ब्रह्मानंद ठाकुर
प्रख्यात उपन्यासकार कथाकार मुंशी प्रेमचंद के गोदान का होरी आज भी भारत के खेत -खलिहानो में जिन्दा है। अपने जिन्दा रहने की कीमत वह खेतों में माथा और कलेजा पीट कर चुका रहा है। दुलारी सहुआईन, दातादीन पंडित और मंगरु साहू अपना रूप बदल कर बकाया वसूलने उसके दरबाजे पर रोज सुबह आंखें लाल करता आ धमकता है। होरी असहाय है। गोबर बाप से लड़ -झगड़ कर अपनी बीबी झुनिया को ले कर शहर चला गया। खेती के दिन प्रतिदिन अलाभकर होते चले जाने के कारण वह नहीं चाहता था कि अपने बाप की तरह वह भी खेतों में मर- मर कर एक पाव दूध और दो रोटियों के लिए खुद तरसे और बच्चों को तरसाए। महाजन की घुरकी बर्दाश्त करे। सो भाग गया शहर। बिना मां-बाप को कुछ बताए। दो साल हुए। कोई खोज खबर नहीं ली बूढ़े-बुढ़िया की। सोना-रूपा छोटी दो बहनों को भी भूल गया। कैसे पीले होंगे उसके हाथ , यही सोच-सोच कर परेशान है होरी और धनिया।
जी हां मै आज आधुनिक होरियों की पीड़ा की गाथा सुनाने जा रहा हूं। इस कहानी का एक किरदार मैं भी हूं। छोटी जोत का लघु किसान हूं। चार बीघा जमीन है। बाग-बगीचा, असबारी-बंसबारी समेत। 40साल हुए बैल से हलवाही का जमाना जब लद गया, तबसे दरवाजे पर बैल नहीं रखा। मेरा पांच साल का पोता, जब किसी टायर गाड़ी में बैल को जुता हुआ देखता है तो आश्चर्य मिश्रित खुशी से उछलने लगता है। कभी- कभी उस गाड़ी के पीछे भी दौड़ जाता है। बैल नहीं रहा तो गाय और भैस पालता हूं। एक गाय 18लीटर दूध दे रही थी, अपने ही गाय की जरोह थी। भूसा, चारा-दाना महंगा हो जाने के कारण उसे बेच दिया। बड़ी सहरोस थी। आज भी उसके गुण भूल नहीं पाया। खैर उसी की बछिया है, दरवाजे पर बीते फरवरी मे बच्चा दिया था। तब 12लीटर दूध देती थी। अभी दोनों का शाम में तीन लीटर दूध होता है। एक भैंस है और एक उसकी दो साल की बच्ची। आदमी की तरह ही माल-मवेशियों का फूड हैबिट भी बदल चुका है। साल भर भूसा खिलाना होता है। यदि मजबूरी वश पुआल खिलाए तो कई तरह की परेशानी। दूध उत्पादन में भी कमी। सो साल भर भूसा का जुगाड़।
अभी भूसा एक हजार रूपये क्विंटल तौलकर बिक रहा है। गेहूं दो हजार चार सौ रूपये क्विंटल और चोकर का रेट पिछले एक हफ़्ते से 950 रूपया प्रति बोरा (एक बोरा 38किलो) हो गया है। हरा चारा अलग से। कुल मिलाकर एक दुधारू पशु के भोजन के लिए प्रतिदिन 16 किलो भूसा, कम से कम 3किलो चोकर और 5किलो हरे चारे की जरूरत होती है। ऊपर मैंने चर्चा की है, फूड हैबिट की, सो मिनरल मिक्सचर, खल्ली साल में चार बार कीड़े की दवा अलग से। फिर भी बांझपन की शिकायत हो ही जाती है। मैं खुद अपनी गाय का अब तक चार बार कृत्रिम गर्भाधान करवा चुका हूं। अब किसी घर में मिट्टी की ‘कोही’ में दूध से दही नहीं जमाया जाता। और जब दही ही नहीं तो मठ्ठा कहां से? मठ्ठे से बना मेहजाऊर और मक्के की रोटी-मठ्ठा खाना तो सपना हो गया।
अब तो बथान से दूध बाल्टी मे लेकर सीधे रुख करते हैं दुग्ध उत्पादक सहयोग समितियों के दुग्ध संग्रह केन्द्रों की ओर। यहांमहीना के अंत में भुगतान होता है। फैट और एसएनएफ के आधार पर दूध की कीमत तय होती है। प्रति लीटर दूध की औसत कीमत होती है 25 से 28 रूपये। मैं खुद अब तक नहीं जान पाया कि ये फैट और एसएनएफ क्या चीज है ? और हमारे दूध के उत्पादन से इसका कैसा ताल्लुक है? यदि आप शहर में रहते हैं और क्रीम निकाला हुआ दूध खरीदते हैं तो समझ जाएंगे कि किसानों से खरीदे गये दूध के दाम और उपभोक्ताओं से वसूले गये दूध के मूल्य मे कितना बड़ा अंतर है। यही अंतर तो पैदा करता है परजीवी वर्ग को !
आईए अब चर्चा करें धान की खेती की। इस बार हमारा इलाका भयंकर सूखे की चपेट में रहा। फिर भी किसानों ने ‘हरि जू मेरो मन हठ न तजै’ की तर्ज पर धान की खेती की। हाईब्रिड सीड से लेकर जुताई, कदवा रोपाई, निकौनी, 5 से 8 सिंचाई, खाद उर्वरक, कटाई और फसल तैयार करने में औसतन 24 हजार रूपये प्रति बीघा खर्च आया। और यह जान कर दंग रह जाईएगा। उपज हुई अधिकतम औसत 12क्विनटल प्रति बीघा। सरकार न इस बार धान का न्यूनतम क्रय मूल्य 1470 और 1530 रूपये प्रति क्विनटल निर्धारित किया, लेकिन आज तक किसानों को नहीं पता कि इस मूल्य पर वे कहां जाकर अपना धान बेचें। कहीं-कहीं बिचौलिए 1100 रूपये की दर से धान खरीद रहे हैं। जब किसानों के धान बिचौलिए खरीद लेंगे तो जुगाड़ तकनीक से यही बिचौलिए सरकारी क्रयकेन्द्रों पर सरकार के निर्धारित मूल्य पर धान बेच मालामाल हो जाएंगे और धान क्रय का सरकारी लक्ष्य भी पूरा हो जाएगा। कम से कम अब तक का अपना अनुभव तो यही बताता है।
इधर दुलारी सहुआईन, मंगरू साहू और दातादीन पंडित के रूप मे डीजल वाला, खाद वाला , ट्रैक्टरवाला, दबाई वाला, भूसा वाला , चोकर वाला , कपड़ा वाला , और न जाने कौन-कौन नित सबेरे किसानों के दरबाजे आकर अपने बकाए के भुगतान का तकादा जारी रखे हुए है।कृषि रोड मैप लागू है और किसान माथा पीट रहा है। खेती और पशुपालन किसानों के लिए सांप के मुंह का मेंढक बन गया है, जिसे न निगलते बनता है न उगलते।
ब्रह्मानंद ठाकुर/ बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के रहने वाले । पेशे से शिक्षक फिलहाल मई 2012 में सेवानिवृत्व हो चुके हैं, लेकिन पढ़ने-लिखने की ललक आज भी जागृत है । गांव में बदलाव पर गहरी पैठ रखते हैं और युवा पीढ़ी को गांव की विरासत से अवगत कराते रहते हैं।
shandar report ke liye badhai.