डॉ. भावना
बलुई के ढलान से बोझा लिए जब भी गुज़रती है
वह काली लड़की
तो लोग उसे चिढ़ाते हैं ‘करीअक्की’
‘करिअक्की’ अपने काले रंग से खफा नहीं
खफा है अपने माँ-बाप से
जो कोयले की तरह काले हैं
‘करिअक्की’ सोचती है
काश! वह दादी पर गई होती
उसने सुना है कि दादी गोरी थी
मेम-सी उजली
‘करिअक्की’ को नफरत है रात के कालेपन से
अपने काले बाल से
कोयले से और कौवे से
पर, उसे कोयल का कालापन उद्वेलित नहीं करता
वह जब भी सुनती है उसका कोमल स्वर
मुग्ध हो जाती है
कोयल का स्वर कुदरत का तोहफा है
जिसके सामने फीका पड़ जाता है
उसका कालापन
‘करिअक्की’ भी खूब मेहनत करती
सुबह से शाम खेत और रात्रि में पाठशाला
‘करिअक्की’ को यकीन है
उसका काला रूप
उसकी मेहनत से फीका पड़ जाएगा
और निखर जाएगा उसका सौंदर्य
उसके अथक श्रम में तप कर ।।
आदर्श ओढ़ती लड़की
एक पीजी छात्रावास के मैदान में घास पर बैठा
एक पिता शून्य में देख रहा है
महीनों दर-दर भटकते पिता को
आश्वासन के शब्द निहायत खोखले लगते हैं
तब बेटी पिता के आक्रोश को अपनी मुस्कान में छिपा लेती है
पिता की पीड़ा का भान है उसे, पर विवश है
वह स्वयं नहीं खोज सकती अपने लिए वर
पिता की पगड़ी की रक्षा के लिए
मर्यादा का आदर्श ओढ़ लेती है लड़की
डॉक्टर भावना। बिहार के मुजफ्फरपुर की मूल निवासी। पत्रकारिता और लेखन से गहरा नाता। साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकी हैं ।