भावना का रेगुलेटर कहां है?

भावना का रेगुलेटर कहां है?

राकेश कायस्थ

भावना में भगवान बसते हैं। इसलिए भक्त बहुत भावुक होते हैं। राफेल का मामला उछला तो मुझे लगा कि भावुक भक्त भगवान से कहेंगे— कह दीजिये यह झूठ है। राहुल गांधी ने जब बार-बार चौकीदार को चोर कहा तो मुझे लगा कि भक्त चिल्लाएंगे– मोदीजी यह अपमान मत सहिये। आप संसद में बहुमत में हैं। जेपीसी के अध्यक्ष आपकी पार्टी का होगा। जांच करवाकर भौंकने वाले के मुंह बंद करवाइये और उसके बाद मुकदमा करवाकर राहुल गांधी को जेल भिजवाइये। लेकिन ना जाने क्यों एक भी भक्त अपने भगवान से यह सब कहता नज़र नहीं आया।
कठुआ जैसे मामले की जांच को सुनियोजित तरीके से दबाने का इल्जाम बीजेपी नेताओं पर आया तो भक्त लोग भावुक हो गये। कुछ समय बाद जब मंदसौर का मामला उछला तो भावना का भूंकप आ गया।
ढेरो सवाल उठे लेकिन शिवराज सरकार के लिए नहीं बल्कि उन लोगों के लिए जो कठुआ मामले के पीड़ित के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकालने का विरोध कर रहे थे। कहा गया कि इस देश में अगर आरोपी मुसलमान और पीड़ित हिंदू हो तो बहुत से लोगों की बोलती बंद हो जाती है।
आहत हिंदू ह्रदय की वह सामूहिक आवाज थी, जो जवाब निर्वाचित सरकार से नहीं आम नागरिकों और विपक्ष से मांग रही थी। एम.जे अकबर का मामला सामना आया तो लगा कि हिंदू ह्रदय का उद्गार रणघोष बनकर फूटेगा। भक्त कहेंगे कि अकबर की शिकार महिलाओं में नब्बे प्रतिशत हिंदू हैं। ऐसे आदमी को धक्के मारकर अपने मंत्रिमंडल से भगाइये। लेकिन धर्मधुरंधर रणबांकुरे टीवी कैमरा देखते ही सिर पर पांव रखकर भागे। महिला अधिकारों की मुखर समर्थक सुषमा स्वराज के मुंह से भी अपने जूनियर मंत्री पर लगे आरोपों पर एक शब्द नहीं निकला। एक भी भक्त सोशल मीडिया पर तलवार भांजता नज़र नहीं आया।

क्या वाकई भक्त लोग सिर्फ भावुक होते हैं? अगर ठीक से देखेंगे तो यह बात बहुत साफ समझ में आएगी कि भावुकता का रेगुलटर कहीं और है। एक व्यवस्थित डिजाइन, एक पूरा तंत्र है, जो रात-दिन इस बात के लिए काम कर रहा है कि असली सवाल कभी लोक विमर्श के केंद्र में ना आ पायें।
सवाल ये है कि क्या ये सब लोग पेड वर्कर हैं? ऐसा नहीं है। बहुत से लोग यह काम स्वान्त: सुखाय कर रहे हैं। लेकिन वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?
2014 से पहले की भारतीय राजनीति और 2014 के बाद की राजनीति में एक बुनियादी अंतर है। मोदी-शाह की जोड़ी ने राजनीति को बस एक खेल बना दिया है।
उसी तरह जिस तरह फुटबॉल में प्रीमियर लीग और क्रिकेट में आईपीएल होता है। जिस तरह आप चेल्सी के सपोर्टर होते हैं या मैनेचेस्टर यूनाइटेड के, उसी तरह आपको कांग्रेस या बीजेपी किसी एक पक्ष में नाचना होगा, उनके समर्थन में गला फाड़ना होगा और विपक्षी टीम की हूटिंग करनी होगी। पॉलिटिक्स इस देश में इतना नॉन-सीरियस अफेयर कभी नहीं रहा, जितना अब है।

संघ परिवार और बीजेपी की राजनीति से असहमित रखने के बावजूद मैं एक बात के लिए उनकी तारीफ करता आया था। निजी तौर पर ऐसे कई लोगों को जानता हूं, जो ईमानदारी का जीवन जीते हैं और अपनी कमाई का बड़ा पैसा सरस्वती शिशु मंदिर और वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संघ से जुड़ी संस्थाओं को दान देते हैं।
वे लोग ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हे लगता है कि आरएसएस का सामाजिक-राजनीतिक रास्ता ठीक है। क्या मोदी-शाह शैली की पॉलिटिक्स में अब ऐसे लोगों का कोई प्रतिनिधित्व बचा है?
बीजेपी के बहुत से पुराने समर्थक मौजूदा राजनीति पर बात करने से कतराते हैं। भक्त 2014 के बाद तैयार हुई नई बिरादारी है। यही मोदी-शाह की असली ताकत यही बिरादरी है। बीजेपी के पढ़े-लिखे समर्थकों को झक मारकर उनके पीछे चलना पड़ेगा।
अमित शाह कहते हैं—कोई राज्य नहीं बचेगा, सारे जीत लेंगे। लेकिन कभी यह नहीं बता पाते कि जीतकर करेंगे क्या? क्या वही करेंगे जो पिछले साढ़े चार साल में करते आये हैं? जवाब किसी के पास नहीं है। अमृत पीकर कोई नहीं आता है।
मोदी-शाह की जोड़ी को भी एक दिन विदा होना पड़ेगा। लेकिन इस देश की दक्षिणपंथी राजनीति को इतना बड़ा नुकसान हो चुका होगा, जिसकी भरपाई नामुमकिन होगी।


राकेश कायस्थ।  झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ। टीवी टुडे,  बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आपने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों एक बहुराष्ट्रीय मीडिया समूह से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ और ‘प्रजातंत्र के पकौड़े’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।