‘क्षिप्रा’ और ‘नर्मदा’… नदियों के ‘जबरिया मिलन’ की अंतर्कथा

नर्मदा 2शिरीष खरे

इंदौर जिले का उज्जैनी गांव 29 नवंबर, 2012 को एक ऐतिहासिक फैसले का गवाह बना था। ये वही दिन है जब सीएम शिवराज सिंह चौहान ने बड़ी धूमधाम से नर्मदा नदी को क्षिप्रा से जोड़ने की एक बड़ी योजना का शिलान्यास किया था। यानी नर्मदा के पानी से क्षिप्रा नदी की पुरानी रवानी लौटाने की घोषणा की और जल संकट से घिरे सूबे के पश्चिमी अंचल मालवा को हरा-भरा बनाने का भी सपना दिखाया । उनका दावा था कि मालवा के सैकड़ों गांवों को रेगिस्तान बनने से बचाने के लिए उन्होंने योजना को तेजी से अमली जामा पहनाना शुरू कर दिया है और इसी के चलते अगले एक साल में नर्मदा मैया क्षिप्रा मैया से मिलने आ जाएंगी। पिछले चार साल में योजना का सारा काम पूरा भी हो चुका है, लेकिन हकीकत यह है कि करीब एक महीने तक चले सिंहस्थ कुंभ आयोजन को छोड़ दिया जाए तो नर्मदा का पानी क्षिप्रा में बहाया नहीं जा रहा है। वजह है कि इस योजना को यदि साल भर भी चलाया गया तो संचालन पर करीब साढ़े पांच सौ रुपए का खर्च आएगा। यह पूरी योजना ही करीब 450 करोड़ रुपये की है।

योजना कितनी जटिल और खर्चीली 

योजना के मुताबिक क्षिप्रा को सदानीरा बनाये रखने के लिए उससे काफी नीचे स्थित नर्मदा के पानी को काफी ऊंचाई पर चढ़ाया और फिर उसे क्षिप्रा में डाला जाता रहेगा। जिसके लिए 50 किलोमीटर लंबी पाईपलाइन बनाई गई है। नर्मदा के पानी को नर्मदा की घाटी से मालवा के पठार तक ले जाने के लिए तकरीबन 550 मीटर की ऊंचाई तक चढ़ाया जाना है। जानकारों के मुताबिक एक नदी के बहाव को इस ऊंचाई तक खींचने के मामले में यह एक बहुत बड़ा फासला है। इतने ऊंचे फासले को पाटने के लिए इस योजना में भारी मात्रा में बिजली की खपत होगी। इसके लिए 2 स्थानों पर पंपिंग स्टेशन बनाए गए हैं, अब नर्मदा की धारा को अनवरत पठार तक पहुंचाने के लिए इन पंपिंग स्टेशनों को हमेशा चालू हालत में भी रखना पड़ेगा। यानी क्षिप्रा को 24 घंटे जिंदा रखने के लिए भारी मात्रा में नर्मदा का पानी डालते रहना अपने आप ही दर्शाता है कि यह योजना कितनी जटिल और खर्चीली है।

पानी हमेशा गुरूत्वाकर्षण के अनुरुप बहता है। फिर भी एमपी की सियासत में नर्मदा के पानी को गुरूत्वाकर्षण के सर्वमान्य सिद्धांत के खिलाफ बहाने का दावा किया जा रहा है। इस सपने को साकार करने के लिए पैसा, मशीनरी, समय और श्रम की बेहिसाब बर्बादी को देखते हुए इसे अक्लमंदी वाली जद्दोजहद नहीं कहा जा सकता। इसलिए नदी-जोड़ समर्थक कई विशेषज्ञ भी इस योजना के पक्ष में नहीं दिखते। इस बारे में उनकी साफ राय है कि भौगोलिक नजरिए से नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ना अपने आप में एकदम उलटी कवायद है।

नर्मदाइस योजना के निर्माण से जुड़े कामों के लिए जिम्मेदार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के सूत्र बताते हैं कि नर्मदा का पानी पठार तक पहुंचाने में कुल 36 रूपये प्रति हजार लीटर का खर्च आएगा। जाहिर है कि बिजली से चलने वाली मशीनों को रात-दिन चलाते हुए नर्मदा नदी का पानी चढ़ाना किस हद तक खर्चीला है। इसके तहत हर दिन तीन लाख 60 हजार घनमीटर पानी नर्मदा से क्षिप्रा में डालकर बहाया जाना है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस पूरी कवायद में रोजाना किस हद तक बिजली फूंकी जानी है। जानकारों की राय में आगे जाकर बिजली की कीमत बढ़ेगी और इसी नजरिए से यह योजना ठीक नहीं कही जा सकती। जल क्षेत्र में शोध से जुड़ी संस्था ‘मंथन अध्ययन केंद्र, बड़वानी’ के रहमत के मुताबिक, ‘क्षिप्रा सहित मालवा की तमाम नदियां यदि सूखीं तो इसलिए कि औद्योगिकीकरण के नाम पर इस इलाके में जंगलों की सबसे ज्यादा कटाई हुई और उसके चलते नदियों की जलग्रहण क्षमता कम होती गई। कायदे से मालवा की नदियों को जिंदा करने के लिए उनके जलग्रहण क्षेत्र में सुधार लाने की जरूरत थी, लेकिन इसके उलट अब दूसरे अंचल की नदी का पानी उधार लेकर यहां की नदियों को जीवनदायनी ठहराने की परिपाटी डाली जा रही है। सवाल है कि उधार के पानी से क्षिप्रा जैसी बड़ी नदियों को कब तक जिंदा रखा जा सकता है।

नर्मदा का क्या होगा?

नदी-जोड़ योजना का एक आम सिद्धांत है कि किसी दानदाता नदी का पानी ग्रहणदाता नदी में तभी डाला जा सकता है जब दानदाता नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकताओं से ज्यादा पानी उपलब्ध हो। सवाल है कि क्या नर्मदा में पेयजल, खेती और उद्योगों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकता से ज्यादा पानी उपलब्ध है? ‘वाशिंगटन डीसी के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट’ के मुताबिक नर्मदा दुनिया की 6 सबसे संकटग्रस्त नदियों में शामिल है। ‘केंद्रीय जल आयोग’ के मुताबिक बीते सालों में नर्मदा में पानी की आपूर्ति आधी रह गई है, जबकि 2026 तक नर्मदा घाटी की आबादी 5 करोड़ हो जाएगी और ऐसे में यहां पानी जैसे संसाधनों पर भारी दवाब पड़ेगा। योजना को लेकर जल वैज्ञानिक केजी व्यास का मानना है, ‘नर्मदा का पानी जिस जगह से उठाया जाएगा उसके बारे में यह नहीं बताया गया है कि वहां लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उससे अधिक पानी उपलब्ध है भी या नहीं?’

नर्मदा नदी को मालवा की जीवनरेखा बनाने की पहल नई नहीं है। साल 2002 में सूबे की तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने जरूरत से ज्यादा बिजली खर्च होने की दलील देकर ऐसी योजना को खारिज कर दिया था  जबकि विधानसभा चुनाव के समय मुख्यमंत्री चौहान का कहना था, ‘मालवा में नर्मदा का पानी लाने के लिए एक लाख करोड़ रूपये भी खर्च करने पड़े तो हंसते-हंसते खर्च किये जाएंगे लेकिन भारत में कावेरी नदी के विवाद के बाद कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच पनपी पानी की लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं लेती। लिहाजा अब यह सियासतदानों को सोचना है कि वे निमाड़ और मालवा इलाके की नदियों के पानी के साथ क्या खेल खेलेंगे ?


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति राजस्थान पत्रिका के लिए रायपुर से रिपोर्टिंग कर रहे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।


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