ब्रह्मानंद ठाकुर
अतीत सुंदर था, खुशहाल था, गौरवपूर्ण था, इसलिए वह दुहराने की चीज नहीं हो सकती लेकिन प्रेरणा तो उससे अवश्य ली जानी चाहिए। बिना ऐसा किए सुखद वर्तमान का निर्माण सम्भव नहीं है। कहना तो कुछ अलग चाह रहा था लेकिन भूमिका कुछ दूसरी ही बन गयी। चलिए कोई बात नहीं। दिवाली बीत गई, आज सुकराती है। सुकराती हमारे गांव – गंवई का शब्द है। इसे गोवर्धन पूजा भी सम्भ्रांत लोग कहते हैं।
सुकराती किसानों, पशुपालकों का पर्व है। इस पर्व से जुडे बीते दिनों की यादें अब भी जेहन में तैर रही हैं। हालांकि वह अब पूरी तरह इतिहास बन चुका है। मुख्य रूप से यह पर्व बैल की पूजा का पर्व है, गाय का भी। बैल हमारी कृषि व्यवस्था की रीढ रहे हैं।तब यह कहावत गांव मे आम थी- एक बैल से भली कुदाली। माने बैल है तो उसका जोड़ा भी होना ही चाहिए। एक बैल किसी काम का नहीं। उससे बेहतर तो कुदाल ही है। दरवाजे पर भर छाती ऊंचाई पर स्थापित नाद। नाद के पास गड़ा खूंटा। खूंटे से बंधा बैल, जब नाद में मुंह डाल चारा खा रहा होता था तो उसके गले में बंधी घंटियों की आवाज अद्भुत समां बिखेरती थी। इसी पर एक फिल्म में महेन्द्रकपूर ने गाया था – बैलों के गले में जब घुंघरू, जीवन का राग सुनाते हैं ,गम कोस दूर हो जाता है , खुशियों के चमन मुस्काते हैं।
वह राग अब कहीं सुनाई नहीं देते। गांवों के खुशियों के चमन मुरझा गये हैं। ऐसे में फिर आया है सुकराती का पर्व, नितांत औपचारिकता लिए। लौटता हूं 50 साल पीछे। तब हमारे गांव में प्राय: हर दरवाजे पर बैल बंधा होता था। ज्यादातर एक जोड़ा। बड़े किसानों के दरवाजे पर दो जोड़ा, तीन जोड़ा भी। सुकराती की सुबह से ही हलवाहा या किसान खुद बाग बगीचे की खाक छानने निकल पड़ते। हाथ में हंसिया लिए। उन्हें ढूढना होता था- चिरचिरी, बरियार, ककहिया, बकाएन, रेगनी, घोडसार, पीपल (लत्तर वाला), सोहराई , बाकस हापुड़, टहकार , गुम्मा, गुरुज, मसूरदाना आदि सोलह औषधीय वनस्पति जिसे कूट-छान कर सोन्हाओन तैयार किया जाता था।
दरवाजे पर महिलाएं गोधन बनाती थीं। गोधन माने दरवाजे को लीप-पोत कर एक स्थान पर गोबर से आयताकार घेरा बनाकर जांता, चक्की, ओखल , मूसल आदि न जाने कितनी सुंदर आकृतियां बनाई जाती थीं। उस पर सिंदूर लगा कर फूलों से सजाया जाता था। लुहार अपने -अपने गृहस्थ के दरवाजे पर बांस का कांडी और खूंटा पहुंचाते थे। बढई पान लेकर हाजिर होता था। बैल के लिए कूटा हुआ पान अलग से।। मवेशियों को दोपहर तक स्नान करा लिया जाता था। दिवाली की रात में ही मवेशियों के सींग में तेल मले जाते।
सुकराती के दिन हरे खर की दोगहा रस्सी बनाई जाती थी। फिर उस रस्सी से गोधन वाले स्थान पर बैलों को बांध कर कांडी से सोन्हाओन पिलाया जाता था। इसके बाद उसे नई रस्सी, गरदान, नाथ पहनाया जाता। रस्सी की रंगाई लाल सिकिया रंग में की जाती थी। फिर रंग से ही बैल के शरीर पर आकृतियां बनाई जातीं। गोधन से बाहर निकालने से पहले बैल को खीर खिलाया जाता, फिर उसका मुंह धो कर मुंह में पान चुपड़ कर नाद पर बांध दिया जाता था, चारा खाने के लिए। फिर हलवाहा, लुहार, बढई, ढोल बजाने वाले मोची आदि को इनाम बख्शीस दे कर विदा किया जाता था।
आज देखता हूं तो कहीं वैसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है। टायर गाड़ी भी अब मिनी ट्रैक्टर से चलाए जाने लगे हैं। मेरे गांव में अब किसी के दरवाजे पर बैल नहीं दिखते। हां, गाय जरूर हैं। आज इन्हीं गायों को दुकान से प्लास्टिक की रस्सी खरीद कर पहनाकर सुकराती की रस्म अदा की जाती है। गोधन और सोन्हाओन बीते दिनों की बात हो गयी। अब तो किसी को पता भी नहीं है कि सोन्हाओन में किस-किस वनस्पति की आवश्यकता होती थी। उस दिन मैंने जिग्यासावश अपने एक ग्रामीण 80 वर्षीय पलधर पासवान से इस बाबत पूछा तो उन्होंने सिर खुजलाते हुए जितने का नाम गिनाया, उसे मैंने अपनी डायरी में नोट कर लिया।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।