कीर्ति दीक्षित
किसी को नीचा दिखाना हो या फिर किसी को बुरा भला कहना हो तो पढ़ा लिखा समाज उसे देहाती या गंवार कहकर पुकारता है। क्या देहाती और गंवार अपमान सूचक शब्द हैं ? मेरे नजरिए से तो बिल्कुल नहीं क्योंकि जो सहजता, सुलभता और संतुलन एक देहाती और गंवार में होता है, वो कथित ‘शहरी विद्वानों’ में देखने को नहीं मिलता। गांव का वो देहाती गंवार अपनी लोक परंपराओं के जरिए जो संदेश दे जाता है, वो तो पढ़े लिखे समाज को किसी दर्शन विशेष का गहन अध्ययन करने के बाद ही मिलता है।
मैं बुंदेलखंड की रहने वाली हूं। वहां की लोक परंपराएं बचपन से देखी, सुनी लेकिन उन्हें सीखने-सहेजने का प्रयास नहीं किया। शायद इसलिए कि सहज प्राप्य ज्ञान का मोल नहीं होता। या कहें कृष्ण विरह का बोध भी गोपियों को माधव के मथुरा जाने के बाद ही होता है। सबसे पहले इस परंपरा का परिचय जानना जरूरी है। बुंदेलखंड की लोक परंपराओं में से ‘मौनियों का दिवारी नृत्य’। इस उत्सव का आरंभ मौन धारण से होता है। व्यक्ति मौन धारण का व्रत लेता है। अपने दिन भर के व्रत में उसे बारह गांवों की सीमाओं को छूना होता है। ये व्रती रास्ते भर प्रसाद बांटते और मंदिरों का दर्शन करते हुए अपने व्रत का पालन करते हैं और सांझ के वक्त अपने गांव आकर ये मौनिया दिवारी उत्सव मनाते हैं। ये नृत्य दीपावली के दूसरे दिन किया जाता है। इस नृत्य में मौन धारण करने वाले मौनिये जब अपना व्रत तोड़ते हैं तब दोहों, रावलों की विशेष धुन पर गाते हुए मृदंग पर विशेष प्रकार की वेशभूषा में नृत्य करते हैं। ये परंपरा श्रीकृष्ण के गोवर्धन पर्वत उठाने के उपलक्ष्य में निभाई जाती है। ये तो था परिचय बुन्देलखण्ड की दिवारी का!
अब बात करती हूँ उस सहज दर्शन की, जो बड़ी-बड़ी किताबों को पढ़ने के बाद ही मिल सकता है। आजकल पूरे देश में असहिष्णुता और सहिष्णुता जैसे बड़े-बड़े शब्दों का आडंबर फैला है, जिसमें हर कोई खुद को बुद्धिजीवी साबित करने में लगा है। लेकिन दूसरी तरफ ये देहाती लोग अपनी इस परंपरा के माध्यम से इस जाल का विच्छेदन बड़ी सहजता से कर देते हैं। यहां एक अहीर गाता है-
सब जातें रघुबीर की भइया
दो जातें बिन पीर…
दाव परें छोड़ें नहीं, लोधी जात अहीर।।
और फिर हुइया कहते हुए पूरी टोली थिरकने लगती है। संभवत: इसे पढ़ने पर मुझ पर भी असहिष्णुता का आक्षेप लग जाए लेकिन इसका उत्तर एक ब्राह्मण देता है-
सप्तद्वीप नौखण्ड में सुन्दर जात अहीर।
बार-बार ब्रह्मा पछताव, हम क्यों न भए अहीर।।
कितना सुंदर उत्तर और कितना गूढ़। लेकिन कितनी सहजता से इसने सहिष्णुता-असहिष्णुता का उत्तर दे दिया। तभी दूसरे मौनिया ने तान छेड़ी और समाजिक समरसता का ऐसा उत्तर दिया कि बड़े-बड़े निरुत्तर हो जाएं-
डंडा सें डंडा लड़े, ऊंट लड़े मुँह जोर।
भइया सें भइया लड़े, पे बैर कभऊं न होए।। हुइया……
इसके जवाब में दूसरा गंवार गाता है-
रात कै शोभा चन्दरमा भइया।
दिन की शोभा भान।।
नैनन की शोभा सुरमा।
और मुँह की शोभा बान; वाणीद्ध।।
और फिर सभी मृदंग की थाप पर हुइया… हो हो करते हुए थिरकने लगते हैं। इसी बीच चुहलबाजी करते हुए एक दिवरया गाता है-
आठ भुजा दस शीश।।
माता अचंभो खा रही।
कौन मुँह खबा दिउफं खीर।।
इसी लोक गायन के बीच ये देहाती अपनी व्यथा ‘तुम्हें बियाही संपदा, पर बिपत बियाही मोए’ गाकर साझा करते हैं।
हमारे यहां कहावत है कि प्रधानी का चुनाव प्रधानमंत्री के चुनाव से भी कठिन होता है। ऐसे में जिसे राजनेता भोली जनता कहकर बेवकूफ बनाते हैं, वहीं भोला गंवार देहाती राजनेताओं को अपनी शैली में सुंदर जवाब देता है-
बगला धरे कपड़ा पहनें आवें न पहचाने में
समझाने में बहुत चतुर हैं नेता नए जमाने में
दौरा दौरा मोटर कारें जाते हैं सबके द्वारे,
हर हर दइयां शरम न आवे इनको वोट मंगाने में
समझाने में बहुत चतुर हैं नेता नए जमाने में।
काढ़ मूस खें धन है भर लओ भण्डारे के भण्डारे
सीधी साधी जनता सारी आ जाती बहकाने में
समझाने में बहुत चतुर हैं नेता नए जमाने में।
कहे कौ बुरो न मानियो महाराज
जो गंवार कह जाए ।।
इस तरह सहजता से अपने पूरे समाज के उतार चढ़ावों को शब्दों में उकेरकर रख देता है देहाती। अंत में प्रार्थना करते हुए दिवारी नर्तक आगे बढ़ जाते हैं। देहात में इस तरह सहज सामाजिक दर्शन गढ़ा जाता है। इनको न किसी टेलीविजन पर दिखने की आशा होती है, न किन्हीं सुर्खियों में रहने की। ये तो बस अपने ताने-बाने को खुद बुनते हैं, उलझते हैं, सुलझते हैं।
कीर्ति दीक्षित। उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले के राठ की निवासी। इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रहीं। पांच साल तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों में नौकरी की। वर्तमान में स्वतंत्र पत्रकारिता। जीवन को कामयाब बनाने से ज़्यादा उसकी सार्थकता की संभावनाएं तलाशने में यकीन रखती हैं कीर्ति।
adhunik media ki aankho se ojhal bundeli sanskrati ko ubarne ka sarthak prayas….bahut bahut sadhuwaad
बहुत बढ़िया । । ।
Diwari me mayniyon ka nratya punah aankhon ke samne sajeeve ho utha .. Ati sundar yatharth lekhan
Realistic approach
लोकदर्शन का सहज सजीव चित्रण
ye aapne photos kha se li hai , its looking like my village ,,,very nice written….
गाँव के लोग प्रकृति के नजदीक रहकर उसके स्वरुप को सम्पूर्णता मैं सहेजे रहते हैं