माथे पर पृथ्वी को उठा, सूरज की अगवानी करती स्त्री

माथे पर पृथ्वी को उठा, सूरज की अगवानी करती स्त्री

डाॅ॰ संजय पंकज

स्त्री का हर रूप सृजनधर्मी और कल्याणकारी है। वह परिवार से लेकर राष्ट्र-निर्माण तक में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। कार्यक्षमता और अकूत शक्ति से भरी हुई स्त्री आज हर क्षेत्र में अपनी पताका लहरा रही है। अपनी प्रतिभा का भरपूर रचनात्मक उपयोग करती हुई स्त्री अपने लिए उचित सम्मान की अपेक्षा आज भी कर रही है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ का देश भारत अपनी स्त्री-शक्ति के अपमान के कारण आज पीड़ित हो रहा है।

भारतीय चिंतकों ने स्त्री को देवी माना। फिर बदलते हुए स्त्री-समाज में उसे अपने समकक्ष ला खड़ा किया। कभी मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा-‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में है दूध और आँखों में पानी’ तब निश्चित रूप से स्त्री अनेक दमन-शोषण और अत्याचार को मर्यादा के नाम पर चुपचाप सहने के लिए विवश थी। उसका जीवन निर्माण के लिए समर्पित होते हुए भी त्रासदियों से भरा हुआ था।

छायावाद के कवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा-‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो/विश्वास रजत नग-पद-तल में/पीयूष स्रोत सी बहा करो/जीवन के सुन्दर समतल में’। नारी को श्रद्धा निवेदित करने वाली यह पंक्ति पुरुष के कोमल-भाव के साथ ही उसके दया-भाव को भी दर्शाती है। महादेवी वर्मा ने समाज की यातनाओं को झेलनेवाली स्त्रियों की मनोदशा को इस तरह अभिव्यक्त किया-‘मैं नीर भरी दुःख की बदली/विस्तृत नभ का कोई कोना/मेरा न कभी अपना होना/परिचय इतना इतिहास यही/उमड़ी कल थी मिट आज चली।’ बहुत हद तक सही होने के बावजूद स्त्री को सम्पूर्णता में यह पंक्तियाँ आकार नहीं दे रही हैं।

स्त्री सृजन करती है। लालन-पालन करती है। वह घर से लेकर बाहर तक सुन्दर संसार का निर्माण करती है।
प्राकृतिक रूप से स्त्री की संरचना कोमल जरूर है, लेकिन कोई स्त्री जब पूरे मन से कुछ बड़ा करने का ठान लेती है तो उसकी कोमल काया कहीं भी बाधा नहीं बनती है। एक-से-बढ़कर एक वीर नारियों, विदुषी नारियों तथा त्याग करने वाली नारियों का इतिहास भरा-पड़ा है। वैदिक काल, पौराणिक काल तथा ऐतिहासिक काल में ऐसी अनेक महिमामयी नारियाँ हुई हैं जिन्होंने अपनी कृतियों से इतिहास रचा है। उनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता है। सेवा, त्याग और धैर्य की प्रतिमूर्ति स्त्री जब कभी भी विद्रोह पर उतारू हुई है, तो उसने समाज को नई दिशा देने का काम किया है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, मदर टेरेसा, इंदिरा गाँधी जैसी अनेक स्त्रियाँ हुई हैं जिनका नाम अमर है। स्त्री के लिए प्रेरक है इनका व्यक्तित्व और योगदान भी।

हर क्षेत्र में स्त्रियों ने स्वर्णिम इतिहास का निर्माण किया है। मगर आज नैतिक रूप से समाज का ऐसा पतन हुआ है कि वह अपनी स्त्री-शक्ति को लगातार अपमानित कर रहा है। स्वर्णिम भविष्य का सपना बुनने वाली ‘निर्भया’ के साथ जिस पतित पुरुष मानसिकता ने कुकृत्य किया है, उसे कोई भी समय माफ नहीं कर सकता। भोग की वस्तु के रूप में स्त्री को मानने वाले और तद्नुरूप उनके साथ व्यवहार करने वाले कभी भी मान्य नहीं हो सकते। स्त्री भी एक सत्ता है। उसे भी पूरी स्वतंत्रता के साथ जीने का अधिकार है। उसके विवेकपूर्ण हर निर्णय का स्वागत होना चाहिए और विकास के क्षेत्र में बढ़ते हुए उसके चरण का अभिनंदन होना चाहिए। वह समाज में बिना किसी भेद-भाव के सम्मानित जीवन जी सके इसके लिए संकटपूर्ण हर मार्ग का व्यवधान दूर होना चाहिए। उसे प्रशस्त मार्ग पर चलने का गौरव भरा अधिकार मिलना चाहिए। पुरुषों के लिए हर तरह से समर्पित नारी के साथ किसी भी तरह का व्यभिचार और अनाचार ईश्वर के विरुद्ध किये गये अपराध की तरह है। माँ, बहन, बेटी, पत्नी तथा और भी रिश्तों के अनेक रूपों में स्त्री श्रेष्ठ, आदरयोग्य और त्यागमयी होती है। वह जहाँ भी रहती है, उस परिवेश के साथ आत्मीयता से जुड़ती है।

आज पूरे संसार में स्त्री-मुक्ति आन्दोलन पर जोर दिया जा रहा है। भारतीय स्त्री पाश्चात्य स्त्री-जीवन को कभी स्वीकार नहीं कर सकी है। वह अपनी समृद्ध परम्पराओं का निर्वाह करती मर्यादा और शील में जीने की अभ्यस्त है। उसके लिए उसका परिवार सबसे बड़ा उपासना-केन्द्र होता है। वह सृजन, स्नेह, सेवा और त्याग से परिवार को सींचती समाज और राष्ट्र को सुयोग्य आधार देने का काम करती है। ये पंक्तियाँ-‘गणित का पक्का हिसाब रखती है औरत/जोड़-गुणा औरों के लिए/अपने लिए सिर्फ घटाव होती है स्त्री’ मर्म का स्पर्श करती हैं और उस पारिवारिक सच को उजागर करती हैं जो स्त्री का मूल स्वभाव है।

केवल कानून बनने से स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हो जातीं। जो कानून बनाते हैं तथा उसके अन्तर्गत किसी को दंडित करते हैं वे भी आये दिनों स्त्री-शोषण के विरुद्ध कठघरे में खड़े होते हैं। जरूरत है पुरुष मानसिकता में परिवर्तन की। बचपन से ही यह संस्कार देने की जरूरत है कि दोनों एक-दूसरे के सहयोगी और पूरक हैं। दोनों के होने से ही संसार की निरंतरता है। नैतिक और आध्यात्मिक शिक्षा से बाल-मन को पुष्ट बनाने की जरूरत पर जोर देना आवश्यक है। मीडिया को भी अपने कर्तव्य का सकारात्मक रूप से पालन करना चाहिए। बच्चों के साथ बिना किसी भेद-भाव के स्नेहपूर्ण संवाद हमेशा बनाये रखना चाहिए।

हमारे ऋषि-महर्षियों और चिंतकों ने आदि काल में भी स्त्रियों के अधिकार के लिए हर तरह से आवाज उठायी थी। उसे सम्मान देते हुए उसके अवदानों का अभिनंदन किया गया था। धीरे-धीरे पुरुष का वर्चस्व बढ़ता गया और स्त्रियाँ घर तक सिमटती चली गईं। वह सिर्फ परिवार की दासी और बच्चा पैदा करने की मशीन भर हो गयी। उसके भीतर भी दिल धड़कता है और उसकी भी इच्छा-आकांक्षाएँ होती है, इसे पुरुषवादी समाज ने नजरअंदाज किया। स्त्री घुटती रही।

जब किसी उदारवादी पुरुष समाज ने संवेदनशीलता के साथ स्त्री मन को समझा तो उसकी स्वतंत्रता का उद्घोष किया गया। आज तो उसे नौकरियों में तथा राजनैतिक क्षेत्रों में भी आरक्षण दिया गया है। उस पर जब कभी भी बड़ा दायित्व सौंपा गया है, उसने बखूबी उसका निर्वाह किया है। हर तरह से स्त्रियों की दशा पर विचार करने की नितांत जरूरत है। साथ ही स्त्रियों को भी अपने प्राकृतिक बनावट के अनुरूप अपने को जानने-समझने की आवश्यकता है। टकराव से न तो घर-परिवार का, समाज का तथा राष्ट्र का विकास होता है और न ही आने वाली पीढ़ियों के लिए कोई आदर्श प्रस्तुत किया जा सकता है।

स्त्री में वह क्षमता है कि वह बिखरते हुए को समेट कर आकार दे सकती है। टूटे हुए को जोड़कर विस्तार दे सकती है। निराशा में भी आशा का संचार करने वाली स्त्री सृजन करके जननी बनती है तो स्नेह देकर बहन और सम्पूर्ण अर्पित करके पत्नी का पद प्राप्त करती है-‘माँ, बेटी, बीबी, बहन माँ के सारे रूप/सुबह-दोपहर शाम की चढ़ती ढलती धूप।’ स्त्री ऐसे ही देवी नहीं मान ली गयी होगी। उसके उदात्त और प्रेमिल कार्यों ने ही उसे यह गौरव दिया होगा। अपने हक के लिए वह अपनी शक्ति समेटकर जब कभी भी विद्रोह पर उतरकर अभियान करती है तो एक नया अध्याय खुलता है-‘कहाँ नहीं होती है स्त्री/माथे पर पृथ्वी को उठा/सूरज की अगवानी करती स्त्री/अपने सम्पूर्ण को समेट/जब आँचल फैलाती है/तो काँप उठते हैं दिक्पाल/काँपता है अंतरिक्ष/और सूरज भी।’’


संजय पंकज। बदलाव के अप्रैल 2018 के अतिथि संपादक। जाने – माने साहित्यकार , कवि और लेखक।  स्नातकोत्तर हिन्दी, पीएचडी। मंजर-मंजर आग लगी है , मां है शब्दातीत , यवनिका उठने तक, यहां तो सब बंजारे, सोच सकते हो  प्रकाशित पुस्तकें। निराला निकेतन की पत्रिका बेला के सम्पादक हैं। प्रेमसागर, उजास , अखिल भारतीय साहित्य परिषद, नव संचेतन, संस्कृति मंच , साहित्यिक अंजुमन, हिन्दी-उर्दू भाषायी एकता मंच जैसी संस्थाओं, संगठनों से अभिन्न रूप से जुड़े रहे हैं। हिन्दी फिल्म ‘भूमि’,’खड़ी बोली का चाणक्य ‘ तथा टीवी धारावाहिक ‘सांझ के हम सफर’ में  बेजोड़ अभिनय। आपसे मोबाइल नंबर 09973977511  पर सम्पर्क कर सकते हैं।