न्यू इंडिया का ‘हसीन सपना’ और दम तोड़ते अन्नदाता की हकीकत

न्यू इंडिया का ‘हसीन सपना’ और दम तोड़ते अन्नदाता की हकीकत

ये सुनने में काफी अच्छा लगता है कि हिंदुस्तान अब न्यू इंडिया बन रहा है । कम से कम मौजूदा दौर की केंद्र सरकार तो यही दावा करती है । ऐसे में सवाल ये है कि इस न्यू इंडिया में किसान यानी देश का अन्नादाता कहां है । उसके लिए कोई जगह है भी या नहीं। ये सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आये दिन देश के अलग-अलग हिस्सों से किसानों की खुदकुशी और बदहाली की ख़बर आती रहती हैं । वोट के लिए सरकारें कर्जमाफी और फसल बीमा जैसी तमाम योजनाओं का लालीपॉप किसानों को देती हैं, लेकिन क्या इसका फायदा वास्तव में किसानों को मिल रहा है, अगर मिल रहा है तो फिर किसान खुदकुशी करने को मजबूर क्यों है । आखिर किसानों के हक के लिए कोई आवाज क्यों नहीं उठाई जाती ।
पिछले दिनों महाराष्ट्र के अकोला से खबर आय़ी थी कि पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा वहां के किसानों की लड़ाई की लड़ाई लड़ने के लिए सड़क पर उतर गये हैं। यह सुनकर अच्छा लगा कि भाजपाई भी अब किसानों के मुद्दे पर सड़क पर उतर रहे हैं। वहीं बिहार में किसान रोज सरकार के खिलाफ अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं, एक साल से विभिन्न आपदाओं के दौरान तबाह हुई उनकी फसल का मुआवजा सरकार बांट नहीं रही है। इस मद के हजारों करोड़ रुपये सरकारी खाते में सड़ रहे हैं, किसान बदहाल हैं, पलायन कर रहे हैं। मगर उनके आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए भाजपाई तो दूर कोई विपक्षी नेता भी नहीं पहुंच रहा।
दो दिन पहले बिहार के मधेपुरा जिला मुख्यालय पर हजारों किसान जुटे और उन्होंने सरकार से सवाल किया कि अगस्त में आयी बाढ़ का फसल मुआवजा और क्षतिपूर्ति की राशि दिसंबर में भी क्यों नहीं बंटी है। इससे पहले इसी मसले को लेकर पहले किशनगंज, चंपारण, सीतामढ़ी, दरभंगा समेत तमाम जगहों पर किसान प्रदर्शन कर चुके हैं और यह प्रदर्शन लगातार जारी है। कई इलाकों में सहायता राशि के रूप में छह हजार रुपये तो बंटे हैं, मगर फसल क्षतिपूर्ति की राशि अब तक नहीं बंटी है। इस बीच अखबारों में यह खबर भी आयी है कि बाढ़ से पहले की आपदाओं की फसल क्षति राशि के 950 करोड़ रुपये भी आठ महीने से बैंक में पड़े हैं।
हाल ही में अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल, 2017 में ही राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग ने यह पैसा 21 जिलों के प्रशासन को जारी किया था। इनमें से पश्चिमी चंपारण को छोड़ कर किसी जिले में यह राशि बंटी नहीं है। इस पैसे को बांटने की जिम्मेदारी विभिन्न जिलों के डीएम की थी। मगर वे इस काम में रुचि नहीं ले रहे, लिहाजा किसानों को फसल क्षति का पैसा नहीं मिला है। पैसा सरकारी खजाने में पड़ा है।
जाहिर सी बात है कि यह पैसा अगस्त में आयी बाढ़ का मुआवजा नहीं है, यह पहले हुई आपदाओं की फसल क्षति का पैसा है। जब साल भर पहले हुई ओलावृष्टि और तूफान का पैसा अब तक नहीं बंटा है तो इस साल की प्रलयंकारी बाढ़ की क्षति का पैसा बंटना तो अभी दूर की कौड़ी है। इस आपदा के लिए 1935 करोड़ रुपये जारी हुए हैं। जाहिर सी बात है कि किसान सड़कों पर हैं और पूरे उत्तर बिहार में जगह-जगह आंदोलन हो रहे हैं.
समझ से परे यह बात है कि आखिर जिलाधिकारी राज्य सरकार की तरफ से पैसा जारी होने के बावजूद इसे बांटते क्यों नहीं हैं. खास कर सृजन घोटाला उजागर होने के वक्त से यह जाहिर है कि सरकारी जमा पैसे को लेकर खूब घोटाले हो रहे हैं। सुपौल में बाढ़ राहत का पैसा भी सृजन घोटाले की भेंट चढ़ा था, तो कहीं यह 2500 से 3000 करोड़ की राश भी कहीं किसी घोटाले की भेंट तो नहीं चढ़ रही।
आखिर राज्य सरकार किसानों की क्षति पूर्ति की राशि क्यों नहीं बंटवाना चाहती है। आखिर लगातार संकट का सामना कर रहे ये किसान क्षति पूर्ति की राशि के बिना कैसे गुजारा कर रहे हैं और क्या इन किसानों की सुध लेने के लिए कोई बड़ा विपक्षी नेता यहां जमीनी आंदोलन छेड़ने पहुंचेगा? कोसी नव निर्माण मंच जैसे संगठन ही इनके सवालों को लेकर सड़क पर क्यों उतरते हैं। क्या बिहार के किसानों का दुख पोलिटिकल माइलेज पाने लायक नहीं है? क्या तमाम आंदोलन पोलिटिकल माइलेज के लिए ही होते है?

साभार- biharcoverez.com