धीरेंद्र पुंडीर
खूबसूरत हरे भरे खेत। लाल फूलों से लदे हुए गुलमोहर और हिंदुस्तानी देहात का लगभग एक जैसा मन। कर्नाटक की राजनीति का ये सफर इसी तरह पूरा हुआ। राजनेताओं के वादों के साथ उनकी खोखली हंसी में ठगी का सम्मिश्रण ये किसी भी पत्रकार के लिए पहचानना आम बात होती है। लेकिन बौनों (पत्रकारों) की कहानी को देख पाना काफी मुश्किल होता है क्योंकि आप भी उसी तरह बहने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
कई बार खुद से लड़कर बच निकलते हैं कि ‘अश्वत्थामा हतो हत, नरो वां कुंजरों’ की स्थिति में अगर आपसे सवाल नहीं है तो आप सामने नहीं है। यूं तो 2014 से लगातार बौंनों के झूठ को फील्ड में जाकर देखता हूं लेकिन आजकल तो ये पूरी खेती होने लगी है। नेताओं से बाईट्स मिल सके उनकी गुड बुक्स में आ सकें, सिर्फ इसके लिए झूठ लिखना तो मजबूरी सी दिखती है। इस आम गलाकाट बौना युद्ध में बिना किसी उद्देश्य के महज समझदार दिखने या फिर बड़ी खबर करने के चक्कर में झूठ परोसना शायद अक्षम्य लगता है।
अभी तक नेताओं के लिए भीड़ और उत्साह का गाना गाते हुए बौने तर्क और समझ दोनों को कंधों से उतार सिर्फ नंगे होकर भी रिपोर्ट कर रहे हैं। इस बार भी बहुत से झूठ और सच को सामने देखा लेकिन एक खबर ने चौंका दिया। जब दिल्ली से चलते वक्त कर्नाटक के अखबारों को टटोल रहा था तो एक खबर ने मेरा ध्यान खींच लिया वो खबर थी सिद्धारमैया के गांव में 100 सिद्धारमैया हैं। सैफई, अतरौली, या फिर ऐसे बहुत से मुख्यमंत्रियों के गांव गया हूं लेकिन ऐसा दिखा नहीं कि 100 मुलायम या फिर 100 कल्याण मिले हों और ये सिद्धारामैया से बड़े जनाधार के नेता रहे हैं।
शहर दर शहर, गांव दर गांव कवर करता हुआ लोगों की भाषा से अपनी दूरी को मुस्कुराहटों और उनकी गर्मजोशी से पाटता हुआ चलता ही जा रहा था कि एक दिन होटल में उस खबर को सबसे बडे चैनल पर देख लिया। रिपोर्टर बड़े अच्छे ढ़ग से बता रही थी कि ये देखिए ये कौन है , साईकिलों पर खड़े हुए बच्चे बता रहे थे- सिद्धारमैया, फिर दूसरे बच्चे से वो भी सिद्धारमैया और फिर तीसरा और फिर चौथा इस तरह से पांच छह बच्चों के नाम से उसने बता दिया कि इस गांव में सिद्धारमैया की लोकप्रियता के चलते लोग अपने बच्चों के नाम सिद्धारमैया रख रहे हैं।
मैं भी एक हफ्ते बाद जब मैसूर कवर करने पहुंचा तो उस गांव पहुंच गया। गांव में सबसे सुंदर घर सिद्धारमैया का ही था। घर खाली था। गांव में सिर्फ नाम रहता है पैसे वाले लोग उन दीवारों को नाम या फिर अपने फायदे के लिए रखते है बाकि सब तो शहर में रह जाता है। लोग सिद्धारमैया के बेटे की कनवैसिंग के लिए गये थे। लेकिन जैसे ही गांव के मोड़ से गाड़ी मुड़ी तो बाबू जगजीवन राम के चित्र का बोर्ड लगा मिला। उसको पार करने के बाद आस-पास अच्छे मकानों की एक पंक्ति दिखी और फिर सिद्धारमैया का घर था। इस बीच, जैसे ही किसी से घर का पता पूछे वो बहुत ही हंसते हुए पूछे कि सिद्धारमैया का घर जाना है क्या? मीडिया है, दिल्ली का है। हम हां कह कर उसके बताए गए रास्ते पर आगे बढ़ जाते।
अब वहां जाकर कुछ लोगों को खोजने की कोशिश की। घर के आसपास सिद्धारामैया का परिवार ही बसता है। और हमारे यहां कहते हैं कि कुनबा बसता है। उससे आगे की ओर जाने पर कुछ लोगों से बात की तो उन्होंने छूटते ही पूछा कि सिद्धारमैया नाम के बच्चों को खोज रहे हो। यूं तो हम लोगों को कई बार सुन कर झटका सा लगता है अगर सामने वाला हमरी खबर की तलाश को पहले से ही बता दे, मुझे भी लगा। मैंने कहा कि हां लेकिन आपको कैसे पता चला, मैं तो आपसे भी बात करने आया हू। उन्होंने कहा कि दिल्ली से बहुत मीडिया आया और बच्चों को खोजा ( कन्नड़ में बात हो रही थी मेरा ड्राईवर हनुमंत तर्जुमा कर रहा था)।
खैर मैंने उनसे बात की और आग्रह किया कि बच्चों को बुला दें। उस वक्त कम बच्चे दिख रहे थे लेकिन फिर तीन चार बच्चे एक-एक कर के सामने आ रहे थे और अपना नाम सिद्धारमैया बताना शुरू किया। मैंने भी एक दो पूछा लेकिन बच्चों की निश्छल हंसी और उनकी आवाज दोनों में साम्य नहीं दिख रहा था। लिहाजा मैंने हनुमंत से कहा कि जरा इनसे जोर से पूछे। इस के बाद सामने बैठी हुई एक युवा महिला को भी कुछ कहते सुना और फिर उसने उन बच्चों को डांटा तो मुझे पता चला कि उनमें से किसी का नाम सिद्धारमैया नहीं है। वो सिर्फ अपना नाम सिद्दा बता रहे हैं। इस पर मैंने उन बच्चों से जरा खुलकर पूछा। तब तक दोस्ती का सिलसिला शुरू हो चुका था तो उन्होंने बताया कि मीडिया से बात करते हुए सिद्धारामैया नाम बताने को कहा गया था।
मैं हंसता हुआ वहां चलने लगा लेकिन फिर मोबाईल पर ये घटनाक्रम रिकार्ड भी कर लिया। सोचता हुआ कि दिल्ली से बौनों की भीड़ पत्रकारों के नाम पर ही आती है और जनता उनको ये सोचकर सुनती है कि वो बड़ी मेहनत से सच और अनछुआ पहलू उनके सामने लाते हैं। वो तो जाहिलों की तरह कुछ बच्चों से मूर्ख बन कर लौट जाते हैं और फिर उसी झूठ को विजय का नारा बना कर फहराते हैं।
दरअसल इस इलाके में सबसे प्रसिद्ध देवस्थान है सिद्दारामेश्वरा। स्वामी सिद्दारामेश्वरा के नाम पर इस गांव का नाम भी सिद्दाररामएना हुंडी है। और इलाके के लोग सिद्दा नाम से बहुत से नाम रखते हैं इसी परंपरा में मुख्यमंत्री सिद्धारामैया का नाम भी रखा गया। उन बच्चों का सिद्धारामैया से कुछ वास्ता नहीं है। लेकिन इस बात को उस रिपोर्टर को देखने की जरूरत नहीं है जो इस गांव में ये सोच कर ही घुसा है कि क्या खबर बनाऊंगा बजाए इस बात के कि उस गांव में क्या खबर है। ये तो सिर्फ एक किस्सा है।
सोचता हूं कि उस अंग्रेजी भाषी रिपोर्टर के प्रोड़्यूसर कितना खुश होंगे इस खबर पर और रिपोर्टर की दोस्त ये भी बता रही होगी कि उस दिन का मेकअप काफी अच्छा था।
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही आपकी अपनी विशिष्ट पहचान है।
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