सिर्फ कानून नहीं सोच में भी बदलाव लाने की ज़रूरत

सिर्फ कानून नहीं सोच में भी बदलाव लाने की ज़रूरत

शिरीष खरे
तीन तलाक विधेयक पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का पक्ष बहुत स्पष्ट है। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी इंद्रेश कुमार का कहना है कि इस प्रकार की कुप्रथा से मुक्ति दिलाकर मुस्लिम महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। लेकिन, दूसरी तरफ तीन तलाक के बाद क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कभी इस बात पर अपना रुख स्पष्ट कर सकेगा कि एक पति की मौत के बाद एक विधवा को अपना जीवन किस प्रकार से जीना चाहिए? एक विधवा को कैसा जीवन जीना चाहिए, असल में इसका निर्धारण मूलत: गांव की परंपरा और रीति-रिवाज से शुरु हुआ है। यहां तक कि एक विधवा और उनके अलावा अन्य महिलाएं कैसे कपड़े पहनेंगी, इन सबका निर्धारण भी बहुत पहले ही ग्रामीण समाज द्वारा कर दिया गया है। ये मान्यताएं बताती हैं कि महिलाएं निर्णय लेने में स्वतंत्र नहीं हैं। कहने का अर्थ महिलाएं कई सामाजिक गतिविधियों में भाग ही नहीं ले पाती हैं और पुरुष ही निर्णायक भूमिका में होते हैं। इससे व्यवहार में दहेज-प्रथा और पिता की संपत्ति पर महिलाओं के अधिकार जैसे मुद्दों पर महिलाओं का स्वतंत्र पक्ष सामने ही नहीं आ पाता है।
स्पष्ट है कि हमारे ग्रामीण समाज में जाति, धर्म, समुदाय और वर्ग आदि के आधार पर जो असमानताएं हैं उससे बड़े पैमाने पर स्त्री की भूमिका और स्थिति प्रभावित होती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक महिलाओं का व्यवहार समाज के नियमों के अनुसार चलता है। समय के साथ आधुनिकता आई है, लेकिन सबरीमाला प्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक दुर्बलताएं आज भी अपने नवीन रुप में मौजूद हैं। राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ समय बदलता रहा हैं, लेकिन समय के साथ आज भी विवाह और मातृत्व महिलाओं के लिए सबसे बड़ा सम्मान और उपलब्धि बना हुआ है। आम धारणा के मुताबिक गांवों और काफी हद तक शहरों में भी नवविवाहिता का पहला काम जल्द से जल्द मां बनना होता है और उससे पुत्ररत्न की अपेक्षा की जाती है। इस तरह की महिला समाज में सम्मानीय होती है। वहीं, आर्थिक और क्षेत्रीय विकास के साथ दहेज जैसी कुप्रथा का विस्तार हुआ है।
भारत में हर साल दहेज के कारण लगभग दस हजार हत्याएं होती हैं। देखा गया है कि हत्या हो जाने के बाद ही लड़की के माता-पिता अदालत तक पहुंचते हैं। इस प्रकार की कई अन्य और असंख्य पुरातन मान्यताएं हैं जिनकी गलत व्याख्याएं अनगिनत भारतीय महिलाओं के लिए आज भी मुक्ति के मार्ग में बड़ी बाधाएं हैं। किंतु, इसके विपरीत इन समस्याओं को बनाए रखने के लिए कई तरह के राजनीतिक और सामाजिक संघ तथा संगठन दबाव-समूह का काम कर रहे हैं। देश के गांव-गांव तक सक्रिय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यह भी स्पष्ट करे कि दहेज, आजीविका भत्ता, संरक्षण व उत्तराधिकार आदि मुद्दों पर वह महिलाओं के पक्ष में क्यों कोई बड़ा अभियान नहीं चला पाया है? राजनीतिक हिंसा की जबरर्दस्त शिकार अनुसूचित जाति और जनजाति महिलाओं से बलात्कार और हत्याओं की घटनाओं में बढ़ोतरी के बावजूद वे इस समुदाय की महिलाओं के पक्ष में क्यों मुखर नहीं हो पाया है? तीन तलाक की तर्ज पर महिलाओं के अधिकारों के लिए जमीन और वनोपज आदि पर उनका अधिकार दिलाने के लिए के मार्ग पर वह क्यों आगे नहीं बढ़ पाया है?


shirish khare

शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।