पुष्यमित्र
अगर आज हमारे कोसी के इलाके में दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे की शूटिंग हुई होती तो शाहरुख और काजोल सरसों के बदले मक्के के खेतों में रोमांस करते नजर आते। इस बार जो घर (धमदाहा, पूर्णिया) आया हूँ तो इस इलाके के कतरे-कतरे में मक्का नजर आ रहा है। खेतों में मकई के पौधे और लगभग हर दरवाजे पर सूखता हुआ मक्का।
पिछले एक दशक में कोसी के धनखेता कैसे मक्कालैंड में बदल गये यह सोच कर हैरत होती है। जब मैं अपने गांव में रहता था तो धान, गेहूं, पटुआ, मूंग वगैरह की खेती होती थी। अब तो पटुआ की खेती उजड़ ही गयी। मूंग की खेती भी इक्का-दुक्का किसान करते हैं। मानसून के दौरान कुछ पारम्परिक किसान धान के पौधे बोकर रस्मअदायगी कर डालते हैं, बांकी किसान तो मक्के की तीन फसल उगाने लगे हैं।
दरअसल जहाँ तक मेरी समझ में आ रहा है, ग्लोबल वार्मिंग की वजह से इस इलाके की परिस्थितिकी तंत्र में बड़ा बदलाव आया है। कभी नदियों का जाल होने की वजह से हमारा तकरीबन पूरा इलाका वेटलैंड हुआ करता था, अब लगभग तमाम धाराएं सूख गई हैं। धरती की स्वाभाविक नमी नदारद है। धान, पटुआ यानी जूट और यहां तक कि गेहूं में सिंचाई की जरूरत अधिक होती है। मानसून लगभग हर साल धोखा देने लगा है।
आंधी, बेमौसम बरसात और वक़्त पर पानी की कमी ने लोगों को सतर्क कर दिया है, क्योंकि तकरीबन हर साल कोई न कोई फ़सल मौसम की भेंट चढ़ जाती है। इस बार भी जिन लोगों ने गेंहू की खेती की थी, पछता रहे हैं। ऐसे में मक्के की हरफनमौला फ़सल हर किसी को आकर्षित कर रही है। न पानी की अधिक जरूरत है, न मौसम की मार इसे अधिक परेशान करती है। पैदावार भी ठीक ठाक होती है। खबर है कि बिस्कुट और कॉर्नफ्लेक्स कम्पनियों को यह पसंदीदा इलाका बन गया है।
मक्के के साथ कुछ लोग केले और सूर्यमुखी की खेती जरूर करते हैं, मगर लग रहा है कि आने वाले समय में हमारे इलाके से सुगंधित धान और स्वादिष्ट मूंग की खेती भी खत्म ही हो जाएगी।
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।