डॉ. दीपक आचार्य
दक्षिण गुजरात में एक जिला है डांग, यहां शत-प्रतिशत वनवासी आबादी बसी हुई है और यहां आमजनों के बीच मकर संक्रांति को लेकर जितनी जानकारी है शायद ही देश के किसी अन्य हिस्से में इस विषय को लेकर इतनी जानकारी एक साथ एक जगह पर इतने सारे लोगों को हो। बुजुर्ग वनवासियों के मुताबिक इसी दिन से सूर्य का उत्तर दिशा में प्रवेश होता है और सूर्य की किरणें तेजवान होने लगती हैं। सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर समस्त जीवों को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। ज्यों-ज्यों सूर्य प्रवेश उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता जाता है वैसे-वैसे हमारे जीवन में भी सकारात्मकता के भाव आते जाते हैं। सूर्य की इस अवस्था को उत्तरायण के नाम से भी जाना जाता है।
मकर संक्रांति पर तिल की परंपरा क्यों? वनवासी हर्बल जानकारों के अनुसार मकर संक्रांति यानी उत्तरायण में तिल का सेवन अत्यंत जरूरी है। मध्यप्रदेश के पातालकोट इलाके में रहने वाले आदिवासी इस रोज तिल से बने व्यंजन तैयार करते हैं जिनमें तिल की पट्टियां, लड्डू, भूने हुए तिल, तिल पापड़ आदि मुख्य होते हैं। अलग-अलग रूपों में तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ खाना इस दौरान बेहद हितकर माना जाता है। इन तमाम सामग्रियों में सबसे ज्यादा महत्व तिल को दिया जाता है। इसलिए मकर संक्रांति को तिल संक्राति के नाम से भी पुकारा जाता है। तिल और गुड़ पौष्टिक होने के साथ ही साथ शरीर को गर्म रखने वाले भी होते हैं।
इस दौरान चावल व मूंग की दाल मिला कर खिचड़ी और दाल पेजा बनाना भी परंपरा का एक हिस्सा है। जहां एक ओर मसालों में पकी खिचड़ी बेहद स्वादिष्ट, पाचक व ऊर्जा से भरपूर होती है वहीं दालपेजा अरहर और उड़द की दालों का मिश्रण होता है। दालों के मिश्रण से बना ये आहार कई मायनों में खास होता है। इस व्यंजन के बेहद औषधीय गुण हैं। बुजुर्ग जानकारों के अनुसार उड़द के बीजों से प्राप्त होने वाली दाल बेहद पौष्टिक होती है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि छिलकों वाली उड़द की दाल में विटामिन, खनिज लवण खूब पाए जाते हैं। ख़ास बात ये कि इसमें कोलेस्ट्रॉल नगण्य मात्रा में होता है। आदिवासी अंचलों में इसे बतौर औषधि कई हर्बल नुस्खों में उपयोग में लाया जाता है। चावल, गुड़ एवं उड़द खाने का धार्मिक आधार यह है कि इस समय ये फसलें तैयार होकर घर में आती हैं। इन फसलों को सूर्य देवता को अर्पित करके उन्हें धन्यवाद दिया जाता है कि हे देव! आपकी कृपा से यह फसल प्राप्त हुई है। अत: पहले आप इसे ग्रहण करें, तत्पश्चात प्रसाद स्वरूप में हमें प्रदान करें, जो हमारे शरीर को उष्मा, बल और पुष्टता प्रदान करे।
बिहार एवं उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति पर खान-पान लगभग एक जैसा होता है। दोनों ही प्रांत में इस दिन अगहनी धान से प्राप्त चावल और उड़द की दाल से खिचड़ी बनाई जाती है। कुल देवता को इसका भोग लगाया जाता है। लोग एक-दूसरे के घर खिचड़ी के साथ विभिन्न प्रकार के अन्य व्यंजनों का आदान-प्रदान करते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग मकर संक्राति को खिचड़ी पर्व के नाम से भी पुकारते हैं। लोग चूड़ा-दही, गुड़ एवं तिल के लड्डू भी खाते हैं। चूड़े एवं मूढ़ी की लाई भी बनाई जाती है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी और तिल के साथ ही खास तौर पर गुजिया भी बनाते हैं।
दक्षिण भारतीय प्रांतों में मकर संक्राति के दिन गुड़, चावल एवं दाल से पोंगल बनाया जाता है। विभिन्न प्रकार की कच्ची सब्जियों से मिश्रित सब्ज़ी बनाई जाती है। इन्हें सूर्य देव को अर्पित करने के पश्चात सभी लोग प्रसाद रूप में इसे ग्रहण करते हैं। इस दिन गन्ना खाने की भी परम्परा है। पंजाब एवं हरियाणा में इस पर्व में विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में मक्के की रोटी एवं सरसों के साग को विशेष तौर पर शामिल किया जाता है। इस दिन पंजाब एवं हरियाणा के लोगों में तिलकूट, रेवड़ी और गजक खाने की भी परम्परा है। मक्के का लावा, मूंगफली एवं मिठाईयां भी लोग खाते हैं।
गुजरात के डांग जिले के सबसे बुजुर्ग हर्बल जानकार और वैद्य स्व जानू काका अक्सर कहा करते थे कि मकर संक्रांति के बाद के पंद्रह दिनों में ज्यों-ज्यों सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता जाता है त्यों-त्यों मानव शरीर और मानव के इर्द गिर्द घटनाओं में सकारात्मकता आती जाती है। इस दौर में यदि नए व्यवसाय या कार्य की शुरुआत हो तो इन्हें सफलता मिलना लगभग तय होता है। डांग में कुकना, गामित, भीखा, वरली और कुनबी वनवासी अपनी पारंपरिक जीवन शैली में उत्तरायण को विशेष तौर से आज भी अपनाए हुए हैं।
वनवासियों की मान्यता है कि यह काल अंधकार से उजाले की तरफ जाने की तरह होता है। सूर्य की रौशनी ज्यादा समय तक धरती पर पड़ती है, रातें अपेक्षाकृत छोटी हो जाती है। गांव के बुजुर्ग धरती मां, पर्वत और प्रकृति की पूजा कर पिछली फसल के लिए धन्यवाद देते हैं और फसल कटाई का कार्य शुरू करते हैं। मकर संक्रांति के समय वनवासियों का यह विशेष प्रकृति प्रेम एक मिसाल की तरह है। गांव के सबसे ज्यादा सम्माननीय व्यक्ति को इस पूजा अर्चना का दायित्व दिया जाता है। डांग-गुजरात में देव-स्वरूप माने जाने वाले जड़ी-बूटियों के जानकार जिन्हें भगत कहा जाता है, वे इस कार्य का संपादन करते हैं।
मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट में वनवासियों की एक अलग दुनिया है। समाज की मुख्यधारा से कोसों दूर ये आदिवासी आज भी प्रकृति को अपना सबसे बड़ा देव मानते हैं। धरातल से 3000 फीट की गहराई में गोंड और भारिया जनजाति के वनवासी इस घाटी में वास करते हैं। जड़ी-बूटियों का भी इनकी जीवनशैली में एक महत्वपूर्ण स्थान है। प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से जुड़े मकर संक्रांति का इन आदिवासियों के जीवन में खास महत्व है। मकर संक्रांति से एक दिन पहले शाम होते ही पातालकोट के हर्बल जानकार (जिन्हें भुमका कहा जाता है) अपने घर- आंगन के चारों तरफ़ गौ-मूत्र का छिड़काव कर परिवेश शुद्धि की प्रक्रिया करते हैं। फिर घर में रखी सारी वनौषधियों को घर के छज्जे पर, खुले आसमान में अगले 8 दिनों के लिए रख देते हैं। इनका मानना है कि शीत ऋतु की विदाई के साथ बसंत ऋतु के आगमन यानी उत्तरायण काल में सूर्य की किरणें रोगहारक होती हैं और ज्यों-ज्यों सूर्य की चमक तेज़ होती जाती है, इसकी किरणों में रोगों को हर लेने की क्षमता बढ़ती जाती है। इन किरणों का असर त्वचा के रोग को भी ठीक कर सकता है। इन आदिवासियों के अनुसार अपनी किरणों से सूर्य इन जड़ी-बूटियों में अमृत का संचार कर देते हैं। देर रात ये आदिवासी अपने आंगन में अलाव जलाकर नाच गाना भी करते हैं। वाद्य-यंत्र जैसे ढोल, टिमकी, शहनाई, टिमगा आदि बजाए जाते हैं और मकर संक्रांति के सूर्योदय का इंतज़ार किया जाता है।
(साभार-प्रभात खबर)
दीपक आचार्य। छिंदवाड़ा के निवासी दीपक आचार्य इन दिनों अहमदाबाद में रह रहे हैं। आपने एक हर्बल कंपनी बनाई है, जो पारंपरिक जड़ी-बूटियों से इलाज पर शोध करती है और उसे बढ़ावा देती है।
Rekha Anish Mishra- Very useful information