एक आख़िरी गोली और क्रांति का महानायक

एक आख़िरी गोली और क्रांति का महानायक

डा. सुधांशु कुमार

भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का अमरदीप – चंन्द्रशेखर आजाद ! एक ऐसा नाम , जिसके स्मरण मात्र से तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत की सांस फूलने लगती, युवावर्ग की धमनियों में रक्त का संचार तीव्र हो जाता, देशप्रेम ऊफान मारने लगता ! उन्होंने पहली बार देश के सुप्त जनमानस को यह विश्वास दिलाने की असफल कोशिश की कि सत्ता बात से नहीं, बंदूक से ही मिलने वाली ! मानो दिनकर ने उन्हीं के इस संकल्प को ध्यान में रखते हुए लिखा कि, ‘याचना नहीं, अब रण होगा / युद्ध बड़ा भीषण होगा। ‘

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उसी युद्ध की तैयारी के लिए 9 अगस्त 1925 ई . को चंन्द्रशेखर आजाद ने भगतसिंह सहित दस क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काकोरी कांड को अंजाम देते हुए ब्रिटिश- खजाना लूट लिया। यह आजादी के इन क्रांतिकारियों की दीवानगी ही थी कि चौरी-चौरा कांड के फलस्वरूप महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद इन्होंने अपनी क्रांति की लौ मद्धिम न होने दी , बल्कि एक अलग स्वरूप में उसे अंजाम तक पहुंचाने का संकल्प लिया। महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के निर्णय से आजाद असहमत थे और इन्होंने उसकी कड़ी निंदा भी की। इन्होंने भगत सिंह , राजगुरु , सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों के साथ मीटिंग की और 1925 में एक नयी पार्टी ‘भारतीय रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का गठन किया। इसका कमांडर इन चीफ चंन्द्रशेखर आजाद को बनाया गया। इन्होंने इस पार्टी का नारा दिया -‘हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी ।’

इस समूह ने काकोरी कांड के साथ ही, असेंबली बमकांड , लाला लाजपतराय की हत्या करने वाले ‘सैंडर्स’ का वध, आदि छोटी-बड़ी घटनाओं से ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। इस क्रम में कई क्रांतिकारी पकड़े गए, कई साक्ष्य के आधार पर छूट भी गए और भगत सिंह, सुखदेव आदि सहित कई क्रांतिकारियों को फाँसी दे दी गयी , लेकिन इससे भारत माता के इस वीर सपूत के अदम्य साहस को ब्रिटिश हुकूमत दबा न सकी। इनके क्रांतिकारी विचारों के कारण ही हजारों युवा इनसे जुड़ने लगे थे जिसके कारण उनकी नींद हराम हो चुकी थी। इससे पूर्व कि आजाद किसी बड़ी क्रांति को अंजाम दें , अंग्रेज हर कीमत पर उन्हें पकड़ना चाहते थे। अंततः जिस अभिशाप का शिकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सैकड़ों वर्षों से होता आया है , हुआ वही ।

एक बार फिर भारत माता के वीर सपूत के साथ साजिश की गयी , एक बार फिर किसी अपने ने विश्वासघात किया , एक बार फिर किसी ने अपनेपन का अहसास कराकर पीठ में छुरा घोंपा। तिथि – 27 फरवरी 1931 ई । स्थान – इलाहाबाद । चंन्द्रशेखर आजाद पंडित नेहरू से मिलने पहुंचे ! इस उम्मीद के साथ कि भगत सिंह की फांसी को किसी तरह रोकने में वह मदद करेंगे। नेहरू ने उनकी एक न सुनी , वह निराश वहां से निकलकर साथी सुखदेव के साथ इलाहाबाद के ही अल्फ्रेड पार्क में भावी रणनीति पर विचार विमर्श कर ही रहे थे कि अंग्रेजी सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया। किसी ने अविलंब इनकी सूचना अंग्रेजों को दे दी थी। इन्होंने साथी सुखदेव को तो वहां से भगा दिया लेकिन ‘आजाद’ सिपाहियों से घिर चुके थे। इन्होंने बड़ी वीरता के साथ उनका मुकाबला किया , और अंत में जब इनकी पिस्तौल में एक गोली बची तो इन्होंने खुद की कनपटी में गोली मारकर अपने ‘आजाद’ नाम को एक नवीन अर्थ दे दिया । इन्हें जीवित पकड़ने का फिरंगियों का सपना सपना ही रह गया !!

आजादी के बाद बड़ी ही सुनियोजित साजिश के अंतर्गत चंन्द्रशेखर आजाद भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु आदि आजादी के सैकड़ों क्रांतिकारियों को भुलाने और किसी खास व्यक्ति-समूह को ही आजादी का श्रेय देने का कुचक्र चलाया गया ! यह भारतीय स्वातंत्र्य इतिहास में किसी त्रासदी से कम नहीं ! भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के जिन परवानों के नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित होना चाहिए था , उन्हीं के नामों पर बड़ी ही चतुराई के साथ किसी साजिश के तहत कालिख पोतने का घिनौना खेल खेला गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अमूल्य योगदान को खारिज करने की असफल कोशिश की गयी और हद तो तब हो गयी जब जेएनयू जैसी तथाकथित श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान के तथाकथित एक इतिहासकार ‘विपनचंद्र ‘ ने अपनी पुस्तक ‘भारत की स्वतंत्रता का संघर्ष’ नामक ग्रंथ में चंन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के लिए ‘आतंकवादी’ शब्द का प्रयोग किया जिसे लगभग पैंतीस वर्षों तक वहां के छात्रों को बतलाया गया। अपनी इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 190- में उन्होंने लिखा कि -” क्रांतिकारी युवा व्यक्तिगत आतंकवाद और हत्या की राजनीति छोड़कर संगठित क्रांति कार्रवाई में विश्वास करने लगे थे। …17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह चंन्द्रशेखर आजाद आदि ने लाहौर में लालाजी पर लाठी बरसाने वाले एक पुलिस अधिकारी’सैंडर्स’ की हत्या कर दी ।” अपनी इस किताब में कई जगहों पर विपिनचंद्र ने ऐसे क्रांतिकारियों के लिए आतंकवादी शब्द का प्रयोग कर निंदनीय कार्य किया है। किसी देश के लिए इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि जिन्होंने हंसते-हंसते अपनी मातृभूमि के लिए फाँसी के फंदे को चूमा , मौत को गले लगाया , असह्य यातनाएं झेली , उन्हीं को उन्हीं के देश में आतंकवदी सिद्ध किया जाय और तत्कालीन सरकार की मौन स्वीकृति इस घटिया सोच को प्राप्त हुई !

यह ध्रुव सत्य है कि भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने में समानांतर तीन धाराओं का समान योगदान रहा है। पहली धारा चंन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु आदि हजारों क्रांतिकारी युवाओं की थी जिनका एकमात्र उद्देश्य और संकल्प था कि मरेंगे-मारेंगे और भारतवर्ष से अंग्रेजों को भगाकर ही दम लेंगे। दूसरी धारा सुभाषचन्द्र बोस की थी जिन्होंने रासबिहारी बोस द्वारा गठित ‘आजाद हिंद फौज’ को एक नयी ऊर्जा से लबरेज करते हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्रराष्ट्रों के खिलाफ जापान और जर्मनी का साथ दिया। उनका विश्वास था कि यदि इस युद्ध में मित्रराष्ट्रों की पराजय हो जाती है तो मजबूर होकर अंग्रेजों को भारत को आजाद करना पड़ेगा। तीसरी धारा थी महात्मा गांधी की, जिन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा के रास्तों पर चलते हुए भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने की कोशिश की। समग्रता के साथ देखने पर हम पाते हैं कि तीनों धाराओं ने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । किसी को किसी से कमतर आंकने पर अन्य धारा के साथ अन्याय होगा। ये तीनों धाराएं अपने भिन्न विचारों के साथ भले ही अलग-अलग रास्ते अख्तियार किए हुए थीं किंतु उद्देश्य सभी का एक ही था -भारत की आजादी । इन तीनों में से किसी भी एक धारा को नजरअंदाज करने पर स्वतंत्रता की लड़ाई अधूरी पाते हैं । किसी कवि ने सही ही लिखा है कि –

‘आजादी है मिली न केवल चरखा, तकली , खादी से , आजादी है मिली प्राण देने की खुली मुनादी से …।’

(विचार लेखक के निजी हैं।)


डॉ सुधांशु कुमार- लेखक सिमुलतला आवासीय विद्यालय में अध्यापक हैं। भदई, मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी। मोबाइल नंबर- 7979862250 पर आप इनसे संपर्क कर सकते हैं। आपका हालिया प्रकाशित व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘नारद कमीशन’ चर्चा में है।