हिमालय की गोद में बसी एक ऐसी घाटी जहां पहुंचने के लिए आपको करीब 12 हजार फीट की ऊंचाई तक जाना पड़ता है । लेकिन जब आप वहां पहुंचते हैं तो आपको एक अलग दुनिया नजर आती है । जो मानो पूरी दुनिया की सुंदरता को अपने में समेटे हुए हो । हर कदम पर आपको एक नया अनुभव होगा । पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म डायरेक्टर विनोद कापड़ी ने अपनी टीम के साथ बेहद खूबसूरत दारमा घाटी की सैर की । कैसी है दारमा घाटी और कैसा रहा सफर इस बारे में विनोद कापड़ी और उनके टीम के अहम सदस्य अशोक पांडे ने फेसबुक पर सिलसिलेवार तरीके से अपना अनुभव साझा किया है। बदलाव पर पढ़िए दारमा घाटी यात्रा की पहली कड़ी ।
दारमा घाटी की सैर पार्ट-1
अगस्त 1995 में मैंने अपने जीवन की सबसे मुश्किल यात्रा की थी। उत्तराखंड की दारमा घाटी से व्यांस घाटी की। इसके लिए कोई उन्नीस हज़ार फ़ीट ऊँचा सिन ला दर्रा पार करना होता है। इस यात्रा के लिए दारमा घाटी के तीदंग गाँव के लाटू सिंह तितियाल उर्फ़ लाटू काकू हमारे गाइड बने थे। करीब 23 साल बाद एक बार फिर दारमा घाटी के उनके सुदूर गाँव जाना हुआ। ग्यारह बारह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित तीदंग गाँव के बाशिंदे जाड़ों के समय नीचे धारचूला के आसपास के अपने दूसरे घरों में चले जाते हैं और मई-जून में वापस लौटते हैं। हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली न्यौली यांगती के किनारे बसे तीदंग गाँव में जीवन कितना विषम है इसकी कल्पना वहाँ जाए बिना सम्भव नहीं।
घाटी के शुरुआती गाँवों में लोग लौटने लगे हैं लेकिन तीदंग, सीपू और मार्छा में लोगों को आने में अभी समय लगना है। हम मौक़े का फ़ायदा उठाकर तीदंग देख आने का फ़ैसला करते हैं। दुग्तू से दस बारह किलोमीटर दूर स्थित तीदंग गाँव का पुल पार करते ही गाँव की सरहद पर एक आदमी दिखता है। साथ चल रहा दुग्तू गाँव का गणेश मुझसे कहता है – “वो रहे आपके लाटू!” अकल्पनीय ऊँचे, दुर्गम पहाड़-ग्लेशियरों के बीच दिन भर चलने वाली बर्फ़ीली हवाओं और बनैले पशुओं के ख़तरों से लगातार जूझते हुए अपनी सौ-सवा सौ बकरियों, एक गाय, दस दिन की उसकी बछिया और तीन कुत्तों के साथ समूचे गाँव में अकेले रह रहे लाटू काकू से तेईस साल बाद मिलना किसी परीकथा के सच हो जाने जैसा था। जब लाटू काकू से मुलकात हुई और उनकों पिछली मुलाकात याद दिलाई तो वो बरबस ही कह उठे बूढ़ा हो गया हूं यार
दांतू गांव की अन्नपूर्णा
हम कुल आठ लोग थे। रात रहने-खाने का ठिकाना तय नहीं था। ठण्डी हवा के चलते खुले में देर तक रहना मुश्किल हो रहा था। छत और भोजन की दरकार थी। शाम 6 बजे के आसपास दाँतू गाँव पहुँचे तो पाया कि जयन्ती दीदी खच्चरों पर अपना सामान लदवा रही थीं। उनसे मैं अपनी पिछली दारमा यात्रा में मिला था। वे 6 महीने बाद गाँव लौटी थीं। सर्दियों में अत्यधिक ठंड के चलते घाटी के बाशिंदे धारचूला और आसपास की गरम बसासतों की ओर चले जाते हैं। वहाँ भी उनके घरबार होते हैं। उन्होंने खुले दिल से हमारा स्वागत किया। 6 महीनों से बंद पड़ा घर खोला। साफ़ सफ़ाई के बाद राशन लदे कट्टों और अपने गोदाम से आटा-चावल, दाल और सूखा माँस ढूँढ निकाला। आधी रात तक दस बारह भूखे लोगों के लिए रोटियाँ बनाईं। बेहतरीन घी और लज़ीज़ दुँग्चा परोसा। हँसते हुए तमाम उन सवालों का जवाब दिया जो कभी-कभार गाँव पहुँचने वाले हकबकाए शहरी लोग आदतन पूछा करते हैं। सब के लिए पर्याप्त बिस्तर तैयार किया।
सुबह उठकर हम लोग पंचचूली की धवल चोटियों के जादू को निहारने में मसरूफ रहे। उन्होंने आठ बजे तक दस लोगों का नाश्ता तैयार कर दिया था। विदा लेते हुए मेरे मन में बचकाना सा विचार आया कि इन लोगों के लिए कुछ करना चाहिए। सम्मोहक और निश्चल मुस्कराहट चेहरे पर पसारे जयन्ती दीदी अपने द्वार पर खड़ी थीं। अपने मूर्ख विचार पर मैं बस शर्मिन्दा ही हो सकता था।