हिंदी-बांग्ला साहित्य का संगम और कालजयी रचना

हिंदी-बांग्ला साहित्य का संगम और कालजयी रचना

                                                                     वीरेन नंदा

 सन् 1857 में मुज़फ्फर खां के नाम पर बसा शहर मुजफ्फरपुर पहले तिरहुत कहलाता था। बूढ़ी गंडक के किनारे बसा यह शहर अपने सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक हलचल के कारण सदा इतिहास के केंद्र में रहा है। साहित्य-कला-संगीत के मर्मज्ञ पारखी उमाशंकर प्रसाद मेहरोत्रा (बच्चा बाबू) को कौन नहीं जानता । करीब सौ वर्षों से भी अधिक समय से हरिसभा स्कूल में बांग्ला रीति से होने वाली दुर्गा पूजा में कौन नहीं शरीक होता । बंगाली-गैर बंगाली सदा यहाँ एक-दूसरे के सहचर रहे हैं। यहाँ कभी हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। आतिथ्य-सत्कार करना यहाँ के लोगों की घुट्टी में है। लाला लाजपत राय, नेहरू और महात्मा गांधी को क्रमशः 1925, 1928, 1929 में अभिनंदित करने वाला यह शहर उससे भी पहले सन् 1901 में भारतीय साहित्याकाश का ध्रुवतारा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861 – 1941) को भी अभिनंदित कर गौरवान्वित है। 

गुरुदेव टैगोर की बड़ी बेटी माधुरीलता का ब्याह यहाँ के बांग्ला कवि बिहारीलाल चक्रवर्ती के वकील पुत्र शरतचन्द्र चक्रवर्ती के साथ हुआ था, जिनका निवास जवाहरलाल रोड स्थित पेट्रोल पंप के करीब था (यह पेट्रोल पंप अब शेष नहीं है)। उसी सिलसिले में पहली बार वे मुजफ्फरपुर आये थे। कहा जाता है कि इस शादी में उन्हें दस हजार रुपये दहेज में देना पड़ा था। कर्ज में डूबी जागीर के सिंहासन पर विराजे इस कवि सम्राट को उस चिंता ने जब घेर लिया तो उनके मित्र त्रिपुरा के नरेश ने आर्थिक मदद कर उससे मुक्ति दिलाई, जिससे वे यह विवाह संपन्न कर पाये। इस शहर की सदाशयता, गुनगुनी खिली-खुली धूप, चिड़ियों का कलरव, हवा के मदमस्त झोंके और लीचियों कि मिठास ने दूसरी बार उन्हें यहाँ खींच लाया। ‘गीतांजली’ के लिए  नॉबेल पुरस्कार (1913) मिलने से पूर्व 1911 में स्वास्थ्य लाभ के उद्देश्य से उनका यहाँ आना हुआ था। महीनों वे यहाँ की हवा-पानी में घुले-रमे और रची कई कालजयी रचनाएँ। 

 ‘नौका डुबी’ यहीं लिखा गया उपन्यास है जिसपर प्रदीप कुमार, वीणा राय, भारत भूषण और आशा पारिख अभिनीत फिल्म ‘घूंघट’ बनी थी। ‘पागल’ और ‘सामयिक निबंध’ नामक दो गद्य रचनाएँ भी यहीं लिखी। ‘कि सुर बाजे आमार प्राणे’ , ‘तुमि जे आमार चाओ से आमि जानि’ जैसे अमर मीठे बोल से गुंजायमान कर गुरुदेव टैगोर ने इस धरा को धन्य किया था कभी, जिसकी स्मृति संजोय है यह मुजफ्फरपुर अनेकों स्मृतियों के संग-साथ।जब वे कलकत्ता लौटने को हुए तो यहाँ का बंग-साहित्य समाज द्वारा मुखर्जी सेमिनरी स्कूल में उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। इस अभिनंदन-समारोह में उन्हें जो मान-पत्र दिया गया वह बांग्ला तिथि के अनुसार ‘बंगाब्द 1308 का पहला श्रावण’ था और हस्ताक्षर करने वालों में कमलाचरण मुखोपाध्याय, रमेश चन्द्र राय केशवचन्द्र बसु, प्यारी मोहन मुखोपाध्याय, प्रभाषचन्द्र बंधोपाध्याय, बेनीमाधव भट्टाचार्य तथा ज्ञानेन्द्रनाथ देव के नाम दर्ज है 

“बंग कवीन्द्र श्रीयुत् रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सुभागमन के उपलक्ष में, मुजफ्फरपुर में समर्पित मान-पत्र” शीर्षक के तहत इस मान-पत्र में उनकी अभ्यर्थना करते हुए बांग्ला के आदि कवि विद्यापति की जन्म स्थली की चर्चा की गई है तथा बंग साहित्याचार्य बंकिम बाबू के पश्चात टैगोर को ही उसका उत्तराधिकारी मान कर उनकी रचनाओं की विशिष्टता, विविधता और विशेषता का बखान है। उस मान-पत्र की भाषा इतनी अलंकृत है जिसे देख उस समय की हिन्दी भाषा बहुत पिछड़ी हुई मालूम पड़ती है। गुरुदेव का यह अभिनंदन देश का पहला नागरिक अभिनंदन था। ( जारी……नोट : दूसरी किश्त में सम्मान पत्र का अनुवाद )

वीरेन नन्दा/ बदलाव के जून माह के अतिथि संपादक। बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति समिति के संयोजक। खड़ी बोली काव्य -भाषा के आंदोलनकर्ता बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री पर बनी फिल्म ‘ खड़ी बोली का चाणक्य ‘ फिल्म के पटकथा लेखक एवं निर्देशक। ‘कब करोगी प्रारम्भ ‘ काव्यसंग्रह प्रकाशित। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन। मुजफ्फरपुर ( बिहार ) के निवासी। आपसे मोबाइल नम्बर 7764968701 पर सम्पर्क किया जा सकता