संजय रोकड़े
मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में किसानों के साथ जो भी हुआ वह लोकतंत्र ही नही बल्कि प्रदेश की शिवराज सरकार पर भी काला दाग साबित हुआ है। जिन किसानों के वोट पर आज भाजपा प्रदेश में सतारूढ़ है उन्ही किसानों को सीने में गोली मारकर मौत के घाट उतारा जा रहा है। खुद को किसान का बेटा तो कभी खुद को ही किसान बताने वाले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान तो तब सारी हदें पार कर देते है जब वे मरने वालों को किसान न मान कर असामाजिक तत्व करार दे देते है। जिस तरह से शिवराज सिंह अपनी पार्टी की हां में हां मिला कर पार्टी नेताओं के साथ राग में राग अलाप रहे है वह सरासर गलत है। जब किसानों को अपने वाजिब हक के बदले सीने में गोलियां खाना पडें यह कौन सा न्याय है। किसानों को अपना हक मांगने पर गोलियां खाना पड़े तो यह शिवराज सरकार की नाकामी ही कही जा सकती है। अपने माथे पर लगे इस दाग को मिटाने का शिवराज कितना भी प्रयास करे , इसे विरोधी दल की साजिश बता कर किसान व जनता का ध्यान हटाने का प्रपंच रचे लेकिन यह दाग मिटाया नहीं जा सकता है। मंदसौर में आंदोलन कर रहे 6 किसान बेसमय मौत के आगोश में समा गए। गोलीबारी में मारे गए किसानों की मौत के बाद कथित किसान हितैषी नेता अपने रुख-रवैये पर विचार करे तो ही बेहतर होगा।
अब पक्ष-विपक्ष क्या हर किसी को किसानों को भड़काकर राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज आना चाहिए। राज्य सरकार को भी इन किसानों की मौत के लिए केवल पुलिस-प्रशासन को जिम्मेदार बताकर समस्या से बचने का उपाय नही करना चाहिए। यह विवाद का सरलीकरण करना मात्र है। जिस तरह से राज्य सरकार बयान बाजी कर रही है वह भी शर्मनाक है। सरकार के नुमांइदों खास कर गृह मंत्री की मानें तो गोली पुलिस ने नहीं चलाई हालांकि बाद में अपनी बात से पलट कर वे यह कहने लगे कि गोली पुलिस ने ही चलाई यह भी कितना हास्यास्पद है। बहरहाल इस घटना का चिंताजनक पहलू यह रहा कि प्रदेश के गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह शुरू में तो ये कहते रहे कि पुलिस की तरफ से कोई गोली नहीं चलाई गई बल्कि भीड़ में अराजक तत्वों की गोली से किसान मारे गए, यह कितना गैर जिम्मेदाराना बयान है। यहां तक कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कांग्रेसी नेताओं पर घटना को राजनीतिक रंग देने का आरोप लगाया। लेकिन, शाम होने तक जब स्थिति ज्यादा गंभीर हो गई तब कहीं जाकर मुख्यमंत्री ने न्यायिक जांच कराने और मुआवजे का एलान किया। सवाल है कि ऐसी दर्दनाक घटनाओं पर क्या दोषारोपण और बयानबाजी करनी चाहिए ? विरोधाभास यह भी कि जिलाधिकारी का कहना है कि प्रशासन की ओर से गोली चलाने का कोई आदेश नहीं दिया गया था फिर, किस हालत में गोली चलाई गई ?
असल में मंदसौर की पिपल्यामंड़ी में जिस तरह से किसानों के साथ बरताव हुआ है उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि आज की तारीख में किसानों का सच्चा हितैषी कोई भी नहीं है। स्वंय शिवराज भी नही। भले ही वे खुद को किसान करार देकर किसानों के साथ भावनात्मक शोषण करते, पर वह भी सही मायने में किसानों के हितैषी नही है। मंदसौर में हुई घटना बहुत ही दर्दनाक, दुखद , निंदनीय और शर्मनाक है। देश के लिए अन्न उपजाने वाला किसान अगर अपने हक के लिए संघर्ष करते वक्त मौत के घाट उतार दिया जाए तो इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या हो सकती है? जो किसान पूरे प्रदेश ही नही बल्कि देश का अन्नदाता है वह जब अपने वाजिब हक के लिए भिखारियों की तरह सरकार के सामने गिडगिड़ाता रहे और जब उसे आश्वासन भी मिलते न दिखे और हिंसा की तरफ बढऩे लगे तो यह किसका फैल्यूअर है ? किसान या सरकार का ? राज्य में हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर रहे है। कर्ज के बोझ तले दबे लाखों किसान घर-बार और जमीन से बेदखल होकर पलायन को मजबूर हो रहे है लेकिन सच को नजर अंदाज कर सरकार झूटे आंकडों के सहारे किसान और जनता को मूर्ख बनाने का काम करने से बाज नही आ रही है। किसान आंदोलन ने आज जिस तरह का उग्र रूप घारण किया है उसके लिए भी कोई और नही बल्कि स्वंय मुख्यमंत्री ही जिम्मेदार है।
बता दें कि आंदोलन के शुरूआती दौर से ही किसान मुख्यमंत्री से बात करने पर लालायित थे लेकिन शिवराज ने उनको हल्के में लेकर तवज्जो नहीं दी। किसान इस बात पर अड़े रहे कि जब तब खुद सीएम बात नहीं कर लेगें तब तक आंदोलनरत रहेगें। इसके बावजूद सीएम ने कोई सकारात्मक पहल नही की और अपने मंत्रियों व अफसरों को किसानों से बातचीत में लगा दिया। असर ये हुआ कि नाराज किसानों को कोई उम्मीद नही दिखी और हिंसा का रास्ता अख्तिायार कर लिया। रही-सही कसर भारतीय किसान संघ ने पूरी कर दी। असल में ये आंदोलन किसानों का स्व प्रेरित आंदोलन था इसका नेतृत्व कोई भी किसान संगठन या किसान नेता नही कर रहा था बल्कि यह सोश्यल मीडिय़ा के सहारे आगे बढ़ रहा था। किसान स्वयं टोलियां बना कर अपनी वाजिब मांगों को लेकर सडकों पर उतर रहे थे, जब यह आंदोलन सफल होते दिखाई दिया तो हर कोई श्रेय लेने लगा। जो नेता, किसान संघ और लोग इससे दूर- दूर तक जुड़े नही थे वे भी एक समय के बाद अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए सामने आने लगे। इनमें सबसे प्रमुख आरएसएस व भाजपा समर्थित भारतीय किसान संघ रहा। इसने बेवजह की राजनीति खूब की। जिन किसानों ने इस आंदोलन की रूपरेखा रखी थी उनको नजर अंदाज कर बाले-बाले ही भाकिसं ने मुख्यमंत्री से भेंट कर किसानों की मांगे मानने की घोषणा कर दी जबकि इसका तो कोई हक बनता ही नही था। भाकिसं के श्रेय लेने और सीएम से बात कर मांगे मानने की नाराजगी के चलते ही आंदोलनरत किसानों का गुस्सा फिर से उबाल खाने लगा और देखते ही देखते उग्र रूप में सामने आ गया। अब तो हर कोई इस आग में घी ड़ालने का काम करने लगा था। स्वयं शिवराजसिंह ने किसानों की मौत के रूप में अपने दामन में लगे दाग को मिटाने के लिए कांग्रेस पर किसानों को भड़काने का आरोप जड़ दिया। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति शुरू हो गई।
दरअसल मंदसौर, देवास और अन्य जिलों में हालात काबू करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार को जिस तरह से केंद्रीय सुरक्षा बलों की जरूरत पड रही थी उससे यह स्पष्ट है कि वह समय रहते इसका अनुमान नहीं लगा सकी कि किसानों का यह आंदोलन किस रास्ते पर जा रहा है? मध्यप्रदेश में किसान कई मांगों को लेकर पहली जून से ही मालवा-निमाड़ के बरीब 12 जिलों में सक्रिय रूप से आंदोलन कर रहे थे। यह सरकार की अदूरदर्शिता ही कही जाएगी कि उसने समय रहते किसानों से बातचीत करने की कोई कारगर पहल नहीं की, जिससे उनके बीच आक्रोश बढ़ते चला गया। अब केवल यह कहने से काम नहीं चलने वाला कि किसानों के बीच असामाजिक तत्व सक्रिय थे और विरोधी नेता संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए माहौल बिगाडऩे का काम कर रहे थे। असल में राज्य सरकार को इसकी चिंता पहले दिन से ही करनी चाहिए थी कि किसानों के बीच शरारती तत्व सक्रिय न होने पाएं। अब तो कई सवालों के साथ ही इसका भी जवाब देना होगा कि क्या किसानों को उकसाने में खुद भाजपा के असंतुष्ट नेताओं का भी हाथ रहा है? इस सवाल का जवाब चाहे जो भी हो लेकिन , यह ठीक नहीं कि राज्य सरकार पहले किसानों की जिन मांगों को मानने से इंकार कर रही थी उनके प्रति अब नरम रवैया क्यों अपना रही है ? या तो पहले उसका रुख सही नहीं था या फिर अब? सबसे पहले तो शिवराजसिंह सरकार को खासकर स्वंय सीएम को यह सोचना होगा कि आखिर किसानों ने इतना हिंसात्मक रूख क्यों अपनाया ? क्या सरकार की नीतियां दिखाने की और काम करने की अलग-अलग नही रही थी। अब शिवराज सरकार अपनी नाकामयाबी से बचने के लिए तरह-तरह के हथकंड़े अपना रही है।
आपको ये साफ तौर पर बता दे कि इस आंदोलन में किसी भी किसान ने या किसान संगठन ने सबसे पहले कर्जमाफी की मांग नही रखी थी बल्कि वह तो अपनी उपज का सही दाम दिलाने की गुहार ही लगा रहे थे। लेकिन शिवराज सरकार है कि अब मुद्दे से भटकाने के लिए यह बयानबाजी कर रही है कि किसानों ने कर्जमाफी के लिए ही यह हंगामा खड़ा किया था। हालांकि यह हो सकता है कि उनकी मांगों में से एक मांग कर्जमाफी भी रही हो लेकिन कर्जमाफी ही आंदोलन का मुख्य आधार था यह सरासर गलत है। किसानों के इस आंदोनल में ऐसी कौन सी बात रही कि शिवराज सरकार को इतनी नागवारा गुजरी और अपनी हत्यारी पुलिस के बल पर बेबस किसानों के सीने पर गोलियां चलवा दी। सरकार से मेरा आग्रह है कि वह जिंसों के बिना वजह आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाए। जो लोग बेवजह किसानों को फल और सब्जियां उगाने की सलाह देते हैं, उनसे भी मेरी विनती है कि क्या हमारे देश में फलों और सब्जियों के संरक्षण के लिए पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोरेज हैं? क्या फल और सब्जियों की पैकिंग की व्यवस्था है? क्या फल और सब्जियों की उचित मूल्य पर खरीद के लिए मंडियां हैं? अगर नहीं, तो फिर किसानों को ऐसी सलाह क्यों दी जाती है? किसानों की बाजार में जब तक भागीदारी नहीं होगी, तब तक किसानों की उपभोक्ताओं तक सीधी पहुंच नहीं होगी। इसके साथ ही बाजार से बिचौलियों को तब तक हटाया नहीं जाएगा तब तक किसानों का भला होने वाला नही है। किसान और उपभोक्ताओं दोनो ही परेशान होते रहेंगे। दो-तीन रुपये किलो बिकने वाली सब्जी बाजार में कैसे बीस से पच्चीस रुपये हो जाती है? यह दोष नीतियों का नही है तो फिर किसका है? सच पूछो तो सरकार का समर्थन मूल्य घोषित करने का इरादा ही नही है। अभी तक सरकार ने सही समर्थन मूल्य घोषित नहीं किया है। काबिलेगौर हो कि लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कृषि उपज की लागत का निर्धारण 50 फीसदी लाभांश जोड़कर देने का वायदा किया था लेकिन केन्द्र में तीन साल तक सत्ता का मजा चखने के बाद भी वह यह वादा निभा नही रही है। एक तो सरकार ने सही समर्थन मूल्य घोषित नही किया वहीं किसानों को इस मूल्य से कम कीमत पर मंड़ी में अपनी उपज बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। बतौर एग्जांपल गेहूं पर समर्थन मूल्य यदि 1525 रूपये क्विंटल है तो मंड़ी में किसानों को मजबूरन 1300 रूपये क्विंटल बेचना पड़ा है। यही हाल प्याज और आलू के है। इन सभी फसलों की खरीद बिक्री के रिकार्ड मंड़ी में रखे है चाहे तो सरकार जांच कर किसानों के नुकसान की भरपाई कर सकती है। अगर ये न भी कर पाए तो कम से कम राष्ट्रीय किसान आयोग की उस रिपोर्ट को ही लागू कर दे जो 15 अगस्त 2007 से लागू होने की बांट तक रही है।
बहरहाल यक्ष प्रश्र है कि आखिर कब तक यूं ही किसान को सड़क पर आने को मजबूर होना पड़ेगा। कब किसानों की खुदखुशी का सिलसिला थमेगा। यह विडंबना ही है कि अन्नदाता कहे जाने वाले किसान को गोलियों का सामना करना पड़ रहा है। हालाकि मध्यप्रदेश में ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है बैतूल का किसान गोली कांड आज भी लोगों के जैहन में जिंदा है। लेकिन मंदसौर की घटना गंभीर चिंता के साथ ही एक बड़ी चेतावनी भी है।
संजय रोकड़े, इंदौर । लेखक मीडिय़ा रिलेशन पत्रिका का संपादन करने के साथ ही सम-सामयिक विषयों पर कलम चलाते है। मोबाइल नंबर 9827277518 पर संपर्क कर सकते हैं ।