मजहब नहीं सिखाता, ‘गांधीवाद’ से बैर रखना!

मजहब नहीं सिखाता, ‘गांधीवाद’ से बैर रखना!

ब्रह्मानंद ठाकुर

बिहार के मुजफ्फरपुर का मझौलिया गांव कभी हथकरघा उद्योग के लिए जाना जाता था। आज यहां काफी कुछ बदल गया है। एक-दो परिवार हैं जो हथकरघा को जिंदा रखे हुए हैं। पहले इस गांव में करीब 150 हथकरघे हुआ करते थे। जो अब 2 तक आकर सिमट गए हैं। बिहार समेत पूरा हिंदुस्तान चंपारण का शताब्दी वर्ष मनाने में जुटा है। हर कोई महात्मा गांधी को अपने-अपने तरीके से याद कर रहा है। लेकिन गांधी की स्वराज सम्बंधी अवधारणा को पुनर्जीवित करने की प्रतिबद्धता कहीं नजर नहीं आ रही।

मुजफ्फरपुर में पिछले दिनों गांधी हेरिटेज वाक आयोजन हुआ, लेकिन मूल भाव नदारद दिखे। महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन में मुजफ्फरपुर के खादी कार्यकर्ताओं और बुनकरों ने बड़ी उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। लिहाजा यह जरूरी है कि आज हम गांधी के स्वराज आंदोलन के मतलब को समझें। खादी को लेकर गांधीजी ने कहा था- काते सो पहने और पहने सो काते। तब बड़े उत्साह से लोग खादी आंदोलन में जुट गये थे।

मझौलिया गांव के  75बर्षीय बुजुर्ग मोहम्मद अमीरुद्दीन बताते हैं कि उनके दादा मखनुल्ला मियां स्वदेशी आंदोलन के दौरान सिर पर मोटा कपड़ा लादे घूम-घूम कर खादी बेचा करते थे। काफी मोटा होने के कारण खादी के कपड़े को तब लोग मोटिया कहते थे। अपने पिता मोहम्मद सुलेमान की तरह मोहम्मद नुरुद्दीन ने भी अपने इस पुस्तैनी पेशे को अपनाया। आज वे 78 साल के हो चुके हैं फिर भी कपड़ा बुनने का काम करते हैं। दो बेटे हैं मोहम्मद अलाउद्दीन और मोहम्मद नशीम। दोनों कोलकाता में किसी बैग निर्माण कम्पनी में मजदूरी करते हैं।  कहते हैं नयी पीढी को अब यह पुश्तैनी पेशा मंजूर नहीं है क्योंकि अब इससे भरण पोषण नहीं हो पाता। मोहम्मद अमीरूद्दीन के पास दो पावर लूम है। बगल के नरसिंहपुर खादी भंडार से इन दिनों उनको साल भर का काम मिल जा रहा है। करघे पर कपड़ा बुनना अकेले का काम तो है नहीं सो पोता और पोती इस काम में उनकी मदद कर देते हैं।

गांव के जिस दूसरे परिवार में हस्तकरघा अब भी है वह अब्दुल रहमान का परिवार है। वे बताते हैं कि मझौलिया गांव बड़ा गांव है। यहां नुनफर, मस्जिटोला, तेगियाटोला और उत्तर टोला नाम के चार टोले हैं । 65 बर्षीय अब्दुल रहमान कहते हैं कि जब उन्होंने होश संभाला तब गांव के हर घर में हस्तकरघा था और कपड़ा बुनना ही उनकी रोजी-रोटी थी। उस वक्त बाजार में इन कपड़ों की अच्छी मांग थी। कहीं प्रतिस्पर्धा नहीं थी। तब गांव में 150 हस्तकरघे थे। 1961 में पहली बार गांव में बिजली आई । तब को-आपरेटिव सोसाईटी से 50 पावरलूम गांव में लगाए गए। जिससे कपड़ा बुनना पहले से आसान हो गया। इस पेशे के प्रति युवा वर्ग में आकर्षण भी बढ़ा। हालांकि यह खुशफहमी  ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाई। पहले तो बिजली की अनियमित आपूर्ति से काम बाधित हुआ और बाद में बिजली परमानेन्ट गायब हो गयी। कपड़ा बुनने वाले हाथ बेकार हो गये। बिजली आपूर्ति के लिए धरना प्रदर्शन हुआ लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। पावरलूम ने तो पहले ही हस्तकरघे को विस्थापित कर दिया था।अब पावरलूम  बंद था और बिजली बिल का आना जारी। लोगों ने अपना अपना बिजली कनेक्शन कटवा दिया और यहीं से शुरू हुई पावरलूम के पतन की कहानी।

भागलपुर के बुनकरों को जब इसकी जानकारी हुई तो वे लोग बारी-बारी से यहां के सभी पावरलूम औने-पौने दाम पर खरीद ले गये। बेरोजगारी बढ़ने लगी जिससे युवा रोज-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने लगा। अलीईमाम, मोहम्मद आलम, कलाम, मोहम्मद अब्दुल बताते हैं कि भिवंडी में उन्हें 12 घंटे काम करना होता है और एक साथ उन्हें आठ से चौदह पावरलूम मशीन पर काम करना पड़ता है और मेहनताना मिलता है महज  250 से400 रूपये प्रतिदिन। हस्तकरघे पर कपड़ा बुनने के लिए कम से कम तीन आदमी की जरूरत पड़ती है। जब बुनाई शुरू होती है तो एक आदमी करघा चलाता है और दो आदमी तखनी-भरनी बनाने में लगे रहते हैं ताकि आगे का काम रूके नहीं। 34 नम्बर के सूते की तानी और 12 नम्बर सूते की भरनी से पूरे दिन में साढे ग्यारह मीटर कपड़ा हस्तकरघा पर बुना जा सकता है। तीन आदमी मिलकर यह काम पूरा करते हैं।

खादी उत्पादन संस्था की ओर से इसकी मजदूरी मात्र 102 रूपये दी जाती है। खादी संस्था की और से मजदूरी दर 1912-13 में निर्धारित की गई थी। इस गांव में अधिकांश लोगों के पास खेती योग्य जमीन भी नहीं है जिससे वे अपना गुजारा कर सकें। वक्त की मार ने उनकी कला भी छीन ली है। कपड़ा बुनने वाले हाथों में अब मजदूरी के लिए हंसिया, खुर्पी, कुदाल और करनी-बसुली पकड़ा दिया गया। जिन्होंने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा, वे परदेश की राह चलदिए। यह सब हुआ महात्मा गांधी के सपने के उस भारत के गांवों में जिसे उन्होंने स्वदेशी के माध्यम से कभी आत्मनिर्भर बनने की राह दिखाई थी। इतिहासकारों के मुताबिक स्वदेशी का पहला आह्वान 1905 के बंग-भंग विरोधी जन जागृति आंदोलन के दौरान उठा था। गांधी के 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने से पहले लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष और सावरकर जैसे देश के महान सपूतों ने स्वदेशी का उद्घोष किया था।

महात्मागांधी ने इसी स्वदेशी को स्वराज की आत्मा कहा था। 1915 में दक्षिण अफ्रिका से लौटने तक बापू ने चरखे को तो देखा तक नहीं था। उन्होंने  जब आश्रम की स्थापना की, तब पहली बार करघा बैठाया। यह उन्हें कठियावाड़ में मिला था। मगनलाल गांधी से बुनाई सीखी। फिर आश्रम के कार्यकर्ताओं ने यह कला जानी। देशी मिल से तैयार सूत से इस करघे पर कपड़ा तैयार होता था। बापू चरखे की तलाश में थे कि चरखा मिले तो सूत काता जाए। वे आश्रम में आनेवाले हर एक से चरखे के बारे में जानकारी लेते रहे। साल 1917 में जब वे भडौच शिक्षा-परिषद में गये तो वहां एक साहसी महिला गंगाबाई से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने गंगाबाई से चरखे के बारे में बात की। फिर गंगाबाई चरखे की तलाश में जुट गयी। अंतत: गंगाबाई  को गुजरात में चरखे की खोज करते हुए गायकवाड़ के बीजापुर में चरखा मिल ही गया।  बापू गंगाबाई को जरूरत के लायक रूई की पूनी बनवाकर भेजने लगे और बड़ी मित्रा में वहां सूत की कताई होने लगी। कपड़ा बुनने के लिए करघा तो था ही। इस तरह बापू ने अपने स्वदेशी के साथ देशवासियों को वस्त्र स्वावलम्बन का  पहला पाठ पढाया था। स्वदेशी की उनकी यह अवधारणा भारत के गांवों में स्वर्णिम विहान ला सकती थी बशर्ते आजादी के बाद देश के हुक्मरानों की मंशा इस दिशा में कुछ करने की रही होती।


ब्रह्मानंद ठाकुर/ BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।