सुधा निकेतन रंजनी
मध्ययुग में बहुत सारे पंथों और सम्प्रदायों की स्थापना हुई। भारत में इस समय व्यापारों और दस्तकारों का उदय हो रहा था। व्यापार के कारण लोगों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत बढ़ रही थी। इससे इतर समाज को नैतिक रूप से सुदृढ़ रखने में इन संतों की प्रभावी भूमिका थी। संत अपनी जाति और धर्म से ऊपर उठकर सामाजिक ढोंग और कुरीतियों को दूर करने का प्रयास कर रहे थे। अपने तार्किक विचारों से लोगों को प्रभावित कर रहे थे और समाज में फैले अंधविश्वास, भेद-भाव, असहिष्णुता आदि को मिटाकर प्रेम और भाईचारे का उपदेश दे रहे थे।
बिहार के एक छोटे-से गाँव धरकंधा में सं.1691 के कार्तिक पूर्णिमा को एक संत का जन्म हुआ, जिनका नाम ‘दरिया’ पड़ा। दरिया साहब की जन्म सदी को लेकर विवाद है, किन्तु यह सर्वमान्य है कि उनका जन्म कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। आज के दिन ही 1526 ईस्वी की कार्तिक पूर्णिमा को सिखों के पहले गुरू, नानक देव जी का जन्म हुआ था।
दरिया साहब मध्यकालीन भारत के महत्त्वपूर्ण संत थे जिन्होंने स्वयं को कबीर का अवतार बताया और उनके विचारों को आगे बढ़ाया। दरिया साहब ने सांप्रदायिक भेद-भाव को मिटाने के लिए हिन्दू और मुसलमान दोनों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने भी जाति-पाँति और हिन्दू-मुस्लिम के भिन्न होने की धारणा को गलत ठहराते हुए कहा –
हिंदु तुरक हम एके जाना। जो एह मानै शब्द निसाना।। (दरियासागर)
जाति पाँति नाहि पूछिए, पूछहूँ निर्मल ग्यान।
संत की जाति अजाति है, जिन्हि पायो पद निर्बान। (भक्तिहेतु)
हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करना मध्यकालीन भारत में कोर्इ नर्इ या असाधारण बात नहीं थी। इस युग के लगभग सभी संतों ने उनकी एकता का प्रयास किया। असाधारण बात यह थी कि दरिया साहब ने इन दोनों के अस्तित्व को जस-का-तस बनाये रखा। बुकानन ने अपनी रिपोर्ट में यह बात दर्ज की है कि ‘उनके हिंदू तथा मुस्लिम गृहस्थ शिष्यों को अपने धर्म की परम्परागत प्रथाओं को मानने की स्वतंत्रता थी।’
भारतीय समाज में हमेशा से स्त्रियों को नीचा दर्जा दिया गया है। संत कवि चाहे जितने भी प्रगतिशील क्यों न हों, पर स्त्री संबंधी उनके विचार संकुचित और परम्परागत ही रहे हैं। अधिकांश संत कवियों ने स्त्री को ‘नरक का द्वार’ माना है। जबकि दरिया साहब मध्यकाल में स्त्री-पुरूष समानता की बात कर रहे थे। दरिया साहब ने स्त्री-पुरुष को समाज का विशेष अंग मानते हुए दोनों के एक मत होने की बात कही –
“नारि पुर्ख जो एक मत होई,
युग-युग राज करेगा सोई।।”
“नारि पुर्ख एके मत माखा।
सो मैं सुनी हिरदय मंह राखा।।
नारि पुर्ख नहिं एक मत चलई।
सो तुम्हरे घर किमि कर रहई।।
सो तुम्ह ग्यान कहो समुझाई।
सो नर तैसन करे उपाई।।” (ग्यान रतन)
नौ वर्ष की अवस्था में दरिया साहब का विवाह हो गया था। बीस वर्ष की आयु में वे सांसारिकता का त्याग कर प्रचार कार्य में लग गये। उनकी पत्नी शाहमती (शाहजादी) सदा उनके साथ ही संगमित्र बनी रहीं। इस प्रकार दरिया साहब ने अपने व्यवहारिक जीवन के माध्यम से भी स्त्री को सम्मानजनक सहयात्री बनाने का संदेश दिया।
दरिया साहब बलि-प्रथा के कट्टर विरोधी थे। उनके गाँव के पास ही जखनी- भवानी नाम से प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ पशुओं की बलि दी जाती थी। दरिया साहब ने इसका विरोध किया, पर जब कट्टरपंथी हिंदू नहीं माने तब उन्होंने भवानी की मूर्ति को वहाँ से हटाकर कहीं और छुपा दिया। जिसके कारण वे सभी उनके शत्रु हो गए और यह निश्चय किया कि अब दरिया की बलि देंगे। फिर भी दरिया साहब डरे नहीं और मूर्ति तभी लौटाई जब लोगों ने लिखित रूप में यह वादा किया कि अब यहाँ बलि नहीं दी जायेगी। यह मंदिर आज भी धरकंधा से 6 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।
धरकंधा गाँव बिहार के रोहतास जिले में है , जो आरा से करीब 52 मील, डुमराँव से 26 मील और सूरजपूरा से 6 मील दूर है। दरिया मठ तक पहुँचने का मार्ग आज से दो साल पहले तक काफी कठिन था। सरना से कच्चे मार्ग के जरिए स्वयं की गाड़ी या पैदल लगभग 6 किलोमीटर तक जाना पड़ता है। अब पक्के मार्ग का निर्माण तो हो गया है किन्तु ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ आज भी नहीं है। हमें रेल मार्ग से आरा या भभुआ रोड (स्टेशन) पहुँचकर वहाँ से सासाराम- पटना जाने वाली बस लेनी होती है। एनएच30 सरना से होकर गुजरता है। दरिया साहब का जन्म स्थान होने के कारण यह दरियापंथी साधुओं का प्रमुख केंद्र है।
दरिया साहब के जन्मदिवस कार्तिक पूर्णिमा के दिन धरकंधा में एक वृहत भंडारा का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर- दूर से अनुयायी आते हैं। भंडारे में कम-से कम 25-30 हजार साधु और गृहस्थ अनुयायी शामिल होते हैं। दरिया साहब की बीस प्रामाणिक रचनायें हैं। जिनमें एक फारसी, एक संस्कृत और अठारह हिंदी में हैं। दरिया साहब के कई रचनाओं के पहले पृष्ठ पर यह आदेश वाक्य लिखा मिलता है –
“केवल दरियापंथी साधु या भक्त ही इस ग्रंथ को पढ़ें, समझें, बूझें या रखें। दरियापंथी से इतर अनधिकृत व्यक्ति इसे ‘बांचे’ या रखे तो उसे सौगंध! इस आदेश को न माननेवाला, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, फिरंगी हो या वैरागी, निस्संतान मरेगा अथवा विनाश को प्राप्त होगा। सत्तनाम! सत्तनाम।”
इस निषेधाज्ञा ने दरिया साहब के अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान और उनके पंथ के अध्ययन और मूल्यांकन में बाधा उत्पन्न की है इसमें कोई संदेह नहीं। दरियापंथ में शामिल पेशेवर और पढ़े-लिखे लोग यह समझने लगे हैं कि दरिया साहब और पंथ के बारे में लोगों को जानकारी होना, स्वयं पंथ के लिए हितकारी है। इसलिए मध्यकाल में हिंदू-मुस्लिम एकता, समाज सुधार और भाईचारे के मूल्यों की स्थापना करने वाले दरिया साहब की चर्चा फिर से होने लगी है।
सुधा निकेतन रंजनी। दरिया साहब पर जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी से शोध। फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कॉलेज में अध्यापन। बिहार के छोटे से गांव से दिल्ली तक के सफ़र में सुधा ने लंबा संघर्ष किया है, जो सतत जारी है। वो महानगरीय जीवन में हर दिन स्त्री अस्मिता की लड़ाई लड़ती हैं, बिना किसी शोर-शराबे के।
गांव शहर बना तो हम हिंदू मुस्लमां हो गए… पढ़ने के लिए क्लिक करें
पुरुषोत्तम अग्रवाल- बिहार के दरिया साहब पर, साठ साल पहले धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी ने काम किया था, दरिया ग्रंथावली का संपादन किया था। उसके बाद, सुधा ने यह पहला काम किया है, पहला और शानदार… काश,सुधाजी इसे प्रकाशन के लिए तैयार करने का समय निकाल पाएँ.
Shashi Sharma- बहुत बहुत बधाई सुधारंजनी। इस पुस्तक का छपना जितना ज़रूरी है उससे ज़्यादा इसे पढ़ा जाना ज़रूरी है।
Subrato Mitra- ढेर सारी बधाई। आशा है पुस्तक जल्दी प्रकाशित होगी।
असहिष्णुता का मुकाबला हम सहिष्णुता से ही कर सकते हैं।
Charu Singh- ये सच में अच्छी ख़बर है,मैं बहुत समय से दरिया साहब पर और सामग्री ढूँढ रही थी, ख़ास कर उनकी ‘ज्ञान दीपिका’।