गांवों में ‘खाट की लूट’ का महंगाई कनेक्शन

गांवों में ‘खाट की लूट’ का महंगाई कनेक्शन

नरेंद्र अनिकेत

modi-manmohanकुछ साल पहले देश में एक सरकार हुआ करती थी। अब वह सरकार इतिहास में समा गई है। उस सरकार के समय एक बार भोजन महंगा होने के सवाल पर खूब हंगामा हुआ था। सरकारी लोग बता रहे थे कि दिल्‍ली में पांच रुपये में भी खाना मिल जाता है। जगह भी बताई जा रही थी जामा मस्जिद के सामने। लाइट कैमरा एक्‍श्‍न पर ऐसे नेताओं और उनके समर्थकों की खूब खरी-खोटी की गई थी। लोगों को तब बड़ा गुस्‍सा आया था कि एक ओर खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ रहे हैं और सरकारी पार्टी कह रही है कि कीमत तो अभी भी कम है। समय बदलता है और सुकून की चाह में लोग अच्‍छे दिन आएंगे की भूलभुलैया में खो जाते हैं और सरकार बदल जाती है।

यह पहला मौका नहीं है। एक समय एक फिल्‍मी गाना बड़ा फेमस हुआ था। ‘बाकी जो कुछ बचा सो महंगाई मार गई।’ 1974 का आंदोलन भी महंगाई की मार झेल रही जनता का आक्रोश था। नारा लगता था ‘देखो रे बुढि़या का खेल चौदह रुपये कड़ुआ तेल (सरसों का तेल)।’ नारे बदलते रहे देश आगे बढ़ता रहा। इस बार भी देश बदला है तो महंगाई के कारण। लेकिन अब महंगाई पर कोई आवाज नहीं है।अब कहीं से भी यह खबर नहीं आती है कि देश में टमाटर का भाव आसमान पर है। दालों की कीमत बूते से बाहर निकल गई, इसकी भी चिंता अब नहीं है।

rahul-khat-loot-1कहने वाले कहते हैं, हर आदमी की क्रय शक्ति बढ़ गई है। जब रुपया मजबूत हो जाता है तो कीमत बढ़ती ही है। यही इस बात का सबूत है कि इतनी महंगाई में भी जनता, मीडिया के बीच कीमत पर चर्चा नहीं है। इस बेहतरी का एक सुबूत और भी है। भगवान भक्‍तों की सरकार के विरोध में बैठी पार्टी (यह कम्‍युनिस्‍टों की तरह नास्तिक नहीं) गरीबों को खाट बांट रही है। लोग खाट पर टूट पड़ते हैं क्‍योंकि सब सस्‍ता माल खाने के बाद लोगों को जम्‍हाई आ रही है और नींद के मारे बुरा हाल है। ऐसे में खाट पर उनका टूट पड़ना स्‍वा‍भाविक है। मीडिया में इस खाट लूट की खूब चर्चा है। महंगाई और लूट की इस जंग में पिछली सरकार फंसी थी। उसके समय में खाने के लाले पड़े थे। बेहाल लोगों को सामान मिल रहा था तो पकाने के लिए ईंधन की कालाबाजारी हो गई थी। अब सब ठीक है, बस झपकी आने से सोने के लिए जगह तलाशी जा रही है।

इस जंग में हमारे जैसे कुछ लोग जो हाशिए पर बैठे हैं उन्‍हें संकट का सामना करना पड़ रहा है। तनख्‍वाह पर दाल की कीमत भारी पड़ रही है। गांव याद आ रहा है और खेत याद आ रहे हैं। कभी ताजी सब्जियां खाते थे। अब बोलते हैं तो सवाल पूछा जाता है फिर शहर में क्‍या कर रहे हो। गांव चले जाओ। मसलन शहर में तो तुम लोग एक बोझ हो। शहर सभ्‍य और देशकाल में अपना चाल, चेहरा, चरित्र बदलने वालों का बसेरा है न कि गांव के गंवारों का डेरा है। शहर को क्‍या नहीं मिलता। कभी पहाड़ों पर निवास करने वाले साधू बाबा भी अब यहीं रहने आ गए हैं। उन्‍हें अब जंगल नहीं भाते। उनके उत्‍पादों का सबसे बड़ा बाजार शहर ही हैं। ज्‍योतिषियों को भी अब तलाशने की जरूरत नहीं है। मोबाइल फोन तो हर जेब में है और कॉल रेट भी सस्‍ता कर दिया गया है। नंबर भी खोजने की जरूरत नहीं है। अखबारों में उनके नंबर हैं तो दिव्‍य दर्पण (जो भगवानजी को भाए उनका दर्शन कराए सो दिव्‍य कहलाए) पर उनका साक्षात दर्शन हो जाता है। ऐसे में शहर शांत लोगों का बसेरा बन रहा है। स्‍मार्ट तो जब होंगे तब, पहले से ही रिहाइश का अभ्‍यास किया जा रहा है।

pulses -1महंगाई की बात करने पर शहर कहता है, गांव वालों तुम्‍हारी गाय का दूध, घी और अन्‍य उत्‍पाद शहरी लोगों के लिए ही तो है। तुम्‍हारे हिस्‍से में सिर्फ नमक रोटी है। आटा और महंगा हो गया तो समझो वह भी गया। ऐसे में महंगाई पर बात करने से लोग अकेले पड़ जाते हैं। शहर के घर-घर चर्चा चल रही है। लड़कों और शहरों में ‘नारी मुक्ति’ (लड़कियां युवतियां रिश्‍ते का बोझ क्‍यों ढोए आजाद रहे आबाद रहे) के समर्थकों के सामने ही समस्‍या है। गैजेट की कीमत ज्‍यादा हैं। इनके सस्‍ते होने का इंतजार करना खतरे से खाली नहीं है मौका हाथ से फिसल सकता है। इसके लिए आंदोलन तो किया भी नहीं जा सकता न। लड़कियों और युवतियों के सामने भी समस्‍या है। एक दिन साधन और साध्‍य के योग्‍य न रहे तो क्‍या होगा। इसलिए मंदिरों में पुरोहिताई की लड़ाई है। ऐसे में बस गांव वालों, तेरे हिस्‍से में महंगाई है।

इस पूरे क्रम में मुझे रामकथा याद आती है। क्‍यों न याद आए। राम एक ऐसे नायक हैं जो शहर से विदा होते हैं। निर्वासित होते हैं। उन्‍हें वहां भेजा जाता है जहां उनके आश्रित कृषक रहते हैं। वे अपने किसानों का जीवन देखते हैं। केवट की मदद लेते हैं और जंगल में रहने वाले वा-नर के बीच उन्‍हीं की तरह गुजर बसर करते हैं। वह देखते हैं कि उनके किसान, केवट और वा-नर के जीवन में कितनी कठिनाई है। वह उसका समाधान तलाशते रहते हैं लेकिन उनका खान-पान उन वनवासियों के ही जैसा रहता है। 

फोटो- अजय कुमार कोसी बिहार
फोटो- अजय कुमार कोसी बिहार

आज समय बदल गया है। रामराज भोग चुके लोगों की उसी पीढ़ी के हम वंशज हैं जिन्‍होंने वनवास से लौटे राम का स्‍वागत किया था। हम आज भी उनकी वापसी की खुशी अंधेरे के खिलाफ रोशनी जलाकर मनाते हैं। माटी के राजा का सोने का पुतला रामराज भोक्‍ताओं ने बनाया था। जो असमर्थ थे उन्‍होंने पत्‍थर की प्रतिमा बनाई और राजा राम की पूजा की। यह क्रम अनवरत जारी है। अब जो शहरी रामराज हम भोग रहे हैं उसमें दाल का क्‍या काम, महंगाई से हम क्‍यों हों परेशान। यही संदेश समवेत रूप से दिया जा रहा है। बीमारी है तो क्‍या हुआ भगवान ने साधू बाबा को जो भेज दिया है। रामराज को सार्थक बनाने के सभी प्रयास तो पहले ही किए जा चुके हैं फिर ऐसे में जो कुछ समस्‍याएं शेष हैं उनका समाधान अगले बीस वर्षों में कर दिए जाने का भरोसा रखने को कहा जा रहा है।

जनता को भरोसा हो गया है। उसे मालूम है कि तुलसी दास लिख गए हैं जाकी रही भावना जेसी, प्रभु मूरत देखिय तिन तैसी। यही कारण है मीडिया में खुशी और उल्‍लास दिखाया जा रहा है। भगवान के समय के दिव्‍य दर्पण के बदले रूप पर उन्‍नत और समृद्ध गांव का चेहरा उभर रहा है। मगर सावधान ये गांव उन लोगों के लिए नहीं हैं जो बीमार परेशान सा चेहरा लिए शहरों में घूमते हैं। ये गांव उनके लिए है जो शहरों में चमकते सितारे बन अक्‍ल की आंधी फूंकते हैं।


narendra aniketनरेंद्र अनिकेत। कहानीकार एवं पत्रकार। जन्म 12 अप्रैल 1967, भगवानपुर कमला, जिला समस्तीपुर, बिहार। शिक्षा एम. ए. हिंदी साहित्य, पिछले 20 वर्षों से विभिन्न अखबारों में सक्रिय रहे हैं। आप इनसे [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।