गणतंत्र बड़ा हुआ, लेकिन हमारी सोच छोटी

गणतंत्र बड़ा हुआ, लेकिन हमारी सोच छोटी

ब्रह्मानंद ठाकुर

आजादी के 5 साल बाद और भारत को गणतंत्र घोषित होने के दो साल बाद 1952 में मेरा जन्म हुआ। सात साल की उम्र में गांव के बेसिक स्कूल में मेरा नामांकन बाल वर्ग ( पूर्व प्रथमिक कक्षा) में करा दिया गया । इस स्कूल की स्थापना गांधी जी के आह्वान पर राष्ट्रीय विद्यालय के रूप में हुई थी और इस अवसर पर राजेन्द्र बाबू (डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद) यहां आए थे। यह जानकारी हमारे ग्रामीण और वयोवृद्ध पत्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर रवि ने मुझे छात्र जीवन में दी थी। मै बगल में जूट का बोरा और पीठ पर बस्ता में स्लेट और-मनोहर पोथी लेकर रोज स्कूल जाने लगा । वह 1958 का साल था । गणतंत्र की उम्र मुझसे दो साल अधिक थी। आज भी मेरे और हमारे गणतंत्र के बीच की उम्र का वही अंतर बना हुआ है। न जाने क्यों मुझे अपने से दो साल बड़े उम्र के गणतंत्र से सात साल की उम्र में ही प्यार हो गया था। कहते हैं, उम्र के बढ़ने से प्यार का खुमार भी टूटने लगता है, लेकिन तब मैं ऐसा नहीं सोचता था।
ऐसा बाद में मुझे अपने शिक्षकों से जानने-समझने को मिला। फिर 1958 का नौंवा गणतंत्र दिवस का राष्ट्रीय त्योहार जिसके बारे में आमलोगों को विस्तार से जानकारी नहीं थी। बस इतना ही जानते थे कि देश अब आजाद है और यह त्योहार उसी की खुशी में मनाया जाता है। खैर, उस नौवें ( मेरे लिए पहले ) गणतंत्र दिवस पर हमारे शिक्षक ने अहले सुबह प्रभातफेरी के लिए तैयार होकर आने को जब कहा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। पहुंच गये मुंह अंधेरे स्कूल पर। तब कुछ शिक्षक स्कूल में ही थहते थे। हमलोगों की लाईन लगवाई गई। आगे के छात्र के हाथ में डंडे से लगा तिरंगा थमा दिया गया। हमलोग चल पड़े प्रभात फेरी के लिए। ‘गणतंत्र दिवस, अमर रहे, भारत माता की जय, महात्मागांधी अमर रहें, वीर शहीदों की जय, वंदे मातरम का नारा लगाते हुए हमारी टोली दो घंटे तक गांव की सडकों और बूढी गंडक के तटबंध से गुजरती हुई वापस विद्यालय में आ गई। वहां से हमलोग अपने अपने घर चले आए। नहा-धो कर फिर आठ बजे स्कूल पहुंचे जहां हमारे प्रधानाध्यापक ने तिरंगा फहराया। राष्ट्रगान हुआ । उसके बाद ऊंची कक्षा के विद्यार्थियों ने अनेक राष्ट्रीय गीत प्रस्तुत किये। इस पूरे समारोह के दौरान हमारे गांव के स्वतंत्रता सेनानी मौजूद रहा करते थे। हम छात्रों में इस दिन जो उल्लास था ,उसका आज लेशमात्र भी महसूस नहीं होता है।
इसके बाद शुरू हुआ हमारे गांव मे संस्थाओं की स्थापना का दौर। ऊपर मै इस बात का उल्लेख कर चुका हूं कि यहां एट राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना हुई थी। शुरू में वह लोअर प्राइमरी स्कूल था जो दो कमरे के कच्चे मकान में शुरु हुआ था। आजादी के तुरत बाद हमारे गांव की एक विधवा महिला रामरखी देवी ने बेसिक स्कूल की स्थापना के लिए दो एकड़ जमीन दान में दिया था। उस जमीन में गांव के सहयोग से आठ कमरा और एक बड़े हाल का निर्माण कच्ची ईंट से किया गया। छोटे-छोटे किसानों ने भी इस स्कूल के लिए स्वेच्छा से जमीन दान की। इसमें खेती होने लगी। फिर हाईस्कूल, डाकघर और नवजीवन पुस्तकालय की स्थापना जनसहयोग से की गई। तब इस नवजीवन पुस्तकालय में बड़ी संख्या में पुस्तकें और अन्य संसाधन जनसहयोग से उपलब्ध कराए गये। महात्मागांधी की स्वदेशी सम्बंधी अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए विद्यालय में तेलघानी उद्योग, कोल्हू, सूत कताई और कपड़ा बुनने का काम शुरू हुआ। मैंने देखा कि हमारे गांव के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी मूसन चाचा काफी दिनों तक यहां खादी वस्त्र बुनने की ट्रेनिंग विद्यालय के छात्रों को देते रहे। बाद के दिनों में ज्यों ज्यों हमारा गणतंत्र मैच्योर होता गया, ये सारी संस्थाएं और संसाधन धीरे-धीर अपनी प्रासंगिकता खोने लगी। अब हमारा गणतंत्र 69 वर्ष का हो गया है। इसलिए गांव के बड़े-बुजुर्गों की तरह उसकी मधुर याद ही शेष रह गई है।


ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।