आंदोलन के दौरान वे अपने वर्ग दुश्मन की पहचान कर सकें। इसके लिए उन्हें वर्ग चेतना से लैस होना होगा। यह काम राजनीतिक शिक्षण के बिना सम्भव नहीं।

हजारीबाग केन्द्रीय कारा में रहते हुए उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘किसान क्या करें। ‘ इस पुस्तक में अलग अलग शीर्षक से 7 अध्याय हैं 1. खाना-पीना सीखें, 2. आदमी की जिंदगी जीना सीखें 3.हिसाब करें और हिसाब मांगें, 4.डरना छोड दें, 5. लडें और लड़ना सीखें, 6. भाग्य और भगवान पर मत भूलें और 7. वर्गचेतना प्राप्त करें। (स्वामी सहजानन्द और उनका किसान आंदोलन ले. अवधेश प्रधान ,नयी किताब प्रकाशन )

स्वामी जी ने बड़ी गम्भीरता से देखा है कि किसानों की हाड़-तोड मेहनत का फल किस तरह से जमींदार, साहूकार, बनिए-महाजन,पंडा-पुरोहित, साधु-फकीर, ओझा-गुणी, चूहे यहां तक कि कीड़े-मकोड़े और पशु -पक्षी तक गटक जाते हैं। वे अपनी किताब में बड़ी सरलता से इन स्थितियों को दर्शाते हुए किसानों से सवाल करते हैं कि क्या उन्होंने कभी सोंचा है कि वे जो उत्पादन करते हैं,उस पर पहला हक उनके बाल-बच्चे और परिवार का है ? उन्हें इस स्थिति से मुक्त होना पड़ेगा। जाहिर है पूरी व्यवस्था किसानों एवं उसके परिवार वालों को भूखे-नंगे रखने को कृतसंकल्पित है ताकि वह निरुपाय होकर उसके ऐशो आराम का सरंजाम जुटाने में खुद को उत्सर्ग कर दे। लेकिन जीवन का उद्देश्य सिर्फ खाना-पीना ही नहीं है। इतना तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। वे कहते हैं कि जीवन का उद्देश्य होना चाहिए स्वाभिमान के साथ जीना और आत्म सम्मान बनाए रखना। ‘किसान यदि अपने को आदमी समझेगा तभी आदमी की तरह जी सकेगा और यही चाह उसे मानवोचित अधिकार हासिल करने के लिए आवाज उठाने को प्रेरित करेगी। यह चाह हर हाल में पैदा करनी होगी।

हमारे देश में आजादी के बाद से आज तक किसानों की दशा लगातार बद से बदतर होती गई है। खेती-किसानी के अलाभकर हो जाने से लाखों की संख्या में किसान खेती से विस्थापित हो कर महानगरों की ओर पलायन कर चुके हैं। यह सिलसिला लगातार जारी है। दूसरी ओर पूंजीवादी राजसत्ता सम्पोषित पूंजीपतियों का मुनाफा आसमान की बुलंदी छू रहा है। किसानों की आवाज संगीनो के बल पर दबाई जा रही है। यह स्थिति आजादी के 70 सालो बाद भी जारी है। इस ओर अगाह करते हुए स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने काफी पहले अविराम संघर्ष का उद्घोष करते हुए कहा था कि यह लड़ाई तबतक जारी रहना चाहिए जबतक शोषक राजसत्ता का खात्मा न हो जाए। इस लड़ाई मे नारी शक्ति को भी शामिल करने के वे पक्षधर थे। वे किसान आंदोलन और जनांदोलन की सबसे बड़ी बाधा भाग्य और भगवान को मानते थे। उन्होंने कर्मकांड, धार्मिक आस्था और अंधविश्वास को किसानों की मुक्ति की राह मे बड़ी बाधा मानते हुए सबसे पहले इन प्रवृतियों से मुक्त होने पर बल दिया ।
‘किसान क्या करे ‘ पुस्तक में एक जगह वे लिखते हैं – ‘वंश परम्परा, कर्म, तकदीर, भाग्य और पूर्व जन्म की कमाई जैसी होगी,उसी के अनुसार सुख-दुख मिलेगा, चाहे हजार कोशिश की जाए। भाग्य और भगवान की फिलासफी और कबीर की कथनी ने उन्हें इस कदर अकर्मण्य बना दिया है कि सारी दलीलें और सब समझाना-बुझाना बेकार है। इस तरह शासकों और शोषकों ने,धनियो और अधिकारियों ने एक ऐसा जादू उनपर चलाया है कि कुछ पूछिए मत।वे लोग मौज करते, हलवा- पूड़ी उड़ाते हैं। मोटरों पर चलते हैंऔर महल सजाते हैं, हालाकि खुद कुछ कमाते-धमाते नहीं।खूबी तो यह है कि यह सब भगवान की ही मर्जी है। वह ऐसा भगवान है जो हाथ धरे कोढियों की तरह बैठने वाले, मुफ्तखोरों को माल चखाता है। मगर दिन- रात कमाते – कमाते पस्त किसानो को भूखो मारता है । ”

आज पूंजीवादी शोषणमूलक राजसत्ता के मैनेजर विभिन्न राजनीतिक दल जिसतरह से किसानों की समस्याओं पर घडियाली आंसू बहते हुए किसान मुक्ति आंदोलन को लक्ष्य से भटकाने का काम कर रहे हैं उसे देखते हुए स्वामी सहजानन्द सरस्वती के किसान आंदोलन सम्बंधी विचारों से प्रेरणा लेकर पूंजीवाद विरोधी समाजवादी आंदोलन को मुकाम तक पहुंचाने की जरूरत है। यही भारतीय किसान आंदोलन के महान योद्धा स्वामी सहजानन्द सरस्वती के प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।