हॉस्टल के लान में पुरवइया सी दौड़ती -भागती, हंसती- खिलखिलाती लड़कियों के झुंड के सामने अचानक ही एक डाकिया डाक लेकर आ खड़ा हुआ। उसने दौड़कर डाकिये के हाथ से लिफाफा झपटा और अपनी चंचल किंतु भोली सी दृष्टि से एक पल में ही पूरा मजमून पढ डाला। हॉस्टल की वार्डन के नाम विवाह का निमंत्रण पत्र था। लिफाफे को खोलने के लिए उतावली उंगलियां अचानक ठहर सी गई, यह सोचकर कि किसी और की डाक नहीं पढते। पर हवा के वेग से ही वार्डन तक पहुंचती हुई वह लिफाफे के ऊपर लिखे शब्दों को जोर-जोर से पढ़ने लगी। आयुष्मति पूर्वा, पिता स्वर्गीय काशीनाथ राय, अरे !यह क्या, मेरा नाम? और मेरे बाप का नाम, दोनों नाम सेम कैसे हो सकते हैं ? ठिठकती सी वह दोबारा देखने लगी गांव का नाम भी सेम ही था।
कहानी
तब तक वार्डन की दक्षिण भारतीय कठोर अनुशासन युक्त अजीब सी हिंदी के उच्चारण वाली किंतु स्नेहिल आवाज आई- “पूर्वा तुम्हारा फोन है” वह लिफाफा वार्डन को पकड़ाती हुई फोन तक पहुंची, उस ओर से भाई की आवाज़ थी ” 15 को तिलक है और 18 को शादी। तिलक में तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है पर हां 16 को जब वहां से शगुन आएगा तो तुम्हारा होना जरूरी है तुम 16 की सुबह चलकर दिन तक आ जाना। और सुनो! खुद ही आ जाओगी या लेने आना पड़ेगा? पूर्वा ने लहजे में जिम्मेदारी घोलते हुए कहा “मैं आ जाऊंगी”। फोन कटते ही उसके वेग में मानो जेठ की दुपहरी वाली गुम्म चुप्पी छा गई थी, पर कमरे में पहुंचते ही उसमें लू और रेत के बवंडर उठने लगे। दिवंगत राय जी की बेटी, छोटे राय जी की बहन और अब न जाने किस शर्मा जी की पत्नी होने जा रही थी वह। घुटन होने लगी उसे, उसने एक जोर की सांस अंदर खींची और मुट्ठियां भींच लीं, मानो अपने समस्त अस्तित्व को जकड़ लेना चाहती हो एक पल में।
पूर्वा……. पूर्वा …….पूर्वा……….. जोर से चीख पड़ी वह और यह चीत्कार आंखों के खारे पानी में परिवर्तित होकर तकिए और चादर को भिगोती रही। खुद को संयत कर उसने अपना बैग पैक किया और अगली सुबह की बस से घर पहुंची। उसके सामने रंगीन पारदर्शी चमकीली प्लास्टिक की परत से ढकी एक टोकरी रख दी गई, जिसमें शगुन का सामान था। साड़ियां, कपड़े, फल, मिठाईयां इन तमाम वस्तुओं की ढेर में एक छोटी सी लाल डिब्बी थी जिसमें एक सोने की अंगूठी थी। एकदम साधारण ठीक उसी की तरह। उसे वह अंगूठी पहनने का आदेश मिला था। यंत्रवत उसने वह अंगूठी उठाई एक भरपूर नजर से उसे देखा साधारण सोने के छल्ले में एक सादे नावनुमा आकार की अंगूठी पर खुदाई कर हिंदी में लिखा था पूर्वा, पूर्वा की बुझती आंखों में एक चमक सी आ गई जैसे किसी ने उसी को उसे भेंट कर दिया हो। यह सोचकर, समझकर कि तुम जो हो, जैसी हो बस तुम हो अपने स्वत्व को धारण करो और मेरे घर आ जाओ।
घर में दबी-दबी सी बातें चल रही थी “अरे लड़के ने तो धनबट्टी के समय गाड़ी मांग ली और अच्छा खासा हंगामा खड़ा कर दिया तो एक अनुभवी आवाज आती अरे यह सब तो शादी ब्याह में होता ही रहता है।” किसी तरह तमाम रिश्तेदारों से मांग-मूंग कर गाड़ी के बराबर कैश का इंतजाम कर उन्हें दिया गया तब जाकर कहीं रस्म आगे बढ़ी।खुसुर-पुसुर का सबसे बड़ा मुद्दा यह भी था कि मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की सबसे महंगी और खूबसूरत नर्तकियाँ वहा समां बांधने आई थीं और बड़े छोटे का लिहाज भूल लोग ऐसे नाच रहे थे कि मारे शर्म के नजरें ही नहीं उठती थी। पूर्वा एक बार को भीतर तक दहल उठी पर उसने अपनी उंगली में पड़ी जीवन नौका पर अपने ही नाम की पतवार देखी और बुड्ढियों की दिलासा भरी आवाज को मन ही मन दुहरा उठी “अरे ! यह सब तो जमींदार घरानों में चलता रहता है ,अब तो बस रस्म अदायगी रह गई है, वरना लोग हंसी उड़ाते हैं समाज में। वैसे भी लड़का पढ़ा-लिखा सरकारी शिक्षक है ऐसा थोड़े न होगा!
खैर ,बारात आई सामान्य माहौल में विवाह और विदाई की तमाम रस्में संपन्न हुई। ससुराल पहुंचते सवेरा होने को आया छोटी-मोटी रस्मों को निपटाते हुए सुबह उसे सिलबट्टे पर हल्दी की गांठ पीसने को दी गई। पिसकर हल्दी खूब सारी हो गई, घर में उत्साह का सा माहौल हो गया कि दुल्हन की पिसी हल्दी में खूब बरकत हुई है शुभ शगुन है, घर में खूब बरकत होगी। पूरा दिन यूं ही लोगों के आवागमन और मुंह दिखाई की रस्म में बीत गया। रात को कमरे में प्रतीक्षारत दुल्हन के कानों में मद से डगमग दो कदमों की आहट आई, उसने आंखें खोलकर देखा तो लाल सुरा सी डरावनी दो आंखें, उसने झटपट आंखें मींच ली और आत्मा का सारा शुभ शगुन, देह की सारी हल्दी दुबककर उस अंगूठी में जा छुपी।
पूर्वा ……..पूर्वा……. पूर्वा……… अंगूठी से आवाज आई , सवेरा होने को था। उसने आंखें खोली सिल से काले परे देह पर जरा सी आत्मा की हल्दी मली और दिनचर्या में जुट गई। दिन बीतते गए, दिनचर्या वही रही। एक हाथ लंबे घूंघट के भीतर से सूर्योदय से पहले झाड़ू लगाना, मिट्टी के घर , बरामदे , आंगन को गोबर और मिट्टी से लीपना , सूर्योदय के साथ-साथ लकड़ी वाले दो अंछिया चूल्हे को बालकर चावल और दाल का अदहन धर देना। सबसे पहले सुबह से शाम तक की सब्जियों और दालों के लिए हल्दी पीसकर रख लेना फिर दो तीन प्रकार के मसाले और चटनियां … स्नान, पूजा, कपड़े, बर्तन बासन, रात का खाना, मद से डगमग पाँव और अंगारे बरसाती आंखें…
उसके कमरे में आईना नहीं था। आईना वह लाई थी अपने साथ पर तीन पट्टीदारों वाले तीनों ओर से घिरे घर के बीचों-बीच आंगन में कभी कोई बच्चा कभी कोई बुजुर्ग उस बड़े से आईने में साफ-साफ अपनी छवि देखने के लोभ में उसे उठा ले जाते। फिर वह न जाने पूर्वा की तरह ही कहीं गुम हो गया जिसके टुकड़े भी न मिले। अब पूर्वा के पास खुद को देखने का बस एक ही जरिया था उसकी उंगली में पड़ी अंगूठी पर लिखा ढाई आखर का उसका नाम …
आज रात फिर कदमों की आहट आई पर अन्य दिनों की अपेक्षा संयत। वह बेफिक्री से उठ कर बैठ गई। आज लाल आंखों ने उसे घूरा नहीं वरन् उसका हाथ अपने हाथों में लेकर उंगलियों में उंगलियां उलझा कर बैठ गया और धीमे-धीमे कहने लगा- “मैंने तुम्हें बहुत दुख दिए हैं ना! तुम इतनी अच्छी हो कि मेरे पूरे जीवन की तपस्या का फल हो पर तुम्हारे साथ भगवान ने बड़ा अन्याय किया, पर मैं अब तुम्हें खुश रखूंगा, बहुत खुश !”
उंगलियां उंगलियों से खेलती रही
“कभी कोई दुख नहीं दूंगा “
अचानक उंगलियां कलाई की चूड़ियों की गोलाई में घूमती हुई अंगूठी की नाव पर जा टिकी। लालटेन की मध्यम रोशनी में लाल आंखों नें नाव की पाल को पढ़ा “पूर्वा” तुम्हारा नाम लिखा है न! कितना सुंदर नाम है तुम्हारा! उंगलियां अंगूठी से खेलती रही। ” पर तुम्हारे नाम की अंगूठी तुम्हारी उंगली में क्यों ? इसे तो मेरी उंगली में होना चाहिए ताकि मैं हमेशा तुम्हें याद रख सकूं। तुम्हारे नाम का संबल पाकर मैं चाह कर भी कुछ गलत नहीं कर पाऊंगा।” देखते देखते अंगूठी ने उंगली बदल ली और पुरवा की अनामिका से किसी की कनिष्ठा में चली गई।
” हां पूर्वा अब देखना कल से तुम्हें तुम्हारा बदला हुआ पति मिलेगा जो तुम्हारा होगा, सिर्फ तुम्हारा ।” कदमों की आहट दूर बहुत दूर होती चली गई। कौवे बोले। सूरज आया। पूर्वा ने हाथ भर के घूंघट के अंदर से झाडू लगाई। घर आंगन लीपा और चूल्हे पर अदहन रखकर हल्दी पीसने बैठ गई। आंगन में उजाला हो गया था। बुजुर्ग महिलाएं बरामदे की तखत पर आकर बैठ गई थी, बच्चे भागमभाग करने लगे थे। सिलबट्टे की गंभीर घिस्स-घिस्स की आवाज के साथ चूड़ियों की मीठी खन-खन आज और भी मधुर तान दे रही थी कि एक वृद्धा की नजर बहू की खाली उंगली पर गई। अरे ! दुलहि्न अंगूठी कहां गई तुम्हारी ? वह चुप रही। तब तक दूसरी वृद्धा ने कहा अरे! हां अंगूठी कहां है तुम्हारी ? वह हमेशा की तरह फिर चुप रही।
आंगन की सबसे बड़ी बहू बोल उठी जाएगी कहां, ले गया होगा इसका पति। तब तक अड़ोस-पड़ोस की भी कुछ महिलाएं वही आ जुटीं। फिर कुछ खुसुर-फुुसुर सी आवाजें और टेढी दृष्टियां पूर्वा के झीने से घूंघट को भेदकर उसकी आंखों और कानों से टकराने लगीं “अरे जितेंदरा के भाई के तिलक में कल बड़ा ड्रामा हुआ। वही नचनिया आई थी मस्टरवा वाली। आधी रात तक तो इसने गड्डी के गड्डी रुपए उड़ाए और खूब नाचा, खूब नाचा। वहीं मचाने पर गिलास भर भर के पीता रहा अभगला। पर रंडी तो रंडी है, किसकी हुई है ? जैसे ही रुपए खत्म हुए छितरा गई।”
फुसफुसाहट और बढी, कनखियों से देखती हुई हाथ नचाती आवाज आई “गले की चेन उतार कर दिया तब फिर नाची ,और कितना देर? फिर नखरा शुरू, घंटों मानी नहीं। जाने कहां से एक अंगूठी लाया और घुटने पर झुक के उसे पहनाने को हाथ मांगा। पर यह रंडियां भी कम थोड़े होती हैं, हाथ मटका कर बोली घरवाली की अंगूठी लाए हो, हमारा भी कोई मान-सम्मान है कि नहीं ? उतारे की चीज को हम हाथ नहीं लगाते और अपने घुटने तक लहंगा उठा कर पांव उसके घुटने पर रख दिए , बेशर्मी से हंसती हुई आगे को झुक गई। मस्टरवा ने अपने घुटने पर रखे उसके पांव की पाजेब में अंगूठी पिरो दी और उसके कदमों में लहालोट हो गया। वह उसकी छाती पर पांव टिका-टिका कर पायल छनका-छनका कर नाचने लगी। छिः कैसी है यह उसकी औरत? क्या फायदा इसके पढ़े लिखे होने का जो अपने मर्द को काबू में न रख सकी….
और पूर्वा को तो मानो कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था सिलबट्टे की घिस्स घिस्स और चूड़ियों से उठने वाली छन्
-छन् न जाने कब चिड़ियों की चहचहाहट में बदल गई। पूर्वा का मन अपने आर्ट कॉलेज के हॉस्टल के कमरे में रखे अधूरे कैनवासों के बीच उड़ने लगा। हल्दी का सारा पीलापन कैनवास के पूर्वी छोर पर फैल गया, उसमें मिर्ची की लालिमा भोर को जगाने लगी, आंखों के नीलेपन ने सारा आकाश पसार दिया, सिलबट्टे से धुली खरिया पश्चिमी छोर को गाढ़ा रंग दे गई, धनिया की हरियाली वृक्षों पर छा गई और अदहन का सारा पानी भक्क सफेद बादल के टुकड़े बन अम्बर पर छा गया।
हाँ पूर्वा आजाद हो गई थी
आजाद!
अंगूठी के हर तिलस्म से
बिल्कुल आजाद……..
डॉक्टर प्रीता प्रिया। मुजफ्फरपुर, बिहार की निवासी डॉ प्रीता प्रिया इन दिनों हलद्वानी में रहती हैं। साहित्यिक अभिरुचि। रचनात्मक संसार में खुशियां बटोरने की कोशिश।
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