संगम पांडेय
जो दर्शक वही-वही नाटक देख-देख कर ऊब चुके हों उन्हें निर्देशक सुरेश भारद्वाज की प्रस्तुति ‘वेलकम जिंदगी’ देखनी चाहिए। इसमें परिहास का पुट देते हुए आज के मध्यवर्गीय जीवन के तनाव और इमोशन को पेश किया गया है। कहानी तो कुछ खास नहीं है और सेट के नाम पर भी हमेशा का ड्राइंग रूम ही है; पर अंदाजे बयाँ में एक अच्छी ताजगी है। माँ-बाप और बेटे की इस तीन पात्रीय न्यूक्लियर फैमिली में जनरेशन गैप पहले जैसा साधारण नहीं है।
पिछले दो-ढाई दशकों की इंटरनेट और मोबाइल क्रांति में ये दो पीढ़ियाँ दो दुनियाओं जैसी हो गई हैं। इसमें पिता तो अपने मलालों, संघर्षों और दुविधाओं में काफी कुछ पुराना ही है, पर बेटा इस बीच काफी बदल गया है। उसकी दुनिया में ज्यादा आगा-पीछा सोचने का वक्त नहीं है, बस खटाक से लिया गया एक फैसला होता है जिसे किसी गुस्से में वह खटाक से रद्द भी कर देता है। ज्यादा खिचखिच उसे पसंद नहीं। सही-गलत की ज्यादा बहस से उसे बोरियत होने लगती है।
गुजराती नाटककार सौम्य जोशी का यह नाट्यालेख पिता-पुत्र की टेंशन को अंततः एक इमोशनल एंडिंग तक ले जाता है। यही उसकी सीमा है। जबकि स्पष्ट दिखता है कि इन दो दुनियाओं के मध्य पसरे अजनबीपन की थोड़ी और थाह ली जा सकती थी। जिसमें छोटे आकार के वास्तविक अनुभव और टेक्नालॉजी द्वारा प्रदत्त बड़े आकार के आभासी अनुभवों के फर्क को चिह्नित किया जाता।
यह बिना ताम-झाम के पेश किया गया एक समकालीन यथार्थ है, जिसमें पात्रों के आपसी संबंध काफी ठोस तरह से प्रस्तुत किए गए हैं, और चरित्रांकन में एक ताजगी लगातार बनी रहती है। जीवन की छोटी-छोटी बातों के गाढ़े तनाव और फिर उनके छँटने पर प्रकट हुई खुशी। इसी सब को सुरेश भारद्वाज एक सहजता के साथ पेश करते हैं। आज के रंगमंचीय परिवेश में तरह-तरह के प्रयोगों के बीच यह यथार्थवादी सहजता एक दुर्लभ चीज हो गई है। लेकिन प्रस्तुति में एक त्रुटि यह है कि माँ बनीं अंजू जेटली मौका-बेमौका किसी स्थिति को बताने के लिए सीधे दर्शकों से मुखातिब पाई जाती हैं। सूत्रधार नुमा यह अवांछित घुसपैठ आज के जमाने में ठीक नहीं है। बात को कहने का ज्यादा मुनासिब रास्ता निकाला जाना चाहिए। गोकि यह प्रस्तुति से ज्यादा आलेख की चूक है।
बात को अगर सही गति में और वाजिब यथार्थ के साथ कहा जाए तो एक रोचकता अपने आप बनती है। अपने क्षीण साधनों में यह प्रस्तुति यही करती है। पति और बेटे के ईगो के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करती गृहिणी की भूमिका में अंजू जेटली और पिता-भाव के आगे जिंदगी के अपने आइडिया को सरेंडर करते पिता की भूमिका में रमेश मनचंदा और बेटे की भूमिका में विवेक राम कनौजिया ने काफी संजीदा अभिनय किया है।
संगम पांडेय। दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। जनसत्ता, एबीपी समेत कई बड़े संस्थानों में पत्रकारीय और संपादकीय भूमिकाओं का निर्वहन किया। कई पत्र-पत्रिकाओं में लेखन। नाट्य प्रस्तुतियों के सुधी समीक्षक।