सांप्रदायिकता सरकार का सबसे बड़ा अस्त्र है- प्रेमचंद

सांप्रदायिकता सरकार का सबसे बड़ा अस्त्र है- प्रेमचंद

डा. सुधांशु कुमार

कथा-सम्राट प्रेमचंद

हिंदी कथा साहित्य को ‘तिलस्म’ और ‘ऐय्यारी’ के खंडहर व अंधेरी गुफा से निकालकर जनसामान्य के दुख-दर्द और यथार्थ से जोड़ने वाले कथासम्राट प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं , जितने बीसवीं शताब्दी में ! इसे भारतीय राजनीति , समाज , और लोकतंत्र का दुर्भाग्य माना जाय , या प्रेमचंद के लिए सौभाग्य , यह द्वंद्व-केन्द्रित है । प्रेमचंद की कहानियों व उपन्यासों के पात्र आज भी हमारे आसपास एवं हममें किसी न किसी रूप में जीवंत हैं । स्वतंत्र भारत में भी होरी कर्ज में जन्म लेता है , कर्ज में जीता है और कर्ज में ही मर जाता है । आज भी होरी के ही जर्जर कंधे पर भारतीय संस्कृति , संस्कार और परंपराओं के निर्वाह का महत् दायित्व है। उसकी स्थिति आज गुलाम भारत से भी बदतर हो चुकी है!

प्रेमचंद-जयंती पर विशेष

गोदान के होरी ने आजीवन बड़ी ही जीवटता के साथ मुसीबतों का सामना किया था , किंतु आज के होरी की मुसीबतें इतनी बढ़ चुकी है कि वे आत्महत्या जैसी हृदय विदारक राह पर चल निकले हैं । हल्कू की बेचैनी भी कम नहीं हुई है । आज उसकी फसलें सिर्फ नील गायों की शिकार ही नहीं हो रही हैं , बल्कि लुटेरी बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां भी उसे दोनों हाथों से लूट रही हैं । सेठ साहूकार से महंगे बीज , खाद , पानी और जोताई के लिए ऊंची दर पर वह कर्ज लेकर , दिन-रात खून पसीना एक कर , फसल बोता है …उसकी हरियाली देख , उसके सपनों में पंख लगते हैं , लेकिन जब उसकी बालियों में दाने नहीं आते तो उसके पैरों तले जमीन खिसक जाती है । वह लुट चुका होता है । बात यहीं समाप्त नहीं होती , अब बारी आती है बिचौलियों की , वे भी फसल बीमा के नाम पर कम नहीं लूटते । परिणामतः प्रेमचंद का होरी और हल्कू आज भी कर्ज में जन्म लेता है , कर्ज में ही जीता और कर्ज में ही मर जाता है।

प्रेमचंद ने नारी समस्या पर केन्द्रित जो उपन्यास और कहानियां लिखी हैं , वे अब भी उतनी ही प्रासंगिक हैं , जितनी तब । हमारे समाज में लिंग-भेद की समस्याएं आज भी कमतर नहीं हुई हैं । प्रेमचंद की निर्मला के जीवन को आज भी ‘दहेज का दानव’ निगल रहा है । यही कारण है कि उसकी शादी पिता की उम्र के ‘तोताराम’ से कर दी जाती है । उसके संबंध में वह लिखते हैं -” निर्मला की दशा उस पंखहीन पक्षी की तरह हो रही थी जो सर्प को अपनी ओर आते देखकर उड़ना चाहता है , पर उड़ नहीं सकता । उछलता है और गिर पड़ता है , पंख फड़फड़ाकर रह जाता है । ” उड़ने की चाह और फड़फड़ा कर रह जाना , यह मानो भारतीय नारी का युगधर्म बन चुका है । आगे वह लिखते हैं कि ‘दहेज का दानव उसकी पूरी जिंदगी को निगल गया ‘ लेकिन आज स्थिति उससे कहीं अधिक भयावह है ! अब यदि पता भी चल जाय कि कोख में पलने वाली निर्मला है , तो उस कोख को ही उसकी कब्र बना दिया जाता है और यदि किसी तरह से वह पैदा भी हो गयी , तो लोग पूछते हैं कि ‘बोल चंपुआ के माई का भईल ? …त का भईल मुंहझौंसी बिटिया हो गईल ।’ उसके बाद उसका पौष्टिक आहार बंद ! अगर किसी तरह से वह बड़ी हो भी गई तो बाप बेचारा जमीन बेचकर , सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर , खेत गिरवी रखकर , अपनी बेटी की झोली में संपूर्ण जीवन का खून पसीना डालकर विदा करता है …परिणाम यह निकलता है कि उसके हाथ की मेंहदी भी नहीं छूटती , ससूराल छूट जाता है। वह ससुराल से निकल कर या तो सेवासदन की सुमन की तरह वेश्यावृत्ति के नर्क में धकेल दी जाती है या फंदे पर लटकने को मजबूर कर दी जाती है । निष्कर्षत: आज भी कोख से लेकर कब्र तक नारियों के साथ होने वाले अत्याचार में कमी नहीं आयी है ।

प्रेमचंद ने चुनावी तिकड़म और राजनीतिक विद्रूपताओं को भी बड़ी ही बारीकी के साथ उकेरा है । प्रेमचंद के समय जो चुनावी दांवपेच और छलछंद का धंधा चल पड़ा था , वह आज और वीभत्स रूप धारण कर लोकतंत्र को ठेंगा दिखा रहा है ! गोदान में वह लिखते हैं -” अबकी बार चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे …यह जनता की आंखों में धूल झोंकने का अच्छा स्वांग है। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं , वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों , जमींदारों का राज है ..।” इसी संदर्भ को आगे बढ़ाते हुए वो वह ‘विविध प्रसंग’ , वाल्यूम – दो , पृष्ठ संख्या चार सौ चार में लिखते हैं कि -“यह सारी लड़ाई मुट्ठीभर आदमियों की है जो ओहदे और मेंबरियों के लिए एक दूसरे को नोच रहे हैं । इस समुदाय से अलग जो राष्ट्र है , वहां न कोई हिंदू है , न मुसलमान , वहां सब किसान हैं या मजदूर , जो एक से एक दरिद्र हैं , एक से एक पिसे हुए , एक से एक दलित हैं । आरती और नमाज , हिंदी और ऊर्दू की समस्याएं वहां नहीं हैं ।

प्रेमचंद ने राजनीति की चक्की में पिसते हुए और पेट के भूगोल में उलझे हुए आम आदमी के दर्द को अत्यंत ही करीब से देखा और अपनी कथाओं में उसे सहजता के साथ रखा जिसके कारण बड़ी ही आसानी से पाठकों की संवेदना का साधारणीकरण उसमें हो जाता है । आज जिस प्रकार चुनाव आते – आते हैं और जनता की मूलभूत समस्याएं नेपथ्य में चली जाती हैं और प्रायोजित , जातिवाद , क्षेत्रवाद , भाषा और सांप्रदायिकता का जहर बो कर उसकी चुनावी फसलें काटी जाती हैं यह भारतीय लोकतंत्र के लिए किसी विषवृक्ष से कम नहीं । नेता भी भली भांति समझ चुके हैं कि इससे अचूक अस्त्र दूसरा कोई नहीं । 1933 ई. में प्रेमचंद लिखते हैं –” सांप्रदायिकता सरकार का सबसे बड़ा अस्त्र है और वह आखिरी दम तक इस हथियार को अपने हाथ से न छोड़ेगी । सरकार (अंग्रेज ) ने भारत में सांप्रदायिकता का बीज जो बो दिया है , किसी दिन इस वृक्ष का फल भारत और भारतीय सरकार दोनों के लिए घातक सिद्ध होगा ।

प्रेमचंद के शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने आजादी से पूर्व । स्वतंत्रता के बाद से ही जिस प्रकार जाति , भाषा , क्षेत्र और सांप्रदायिकता का जहर बोया जाता रहा वह अब विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर चुका है जिसके कारण विश्व की सबसे समृद्ध लोकतांत्रिक संस्कृति की पौध कुंठित हो चुकी है । आज तक जितनी भी सरकारें आयी हैं सबने अपने अपने तरीकों से उस विषवृक्ष को सींचने का ही कार्य किया है । यही कारण है कि प्रेमचंद के अक्षर- अक्षर आज भी प्रासंगिक हैं । यदि कुछ प्रासंगिक नहीं है तो प्रेमचंद द्वारा देखा गया वह सपना जिसमें चुनाव जातिगत आधार पर नहीं बल्कि जनप्रतिनिधियों की योग्यता व जनता की मूलभूत समस्याओं को केंन्द्र में रखकर लड़ें जाएं । जिस देश में श्रमिकों का सम्मान हो । जहां कोई भी सुमन वेश्या बनने को बाध्य न हो ,और संपूर्ण देश को रोटी खिलाने वाला किसान जहर खाने को मजबूर न हो । इन विषम परिस्थितियों में प्रेमचंद अपने समय में जितने प्रासंगिक थे , आज उससे कहीं अधिक प्रासंगिक हैं । यह भारतवर्ष का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य यह आप पाठकों पर छोड़ते हूए बीसवीं सदी के सबसे बड़े और महान कथासम्राट को उनकी जयंती के अवसर पर उत्तर छायावाद के महाकवि रामइकबाल सिंह राकेश -जिनकी कविताओं पर प्रेमचंद विशेष तौर पर मुग्ध रहते और अपनी पत्रिका ‘हंस’ में अक्सर प्रकाशित करते – की इन पंक्तियों के साथ कोटिशः नमन –

‘अभी खतम हुई नहीं डरावनी महानिशा
अभी क्षितिज विवर्ण है सशंक है दिशा-दिशा
पशुत्व छद्मवेश में पिशाच नृत्य कर रहा
सदर्प न्याय दुर्ग पर दुखांत चोट कर रहा
बिसार बुद्धि चेतना सभीत काल से विषम
उगल रही वसुंधरा विषाद-विष गरम-गरम


डॉ सुधांशु कुमार- लेखक सिमुलतला आवासीय विद्यालय में अध्यापक हैं। भदई, मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी। मोबाइल नंबर- 7979862250 पर आप इनसे संपर्क कर सकते हैं। आपका व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘नारद कमीशन’ प्रकाशन की अंतिम प्रक्रिया में है।