प्रतिमा  तोड़ देने से गांधी जी विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता

प्रतिमा  तोड़ देने से गांधी जी विचारों को नष्ट नहीं किया जा सकता

ब्रह्मानन्द ठाकुर

  मन बहुत व्यथित है। इस व्यथा का कारण है , मोतिहारी में महात्मा गांधी की प्रतिमा का तोडा जाना। एक दुष्ट व्यक्ति ने रविवार ( 13 फरवरी ) की रात मोतीहारी के चरखा पार्क स्थित बापू की आदमकद प्रतिमा को तोड कर नीचे गिरा दिया। हालाकि मोतीहारी पुलिस ने 12 घंटे के अंदर प्रतिमा तोडने वाले को गिरफ्तार कर लिया है।उसका नाम राजा उर्फ राजकुमार मिश्रा है। वह पेशे से मोटरसाइकिल मिस्त्री है।पुलिस के समक्ष दिए अपने  वयान मे उसने प्रतिमा तोडे जाने की घटना को स्वीकारते हुए पुलिस को बताया है कि वह नशे का आदी है और नशा के लिए अक्सर  ह्वाइटनर सूंघता रहता है। खैर। किसी की प्रतिमा तोड देने से उसके विचारों को नष्ट नहीं  किया जासकता। हां , वस्तुगत परिस्थिति बदलने से विचार परिवर्तित जरूर होता है।

 मेरी व्यथा का कारण दूसरा है , और वह यह है कि जिस गांधी ने आज से 105 साल पहले चम्पारण पहुंच कर यहां के किसानों को नीलहों के आतंक से मुक्त कराया था। निरक्षता का अभिशाप झेल रहे चम्पारण वासियों के बीच शिक्षा का अलख जगाया था। बुनियादी शिक्षा की नींव डाली थी। इसके लिए अपने राज्य गुजरात से स्वयंसेवी शिक्षक , शिक्षिकाओं को बुला कर   नव स्थापित विद्यालयों मे पठन – पाठन शुरू कराया।बच्चों को बालमजदूरी से मुक्त कराकर विद्यालय भेजने को प्रेरित किया था। महिलाओं में स्वच्छता ,इज्जत और सम्मान की जिंदगी जीने की आदत डलवाई और और किसान- मजदूरों को निर्भीकता से अपने हक और सम्मान के लिए लडना सिखाया। नीलहों  द्वारा किसानो से जबरन वसूला जाने वाला हुण्डा ,हरजाना ,शहरवेशी , तमस्सुक ,पैनखर्चा   ,  तिनकठिया सहित सभी 46 तरह के  करों से मुक्त करा दिया।  जिस निहत्थे पैगम्बर  के सामने अंग्रेजों के होश गुम हो जाते थे , आज उसी गांधी की  प्रतिमा , उन्ही की कर्मस्थली  चम्पारण ( मोतिहारी ) मे  एक सिरफिरे ने रात के अंधेरे में तोड दिया। यह प्रतिमाभंजक तबके  तीसरी पीढी  का दिग्भ्रमित युवा है। पहली पीढी ने   गांधी को चम्पारण आंदोलन में तनमन से साथ दिया था। उनके बताए रास्ते पर चलने का दृढ निश्चय किया  और आजादी हासिल की थी । दूसरी पीढी ने आजाद हवा मे सांसे लेनी शुरू की और तीसरी पीढी आते – आते यह क्या होने लगा ? मेरी व्यथा का कारण यही है। कोई ज्यादा अरसा तो नहीं हुआ है ।  सौ – सवा सौ साल ही तो हुए हैं। तब हमसे पहली पीढी का जमाना था जिन्होने समता ,स्वतंत्रता और बंधुत्व की सीख दीः उसके बाद हमारी पीढी  आयी , जिसने कुछ हद तक पुराने आदर्शों को बचाए ,बनाए रखा और अब तीसरी पीढी की कृतघ्नता सामने है। हमारे  तमाम उन्नत आदर्श और नीति – नैतिकता धूलि – धूसरित किए जा रहे हैं। यह भी अकारण और अकस्मात नहीं है। इसकी पृष्ठभूमि तो गांधी के बाद ही बननी या कहिए बनाई जानी शुरू हो गई थी। गांधी अक्सर कहा करते थे ,कोई भी फैसला लेने से पहले समाज के  निचले पायदान पर बैठे लोगों को देख कर ही लिया जाना चाहिए।   गांधी की हत्या के बाद से तो हमने एक – एक कर  उनके सपनों को  तोडना शुरू कर दिया। कहां गया उनका ग्रामस्वराज और स्वावलम्बन का सपना ? वस्त्र स्वावलम्बन के बारे मे उनका कहना था —- जो पहने ,वह काते और जो काते वह पहने। ऐसी थी खादी वस्त्र उत्पादन की उनकी धारणा। स्वदेशी आंंदोलन के दौरान गांव – गांव मे चरखा – करघा की शुरुआत हो गई थी। फिर खादी उत्पादन संस्थान स्थापित हुए। लोगों  को रोजगार मिलना शुरु हुआ। गांधी जी की विचारधारा के अनुरूप अनेक कुटीर उद्योग शुरू हुए। इनके विभिन्न उत्पादों के शुद्धता की गारंटी निर्विवाद थी। गांव मे रोजगार के अवसर  उपलब्लध हुए सो अलग ।  कालक्रम से ये सारी संस्थाएं  मृतप्राय हो गई। कई जगहों पर तो ये संस्थाएं खंडहर बन कर बीते दिनो की याद दिला रही हैं। पूंजीवादी उत्पादन पद्धति ने गांधी के ग्राम स्वराज के सपनो को चूरचूर कर दिया है। दुख इसी बात का है कि हमारी वर्तमान पीढी अपने महापुरुषों की   गौरवपूर्राण विरासत  को भी नष्ट करने पर आमादा है। इस पीढी को   वर्तमान मरनासन्न पूंंजीवादी व्यवस्था के कुचक्र से बाहर निकाल कर ही हम अपनी गौरवपूर्ण विरासत को बचाए रखते हुए  उन्नत नीति- नैतिकता  के आधार पर सुसंस्कृत समाज  की स्थापना कर सकते है। मैं आशान्वित हूं कि

 ‘ छिप- छिप अश्रु बहाने वालो!

मोती व्यर्थ  लुटाने वालो!

 कुछ सपनो के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।’