‘मांगों की फसल’ काटकर लौटेगा किसान !

‘मांगों की फसल’ काटकर लौटेगा किसान !

अरुण यादव

देश का अन्नदाता सड़क पर है फिर भी सरकार सो रही है । आखिर हमारी सरकारों की नींद कब खुलेगी । आखिर क्यों हमारे सियासत दां की नींद तभी खुलती है जब कोई हंगामा होता है या फिर हिंसा होती है । आखिर क्यों किसानों की मांगों पर सरकारें खामोश रहती हैं, आखिर क्यों देश का पेट भरने वाले अन्नदाता को लेकर सरकारें उदासीन होती है । ये ऐसे सवाल हैं जिसका जवाब तलाशा जाना चाहिए ।

ये सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि महाराष्ट्र में करीब 30 हजार किसान 180 किमी पैदल चलकर मुंबई पहुंचे हैं । जरा सोचिए ना कोई बस और ना कोई शोर शराबा । शांतिपूर्ण तरीके से किसानों का हुजूम 6 दिन का सफर तय कर मुंबई पहुंचा । इस मार्च में गरीब, किसान और आदिवासी शामिल हैं । बड़ी संख्या में महिलाएं भी इसका हिस्सा बनीं हैं । जितनी तादाद में ये किसान अपने हक की लड़ाई के लिए दुख और तकलीफ उठाते हुए मायानगरी में पहुंचे हैं उनकी परेशानियों का शायद है मुंबईकरों को एहसास हो, खासकर सत्ता में बैठे नेताओं को तो बिल्कुल नहीं है । लेकिन देश के अन्नदाता को अपने देशवासियों की फिक्र है । तभी तो 30 हजार किसानों के होते हुए भी पिछले 6 दिन में ना तो कोई हंगामा हुआ ना कोई तोड़फोड़ । जरा सोचकर देखिए अगर इतनी संख्या में किसी सियासी पार्टी के लोग किसी मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे होते तो न जाने देश की कितनी संपत्ति जलकर खाक हो चुकी होती ।

हमारा अन्नदाता जितनी संजीदगी से हमसभी का पेट भरता है उतनी ही तल्लीनता से देश की संपत्ति की हिफाजत भी करता है । यही वजह है कि जब किसान मुंबई की दहलीज पर पहुंचे और उन्हें पता चला कि मुंबई और आसपास के इलाकों में छात्रों की परीक्षाएं चल रही हैं तो किसानों ने बिना देर किए अपनी रणनीति में बदलाव किया और दिनभर लगातार चलकर घाटकोपर पहुंचे किसानों ने अपने पैर के छालों की परवाह किए आधी रात को ही मुंबई में दाखिल होने का फैसला किया और ये सब इसलिए नहीं कि पुलिस और प्रशासन की नजर से बचा जा सके बल्कि इसलिए कि सुबह जब छात्र परीक्षा देने के लिए घर से निकलें तो उन्हें रास्ते में जाम जैसी किसी परेशानी का सामना ना करना पड़े । क्या आप सोच सकते हैं कि कोई सियासी मार्च होता तो इतना धैर्य और समझदारी दिखाई जाती, अलबत्ता सरकार पर दबाव बनाने के लिए नेता इसी मौके का फायदा उठाते । खैर यही तो फर्क है अन्नदाता और राजनेता का ।

शायद यही वजह है कि किसानों की आवाज सत्ता तक पहुंचने में काफी देर लगती है । बुधवार को जब किसान नासिक से मुंबई के लिए कूच कर रहे थे तब ना तो मेन स्ट्रीम मीडिया के पास वक्त था और ना ही सरकार के पास की उनकी मांगों को सुनें और समझें, लेकिन जैसे ही किसानों का हुजूम मुंबई के करीब पहुंचा सबकी नींद टूट गई और मुंबई से लेकर दिल्ली तक हलचल तेज हो गई । 11 मार्च की रात सीएम फडनवीस को किसानों से बातचीत करने की सूझी और उनकी बातें सुनने के लिए कमेटी का गठन किया ।

किसानों ने छात्रों की परीक्षा को देखते हुए सरकार को थोड़ी और मोहलत दे दी और आज विधानसभा का घेराव करने की बजाया आजाद मैदान में ही डेरा डालने का फैसला किया। सरकार और किसानों के बीच बातचीत चल रही है लेकिन अभी तक कोई सहमति नहीं बन सकी है । अगर सरकार इनकी मांगें नहीं मानती है तो किसानों का धैर्य जवाब दे सकता है और अन्नादाता किसी भी वक्त विधानसभा की ओर कूच कर सकते हैं । ऐसे में जरूरत इस बात की है कि मुंबईकरों को किसानों की मजबूरियों को समझने की । हो सकता है मुंबईकरों को थोड़ी परेशानी उठानी पड़े लेकिन हमें किसानों के लिए इन मुश्किलों को थोड़ा सहना पड़ेगा, नहीं तो सरकार कानून व्यवस्था का हवाला देकर किसानों के इस आंदोलन को दबाने की कोशिश कर सकती है।

फोटासाभार bbc

किसानों की प्रमुख मांगें क्या हैं ?

स्वामीनाथन आयोगी की रिफारिशें लागू हों ।

किसानों के लिए पूर्ण कर्ज माफी का ऐलान ।

बकाया बिजली बिल माफा किया जाए।

किसानों के लिए पेंशन की व्यवस्था हो।

क्या है स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश ?

किसानों की फसल की लागत का सही निर्धारण

उत्पादन लागते से 50 फीसदी ज्यादा कीमत।

अच्छी क्वालिटी के बीज उचित दाम में मिले ।

गांवों में विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल बने ।

महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड मिले ।

आपदा में मदद के ले कृषि जोखिम फंड बने ।

बेकार पड़ी जमीन के टुकड़ों का सही वितरण हो ।

कृषि योग्य और वनभूमि कारपोरेट को ना दिया जाए ।

फसल बीमा की सुविधा पूरे देश में सही तरीके से मिले ।

किसानों को 4 फीसदी दर से कर्ज देने की व्यवस्था ।

महाराष्ट्र में चल रहा किसानों का आंदोलन देश के किसानों के लिए एक नजीर साबित हो सकता है । किसानों को इस बात को समझना होगा कि उनकी एकता ही उनकी ताकत है । लिहाजा महाराष्ट्र में किसान जिस तरह से धैर्य का परिचय दे रहे हैं उससे यही लगता है कि अपनी मांगों की फसल काटकर ही ये किसान वापस लौटेंगे ।


अरुण यादव। उत्तरप्रदेश के जौनपुर जिले के निवासी। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। इन दिनों दिल्ली में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय।