जिसके पास सत्ता है पावर पैसा है हांक रहा सबको एक ही चाबुक से और हम अजान और अरदास पर बहस में उलझे हैं देवी-देवताओं की पूजा कर रहे उनकी कृपा पाने के लिए नहीं उनके कोप से बचने के लिए
कभी दशहरा कभी दीवाली कभी मुहर्रम कभी रोजा कभी बैसाखी कभी क्रिसमस त्योहारों की फेहरिश्त खत्म ही नहीं होती… न ही खत्म होते हैं हमारे दुख
दरअसल, ये त्योहार ही हमारे दुख के भागीदार हैं वरना, विसर्जन तो एक दिन सभी प्रतिमाओं का होता ही है उसके पहले मनाते हैं जश्न सिंदूर खेला से लेकर माघ मेला तक हरिद्वार से लेकर अजमेर तक…
अखिलेश्वर पांडेय। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। मेरठ में शुरुआती पत्रकारिता के बाद लंबे वक्त से जमशेदपुर, प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत।
यही है मरनासन्न आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था की तस्वीर जिसे अखिलेश्वर पाणडेय जी ने अपनी कविता में खीची है। वास्तव मे वर्तमान समय हर दृष्टिकोण से ठूठ बन चुका है। इसमें उम्मीदों के किसल कहां से फूटे?
यही है मरनासन्न आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था की तस्वीर जिसे अखिलेश्वर पाणडेय जी ने अपनी कविता में खीची है। वास्तव मे वर्तमान समय हर दृष्टिकोण से ठूठ बन चुका है। इसमें उम्मीदों के किसल कहां से फूटे?