पुरखों को याद करें, लेकिन बुजुर्गों की इज्जत करना ना भूलें

पुरखों को याद करें, लेकिन बुजुर्गों की इज्जत करना ना भूलें

फोटो- अजय कुमार, कोसी , बिहार

ब्रह्मानंद ठाकुर

घोंचू भाई  आज साइकिल से बाजार गये हुए थे। लौटने में देर हो रही थी। हम मनोकचोटन भाई के तिनटंगा चउकी पर गमछा बिछा के अराम कर रहे थे। बिजली कट गई सो मनसुखबा किताब-कांपी समेट कर कोठरी में रख दिया और लालटेन जलाने चला गया। इन्ने कुछ दिन से सांझ में जब लाईन कटता हय त रात में दस बजे से पहिले नहीं आता है। उधर बिजली गई और इधर मनसुखबा को पढाई से छुट्टी। कहता है कि लमटेम के रोशनी में ठीक से बुझैवे नहीं करता है।मनसुखबा लालटेन जला कर दूरा पर रख दिया त तनिका इजोत  बुझाने लगा।  मनकचोटन भाई और बटेसर दोनों गांव के चउक से घूम-घाम के आए और मनकचोटन भाई मनसुखबा को खटिया निकालने को कहकर अंदर कपड़ा बदलने चल गये। ‘ आओ बटेसर बैठो, घोंचू भाई अभी तक शहर से लौटे नहीं’  कहते हुए मैंने बटेसर को अपने बगल में बैठने का इशारा किया। बटेसर मेरी बगल मे बैठ गया। मनकचोटन भाई भी कपड़ा बदल कर आज की बतकही में शामिल हो गये। इसी बीच घोंचू भाई साइकिल से  पहुंचे और साइकिल औरा के पेड़ में ओगंठा के ललका गमछा से चेहरे का पसीना पोंछते हुए उसी तिनटंगा चउकी पर बइठ गये। ‘ ठीके पुरनका लोग कहते थे कि भादो का रउदा  बड़ा नामी होता है। देखो न अन्हार हो गया और गरमी अइसा की हालते खराब कर रहा है, पहिले एक लोटा पानी पिलाओ ।’

 घोंचू उवाच पार्ट-13

मनसुखबा चापाकल चला कर एक लोटा पानी घोंचू भाई को थमाया। भर छाक पानी पीकर घोंचू भाई बोले- अब बुझाता हय जे जान में जान आया। घोंचू भाई ई बोलिए रहे थे कि मनसुखबा की नजर परसन कक्का पर पड़ी जो माथे पर एगो मोटरी और हाथ में बांस की लाठी लिए खट-खट करते पेठिया से घर की तरफ जा रहे थे। घोंचू भाई ने पुकारा  ‘क्क्का, आप ही का इंतजार था आइज आइए। रे मनसुखबा, क्क्का का मोटरी घरे पहुंचा दो। बड़-बुजुर्ग की सेवा करना लड़िका का कर्तव्य होता है। कहिया सीखेगा ई सब ? ‘

मनसुखबा परसन कक्का के माथा का मोटरी अपना माथा पर रख, उसे लिए हुए उनके घर की तरफ चल दिया। परसन कक्का लाठी दिवाल में टिकाए और  बटेसर के बगल मे बइठ गये। ‘ खइनी बनाओ बटेसर, पैदल चलने में बड़ा थाक जाते हंय अब। ‘  घोंचू भाई ने परसन कक्का से मुखातिब होते हुए पूछा -‘ कहां गये थे कक्का और उस मोटरी में कथी सब था ? आप तो कहियो हाट-बाजार नहीं जाते हैं ! ‘ परसन कक्का खंखार कर गला साफ करते हुए कहने लगे  ‘ देखिए घोंचू भाई, बिहाने भादो का पूर्णिमा है। इसी दिन से पितर पक्ष शुरु होता है। आप त जनबे करते हैं कि पितरपक्ष में हम भर पखवाड़ा अपने स्वर्गीय मां-बाप और अपने पूर्वजों को काफी निष्ठा के साथ पानी देते हैं और उनकी मृत्त्यु तिथि  के दिन श्राद्ध ( पिण्डदान ) करते हैं। उसी का  जरूरी सामान खरीदने पेठियां गये हुए थे। अब आज कल के  लड़िका त ई सब बात मानबे नहीं करता हय सो जरूरी सामान अपने से खरीदना बेहतर होता है। इसी लिए हाट चले गये। बहुत सामान होता है पितृ तर्पण में।  इसलिए पंडी जी से पहिलही लिखवा लेते हैं कि कुच्छो छुटे नहीं। आखिर पितर के आशीर्वादे से न परिवार खुशहाल रहता है।

‘ क्या सब होता है इस पितृतर्पण में कक्का ?’ घोंचू भाई ने पूछा।’ होना तो बहुत कुछ चाहिए घोंचू भाई । लेकिन लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार ही खर्च करते हैं। एकतरह से यह छोटा-मोटा श्राद्ध ही तो हय। देखिए पहिला दिन  की शुरुआत अगस्त मुनिके तर्पण से होती है। अगस्त मुनि से ही 12 गोत्र की पैदाइश हुई है। इसी के तो हम सभी वंशज है न ?  इसमें फुलकी, मकई का बाल, पान, मखान, जौ का आंटा, कसेली, घी, मधु, पका केला, अरबा चावल, खीरा  की तो विशेष जरूरत होती है। फिर पिण्डदान  (श्राद्ध ) के दिन   पितरों की जरूरत  की सामग्री दान करने के लिए कपड़ा, छाता, खडाऊं, चादर ,  अनाज आदि भी लोग दान करते हैं। कुछ सामान तो घर  से ही पूरा हो जाता है मगर अनेक चीजें खरीदनी पड़ती हैं। वही सब लाने आज पेठिया गये थे।

घोंचू भाई बड़े गौर से परसन कक्का से उनके अपने पितरों के प्रति आस्था की बात सुन रहे थे। कहने लगे-  ‘कक्का, आपकी यह आस्था अनुकरणीय है। लेकिन एक बात हम कहना चाहते हैं जो अपने पितरों के प्रति आस्था से भी  जादे महत्वपूर्ण है। अपने जीवित माता-पिता और बुजुर्गों का ख्याल रखना। सभी जानते हैं कि माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों की सेवा  मनुष्य जाति का परम कर्तव्य है। लेकिन लोग इसे मानते कहां है ? आप देखिए न कि धनेसरा अपने अपाहिज बूढ़ मतारी-बाप को तीन बरीस से केना अल्लग कएले हय ?  बुढवा पेंशन जब-जब मिलता हय त ऊ अपना बेटा-बेटी को हुल्का देता है कि जो दादा-दादी से कपड़ा किनबा ले।

विजय पत सिंघानिया

पिछला साल छठ पवनी में त आप देखबे किए कि धनेसरा के माय चोरा क हमक़ो तीन सौ रूपैया दिया और कहा कि बबलुआ  के पैन्ट आ  कमीज और गुलविया के लिए सलवार फ्राक लेते आइएगा। हम लाइयो दिए। मगर छठ के पारन के दिन धनेसरा दुन्नू वेक्ती बुढवा-बुढिया क़े खाने के लिज पूछना त दूर, परसादियो नहीं दिया। छोड़िए धनेसरा के बात। ऊ त गरीब हय। अरे धनिकहा में त अइ से जादे गड़बड़ चल रहा है। अपनही देश में एगो बड़का धनिक हय जेक्कर नाम हय विजयपत सिंहानिया। बड़का कपड़ा मिल के मालिक। ओकरा एक्के गो बेटा। ऊ जब अपन सब दौलत आ घर बेटा को लिख दिया त पता है ?  ऊ बेटा ओकरा घर से निकाल दिया। बाप बेटा में अब केस चलता है।

इतना ही नहीं , मुम्बई की एगो अमीर महिला आशा साहनी का बेटा अमरीका में इंजीनियर था। ऊ अपना बीबी, बच्चा को उहंई अपने जौरे रखले था आ बुढिया बेचारी इहां करोड़ों के घर में असगरे रहती थी। ऊ बेटा को बराबर फोन करती थी कि बउआ अब असगरे न रहा होइय। हमरा अपने जौरे ले चला। लेकिन ऊ कठजीभ बेटा का हिरदे नहीं पसीजा। बेचारी बंदे घर में विलख-विलख कर मर गयी। जानते हैं, ऊ ईंजीनियर बेटा जब एक दिन मुम्बई आया त उसको अपनी मां का कंकाले न मिला।

ई बात ठीक हय कक्का कि हमलोग अपने पूर्वजों को श्रद्धा से याद करें लेकिन उससे भी जादे जरूरत इस बात का हय कि हम अपने मात-पिता, दादा-दादी और पास -पड़ोस के बुजुर्गों का पूरा ख्याल रखें। थोड़ा समय नियमित रूप से निकाल कर उनके साथ बैठें, बतियाएं। उनका हाल-चाल लेते रहें। उनको उनके पोता-पोती से अलग नहीं करें। बच्चे अपने दादा-दादी से बहुत कुछ  अच्छा तो सिखेंगे  ही , उनका भी मन बहलेगा। वे अपने को अकेला महसूस नहीं करेंगे । कक्का, यह समय भूत से ज्यादा वर्तमान को संवारने का है। क्या आपको लगता है कि अपने बुजुर्गों की इसतरह उपेक्षा कर हम अपना ही अहित नहीं कर रहे हैं ?

कल्पना करिए कक्का जब हम बूढे होंगे और हमारे साथ भी  ऐसा ही व्यवहार होगा तब हम कैसा महसूस करेंगे? हमारे बुजुर्गों को आदर, सम्मान और भाव की जरूरत है कक्का। केवल पितृपक्ष में पितरों को पानी देने और उनका श्राद्ध करने से कुछ नहीं होने को। हमें जीवित  ‘पितरों ‘ को ह्रदय से लगाना ही होगा कक्का !   घोंचू भाई  ने जब कपनी बात समाप्त की त़ो मनकचोटन भाई अचानक बोल पड़े, ‘ हां , घोंचू भाई,  बुजुर्ग हमारी थाती हैं, उनकी उपेक्षा से तो हम अपना ही नाश करेंगे। इस बीच मनसुखबा ट्रे में चाय लेकर आ गया और आथ की बतकही पर विराम लग गया।


 

ब्रह्मानंद ठाकुर। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। मुजफ्फरपुर के पियर गांव में बदलाव पाठशाला का संचालन कर रहे हैं।