ब्रह्मानंद ठाकुर
मैं अपनी उम्र के 70 वें वर्ष में प्रवेश करने वाला हूं। शुरू से ही मुझे बड़े ओहदे वाले (डीएम, एसपी जैसे ) अधिकारियों से मिलने में झिझक होती रही है। एक अदना आदमी के रूप में यह सोच कर कि न जाने वह बड़ा अधिकारी मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा, बैठने के लिए कहेगा कि नहीं, ब्यूरोक्रेट्स की ठसक वाले अंदाज में मुझे घूरते हुए डांट कर अपने चैम्बर से बाहर तो नहीं निकाल देगा, हो सकता है कि वह मेरी बात गंभीरता से सुने बिना ही मुझे बाहर का रास्ता दिखा दे, मैं इन बड़े अधिकारियों से मिलने से बचता रहा हूं। वैसे भी मेरी खुद की धारणा है कि आज लोकतंत्र में ‘तंत्र ‘ के सामने ‘लोक’ बौना हो गया है। मैंने अपने आस-पास तंत्र के सामने अपनी व्यथा सुनाने के लिए लोक को अक्सर हाथ जोड़े, घिघियाते-मिमियाते देखा और सुना है । कुछ इन्हीं कारणों से बड़े अधिकारियों के प्रति मेरी यह धारणा कुछ हद तक मजबूत हो गई थी, जो पिछले दिनों एक जिले के बड़े पुलिस अधिकारी से उनके चेम्बर में मिलने के बाद बदल गई।
जी हां, मैं बात कर रहा हूं मोतिहारी के युवा पुलिस कप्तान डाक्टर कुमार आशीष की. जिनसे पिछले हप्ते हमारा मिलना हुआ। कुमार आशीष जेएनयू प्रोडक्ट हैं और पुलिस सेवा में आने के बाद किशनगंज तथा मधेपुरा में एसपी के रूप मे अपनी सेवा देने के बाद दो-ढाई महीने पहले ही बापू की कर्मस्थली मोतिहारी में एसपी के पद पर उनकी तैनाती हुई है। नालंदा, किशनगंज और मधेपुरा में बतौर पुलिस अधीक्षक वे काफी लोकप्रिय हो गये। उन्होंने पुलिस की एक नई कार्य सस्कृति की शुरुआत की। पुलिस-पब्लिक के बीच बनी खाई को पाटने का काम शुरू किया। नालंदा में उन्होंने ‘काफी विथ एसपी’ जैसा कार्यक्रम शुरू किया, मधेपुरा में ‘लव योर पुलिस’ का अभियान चलाया तो किशनगंज में बतौर एसपी न केवल लॉकडाउन का पालन कराया बल्कि कोरोना काल में कोई भूखा न सोए इसलिए पुलिस रसोई अभियान चलाया। इस युवा आइपीएस की नूतन कार्यशैली की चर्चा सोशल और मेन स्ट्रीम मीडिया मे सुनने-पढ़ने और अब उनके मोतिहारी में पदस्थापित होने के बाद मैंने उनसे मुलाकात करने की सोचा। एक निजी कार्य से पिछले दिनों दिल्ली से मुजफ्फरपुर आए साथी अरुण यादव से मुलाकात हुई. व्यस्त कार्यक्रम के बीच अरुण जी ने एसपी कुमार आशीष जी से मिलने मोतिहारी चलने का कार्यक्रम बनाया और हम लोग पहुंच गए कुमार आशीष जी के दफ्तर।
पुलिस लाइन पहुंचते ही एसपी कार्यालय के सामने के मैदान में अपनी गाड़ी पार्क कर हम दोनों उनके कुमार आशीष जी के चैम्बर की ओर बढ़े। चेम्बर के सामने बरामदे पर एक पुलिस कर्मी खड़ा मिला । हम दोनों बिना अपना परिचय दिए (उस पुलिस कर्मी ने परिचय पूछा भी नहीं ) कार्यालय के बरामदे की सीढियां चढने लगे। उस पुलिसकर्मी ने ‘ साहब अभी कुछ ही समय मे आने वाले हैं ‘ कहते हुए विनम्रता पूर्वक वहीं कतार में लगी कुर्सियों की ओर इशारा करते हुए बैठने का आग्रह किया। मैंने सोचा, ऐसा भी कहीं होता है ? न जान न पहचान और ऐसा सम्मान ! अबतक तो पुलिसिया रौब-दाब से ही पाला पड़ता रहा है। थाने पर जाइए और थानाध्यक्ष के बारे में किसी पुलिसकर्मी या चौकीदार से पूछिए तो बैठने को कौन कहे, सीधी मुंह बात भी नहीं करता और यहां इतनी विनम्रता ! पहली ही नजर में कुमार आशीष जी की नई कार्यसंस्कृति से परिचय हुआ। तबतक दो दर्जन फरियादी वहां पहुंच चुके थे जिसमें आधा से अधिक महिलाएं थीं। उन्हें भी सम्मान बैठाया जा रहा था।
कुछ ही मिनट बाद वहां तैनात पुलिसकर्मियों को चौकन्ना होते देखा तो लगा, एसपी साहब आ रहे होंगे। वे आए और सीधे अपने कक्ष में चले गये। गाड़ी से उतर कर जैसे ही वो ऑफिस की तरफ बढ़े हम दोनों पर नजर पड़ी और एक दूसरे का अभिवादन किया। दफ्तर में जाने के बाद उन्होंने अरुण जी को अंदर भेजने के लिए बोला और फिर हम दोनों अंदर चले गए. उन्होंने सम्मान सामने की कुर्सी पर बैठाया।
डाक्टर कुमार आशीष की इस नई कार्य संस्कृति को मैंने प्रत्यक्ष महसूस किया था सो बेझिझक मैंने उनसे कहा ‘मैं 70 साल का हूं और अब तक मुझे किसी भी डीएम, एसपी से मिलने में जो झिझक होती थी, आपके कार्यालय में आकर और आपसे मिल कर वह झिझक दूर हो गई। अब मैं आपसे बेझिझक बात कर सकता हूं ‘वे हल्के मुस्कुराए और कहा ‘ डीएम, एसपी भी पहले इंसान ही तो होते हैं।’
मैंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- ‘अपने बचपन की पढ़ाई-लिखाई के बारे में कहिए’
कुमार आशीष कहने लगे- ‘मेरी हाई स्कूल तक की शिक्षा गांव के सरकारी स्कूल में हुई। मैं जिस स्कूल में पढ़ता था उसे लंगड़ा स्कूल कहा जाता था। मै चौंका, लंगड़ा स्कूल ? उन्होंने बताया वहां के हेडमास्टर एक पैर से विकलांग थे। साईकिल नहीं चढ़ पाते थे सो घोड़े पर स्कूल आते थे (आशीष जी जमुई के सिकन्दरा गांव के रहने वाले हैं )। इसलिए उस स्कूल का नाम ही लोगों ने लंगड़ा स्कूल रख दिया था। वे साईंस के विद्यार्थी थे। कक्षा में जब साईंस टीचर पढ़ाने आते तो छात्रों को कांपी पर सिर्फ राम राम या सीताराम लिखने को कहते। हां , एक शिक्षक थे जो बच्चों को खूब अच्छी तरह नैतिक शिक्षा देते थे। उसका उधर काफी प्रभाव पड़ा है। फिर कुमार आशीष की उच्च शिक्षा का सफर जेएनयू तक जारी रहा।
मेरा उनसे अगला सवाल था, नालंदा में काफी विथ एसपी, किशनगंज में कोरोना काल के दौरान पुलिस रसोई मधेपुरा में लव योर पुलिस और यहां मोतिहारी में ?
कुमार आशीष — मोतिहारी का क्षेत्र काफी बड़ा है। यहां यह सम्भव नहीं कि लोग अपनी समस्याएं लेकर आसानी से एसपी से उनके कार्यालय आकर मिल सकें, अपनी पीड़ा बयां कर सकें । काफी दूरी और बीहड़ रास्तों से चलकर उन्हें यहां तक आने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसलिए उन्होंने थाना दिवस आयोजित करने का निर्णय किया है। सप्ताह में एक दिन यह थाना दिवस आयोजित होगा। वहां पुलिस के डीएसपी स्तर के अधिकारी रहेंगे। उनके सामने ही फरियादियों की शिकायतों का निबटारा होगा। ऐसे में नीचे के अधिकारी कोई हीला-हवाला नहीं कर सकेंगे । वे खुद भी थाना दिवस पर किसी एक थाने पर उपस्थित रहेंगे। थाने से फरियादियों की शिकायत आन लाईन सुनी जाएगी।
आज बुधवार (16 फरवरी) से थाना दिवस की शुरुआत भी हो गई । एसपी कुमार आशीष खुद इस कार्यक्रम के दौरान तुरकौलिया थाने पर मौजूद रहे।
अपराध और अपराधियों के प्रति इनके जीरो टालरेंस का यह उदाहरण है कि योगदान के 40 दिनों के अंदर (10 फरवरी तक) 1200 अपराधियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जा चुका है। मोतिहारी के चरखा पार्क में बापू की प्रतिमा तोड़ने वाले की 12 घंटे के अंदर गिरफ्तारी उनकी चुस्त पुलिसिंग का उदाहरण है।
हमारी उनसे मुलाकात करीब 15-20 मिनट की रही। फिर वे अपने काम में व्यस्त हो गये और मैं यह सोंचते उनके चैम्बर से बाहर आया कि गांव के ‘लंगड़ा स्कूल’ का यह विद्यार्थी बिहार की लंगड़ी पुलिस व्यवस्था में सुधार लाकर उसे पब्लिक फ्रेंडली बनाने का जो प्रयास कर रहा है उसमे सफलता जरूर मिलेगी।
ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।