सुबोध कांत सिंह
मंजिल यूं ही नहीं मिलती राही को
जुनून सा दिल में जगाना पड़ता है
पूछा चिड़िया को की घोंसला कैसे बनता है
वो बोली तिनका तिनका उठाना पड़ता है
ज्ञान के सागर को भरने के लिए ऐसे ही एक विद्यार्थी को तिनका तिनका ज्ञान हासिल करना पड़ता है, ताकि जिंदगी का घोंसला तैयार हो सके। बेहतर आशियाना, बेहतर रहन-सहन, बेहतर खान-पान और बेहतर ज़िंदगी के लिए बेहतर शिक्षा को होना बेहद जरूरी है। जिंदगी में कामयाबी के लिए सर्वांगीन विकास बहुत जरूरी है। पढ़ाई लिखाई के साथ साथ जिंदगी से जुड़े अनुभवों की जानकारी भी बेहद ज़रूरी है। और इस मिशन में किताबों से बेहतर संगी कोई नहीं होता।
दूर दराज के गांवों में रहने वाले बच्चे पढ़ाई लिखाई और किताबों के अभाव से जूझते हैं। बेहतर सुविधाओं का अभाव और गांव में पुस्तकालय की कमी इसके आड़े आती है। देश के नौनिहालों का सर्वांगीन विकास मुमकिन नहीं हो पाता। मेरे जेहन में हमेशा एक बात रहती थी कि कैसे भी शहरी पृष्ठभूमि से दूर ग्रामीण इलाके में शिक्षा की अलख जगाई जाए और उन्हें भी शहरी इलाके में रहने वाले बच्चों के मुकाबले लाया जाए। उन तक बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराई जाएं लेकिन शहर में रहकर ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं। इसमें कई अड़चनें हैं, ऐसा सोचकर कभी इस रास्ते पर बढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
मई महीने के मध्य में मेरा अपने गृह ज़िले मुजफ्फरपुर जाने का कार्यक्रम बना। मैं गांव जाने की तैयारी में जुटा था। इसी दौरान टीम बदलाव के वरिष्ठ साथी ब्रह्मानंद ठाकुर जी से मेरी फोन पर बात हुई। मुझे पता था कि वो एक रिटायर टीचर हैं, लेकिन जब उनसे बात हुई तो वो उनकी आवाज किसी 20-25 साल के युवा की तरह उर्जा से लबरेज लगी। मैं हर हाल में इस बार उनसे मिलने की इच्छा लिए मुजफ्फरपुर रवाना हुआ। इसी दौरान हमें पता चला कि बदलाव टीम की तरफ से मुजफ्फरपुर के ही पीअर गांव में पुस्तकालय चल रहा है और उसमें काफी नई किताबें आई हैं। और किताबों से करें दोस्ती विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है।
ये ठीक वैसा ही था जिसकी कल्पना मैंने की थी, लेकिन क्या ऐसे सपनों को हकीकत का अमली जामा पहनाया जा सकेगा? क्या टीम बदलाव की ये कोशिश कामयाब होगी? इन्हीं सवालों को जेहन में लिए मैं मुजफ्फरपुर पहुंचा और बेसब्री से उस दिन का इंतजार करने लगा। और आखिरकार वो दिन आ ही गया। तारीख थी 20 मई, दिन था रविवार। पीअर गांव जाने और नई शुरुआत का हिस्सा बनने की ख्वाहिश ने उस दिन मुझे वक्त से पहले ही जगा दिया। फौरन तैयार होकर मैं अपने गांव से करीब 100 किलोमीटर दूर पीअर गांव के लिए निकला।
गांव पहुंचने की छटपटाहट में ये दूरी कुछ ज्यादा ही लग रही थी लेकिन तय वक्त से ठीक 2 घंटे पहले मैं पीअर गांव पहुंच चुका था। गांव में सबसे पहले मेरी नजर सफेद धोती और बनियान पहने एक बुजुर्ग पर पड़ी। जैसे ही उन्होंने मेरा नाम लिया, आवाज़ सुनकर मुझे ये समझते देर नहीं लगी कि वो कोई और नहीं बुजुर्ग दिख रहे युवा ब्रह्मानंद ठाकुर सर ही हैं। फौरन मेरा सिर उनके सम्मान में झुक गया। हाथ उनके पैरों पर जा टिके। उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ आशीर्वाद दिया और मुझे गले से लगाया।
थोड़ी ही देर में बदलाव पाठशाला से जुड़े कई और लोग धीरे धीरे वहां पहुंचने लगे। एक-एक कर मेरा सभी से परिचय हुआ। उनमें युवा भी थे, बुजुर्ग भी। कोई रिटायर टीचर तो कोई समाजसेवी। सभी से मेल मुलाक़ात के बाद आखिरकार वो वक्त आ ही गया जिसका मैं कई दिनों से इंतजार कर रहा था। मैं बदलाव पाठशाला में था। बदलाव के बच्चों ने एक सुर में हम सभी की अगवानी की। सफेद शर्ट, नीली पैंट, शर्ट की जेब पर बदलाव का स्टीकर। जमीन पर बिछी कालीनें, आस-पास टंगी किताबें।
ये लम्हा मेरे लिए सुखद आश्चर्य का था। कैसे गांव में कुछ लोग शिक्षा की अलख जगा रहे हैं। उनके करीब जाना अभूतपूर्व अनुभव था। मैं हैरान था, इस सोच में पड़ा था कि कैसे ये लोग खेतों की तरह ही जिंदगी में सपनों के बीच बोते ही नहीं, उन्हें लहलहाती फसलों में तब्दील कर देते हैं। और ये हैरानी तब और बढ़ गई जब मैंने बच्चों से जाना कि सिर्फ 8 बच्चों से शुरु हुई इस पाठशाला में अब 16 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। कई और इस पाठशाला में शामिल होने की ख्वाहिश रखते हैं।
वहां सब कुछ काफी व्यवस्थि था। बच्चों के नाम, फोटो और उनके अभिभावक की सहमति वाला रजिस्टर। जिस पर नाम पता सब दर्ज था। दाखिले की तारीख भी डली हुई थी। जिन बच्चों ने कभी स्कूल नहीं देखा था वो यहां अनुशासन से लेकर जिंदगी का सबक सीख रहे थे। वहां सिर्फ 3 साल की बच्ची मीनाक्षी भी थी। सोनू, आयुषी, राहुल, नेहा जैसे बच्चों की काबिलियत हैरान करने वाली थी। इन बच्चों ने हिंदी अंग्रेजी में कविताएं सुनाईं। एक साल से कम समय में बदलाव की टीम की कोशिशों से कुछ ज़मीनी बदलाव नजर आ रहा है। पीयर गांव में ब्रह्मानंद ठाकुर जी की अगुवाई में एक सार्थक शुरुआत हुई।
बच्चों के लिए गांव के इस पुस्तकालय में नामी गिरामी हस्तियों की महान रचनाएं मौजूद हैं। इस गोष्ठी में गांव के बड़े बुजुर्ग पहुंचे। उन्होंने बच्चों को किताबों की अहमियत बताई। उन्हें किताबें पढ़ने को प्रोत्साहित किया। समाजसेवी और टीम बदलाव के सहयोगी श्याम किशोर जी ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उन्होंने बच्चों को किताब की अहमियत बताने के साथ साथ प्राकृतिक आपदा से निपटने के गुर सिखाए। इसमें उनके अनुभव और दक्षता का पुट दिखा। पीअर गांव में कई घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला, जब लौटा तो वो सरल-सहज चेहरे मन में घूम रहे थे।
सुबोध कांत सिंह। मुजफ्फरपुर के असवारी बंजारिया गांव के निवासी। इन दिनों दिल्ली में प्रवास। पिछले एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। न्यूज 24, इंडिया टीवी जैसे बड़े चैनलों की संपादकीय टीम का हिस्सा रहे। संप्रति न्यूज़ नेशन में एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर।
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Bahut badhiya…ati uttam vichar
Awesome..Great??????
सुबोध भाई बदलाव टीम की यही कोशिश है कि गाँव गाँव में इसी तरह से शिक्षा की बयार बहे। जिससे हर उन बच्चों का फ़ायदा हो सके जो कहीं न कहीं पैसे की कमी की वजह से पीछे रह जाते हैं। एक बार फिर बदलाव की सारी टीम को बहुत बहुत बधाई।
अनीश सिंह
बहुत ही सराहणीय कार्य,,,बढते चरण में नये पीढी को संवारना मतलब सही मायने में ‘बदलाव’ हैं,,,,,,और इसी “बदलाव” से ही “नवनिर्माण” संभव है।
Great…Best Wishes for team Badalav..Thankyou for sharing this nice article with all of us…
Very nice Subodh ji, hope you will be able to be with that team onwards and support those children. Me too wanna part of this type of team and work… Regards…