राजा शिव छत्रपति सिर्फ महानाट्य नहीं है!

राजा शिव छत्रपति सिर्फ महानाट्य नहीं है!

सच्चिदानंद जोशी

जो लोग राजा शिव छत्रपति को सिर्फ एक महानाट्य मान कर देखने जा रहे हैं, वो एक भारी भूल कर रहे हैं। राजा शिव छत्रपति एक नाटक से कहीं बढ़ कर एक ऐसा ऐतिहासिक अनुष्ठान है, जिसमें दर्शक भी इतिहास जीने और महसूस करने को विवश हो जाते हैं। बाबा साहब पुरंदरे, जिन्होंने इसे रचा है वे मानो अभी भी शिवाजी युग में ही जी रहे हैं। तभी तो 95 वर्ष की आयु में भी उनके अंदर शिवाजी के मावलों का सा उत्साह और उमंग है। आप अगर बाबा साहब की आँखों में झांक कर देखे तो उसमें आपको शिवाजी की गौरव गाथा नज़र आएगी।

इसे सिर्फ नाटक न मानने की एक और वजह ये है कि ये सिर्फ संवादों की अदायगी, या पात्रों का इधर से उधर जाना, या सेट की भव्यता, या फिर घोड़े और ऊँट जैसे प्राणियों का अचंभित कर देने वाला प्रवेश नहीं है। ये राजा के साथ जुड़ाव भी है, और उस राजा के प्रति लगाव भी है। राजा शिव छत्रपति हमें इस बात के लिए भी आगाह करते हैं कि इतिहास पढ़ते समय हमें अपनी दृष्टि कैसी रखनी चाहिए। राजा शिव छत्रपति देखने के बाद शिवाजी के चरित्र की विराटता के दर्शन होते है। उस विराट स्वरूप में एक पराक्रमी योद्धा, एक कुशल रणनीतिकार, एक अद्वितीय प्रशाशक और एक मजबूत मातृ-भक्त चरित्रवान व्यक्ति के दर्शन होते हैं। राजा शिव छत्रपति नाटक हमें उस हिन्दवी स्वराज के रचनाकार के दर्शन कराता है, जो न रुकता है न झुकता है और न ही बिकता है। भारत भूमि के गौरव के लिए अपने प्राणों की भी बलि देने को उत्सुक शिवाजी हमें राजा शिछत्रपति के माध्यम से इतना अपना लगता है कि राज्याभिषेक के समय बरबस खुशी के आंसू झरने लगते हैं।

दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले पर भारत के प्रधानमंत्री ही झंडा फहराते रहे हैं। उसी लाल किले पर हिन्दवी साम्राज्य का झंडा देखना एक सुखद अनुभव है। ये अनुभव इतना रोमांचित कर देने वाला है कि 6 अप्रैल की शाम आंधी और बारिश के बावजूद दर्शक उसे देखते रहना चाहते थे, महसूस करना चाहते थे। रोज सात हजार से ज्यादा लोग उसी अनुभव सागर में डूब कर जाना चाहते हैं। खेद है कि हमारे अंग्रेजी और अंग्रेजी दा मीडिया को इसकी अलौकिकता का कोई आभास ही नहीं है। “स्वान लेक ” की कलात्मकता, ” किंगडम ऑफ ड्रीम्स ” की भव्यता और “मुग़ले आज़म ” की रचनात्मकता से आतंकित हमारे अंग्रेजी मीडिया को “राजा शिव छत्रपति ” की भावात्मकता और रागात्मकता समझ नहीं आती शायद। सलमान खान और काले हिरण को प्राथमिकता पर रखने वाले मीडिया को इतिहास को अपनी दहाड़ से कंपित करने वाले इस शेर की गौरव गाथा कैसे समझ आएगी?

ये सिर्फ एक नाटक नहीं जो आपको कुछ समय के लिए अपने पास जकड़ कर रखे। ये एक भावनात्मक राष्ट्रीय अनुष्ठान है, जो आपको कई दिनों तक सोचने पर मजबूर कर देता है। इसके गहरे प्रभाव का एक प्रत्यय तब आया जब कार्यक्रम समाप्ति के बाद इलेक्ट्रिक ऑटो में एक परिवार के साथ पार्किंग तक जाने का अवसर मिला। माता-पिता के साथ उनकी चार पाँच साल की एक बच्ची थी। उसके हाथ में कोल्ड ड्रिंक की भारी बोतल थी। कौतूहलवश मैंने पूछ लिया-
“अरे ये तो भरी है। वहाँ प्यास नही लगी। “
“ये तो प्यास व्यास भूल कर बैठी थी। हिलने का नाम ही नहीं ले रही थी । ” उसकी माँ ने बताया। 
“अच्छा , कैसा लगा। ” मैंने बच्ची से पूछा। 
“बहुत अच्छा। ऐसा लगता था कि और हो। होता ही रहे।” 
बच्ची ठीक कह रही थी। हमें भी लगता था कि और होता रहे और शिवाजी के हिन्दवी स्वराज्य का ध्वज यूँ ही फहराता रहे।


सच्चिदानंद जोशी। शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी, रंगकर्मी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की एक पीढ़ी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। इन दिनों इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स के मेंबर सेक्रेटरी के तौर पर सक्रिय।